सरकार की चरणवंदना में जुटी मीडिया काश आंबेडकर को ही पढ़ लेती!

देवेश त्रिपाठी
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कोरोना महामारी से जूझता हुआ देश। देश की आर्थिकी बिगड़ी हुई, जगह-जगह मज़दूर भूख से बेहाल। इसी बीच देश का प्रधानमंत्री देश को संबोधित करता है। उसके देश का मीडिया टीवी पर गिनता है कि प्रधानमंत्री ने कितनी बार हाथ जोड़े। भविष्य में जब भी वर्तमान दौर की बात होगी, तो लिखा जायेगा कि सांप्रदायिक हिंसा से लेकर आसमान छूती गैर-बराबरी से बजबजाते वक़्त में जब कोरोना महामारी की आफ़त आन पड़ी थी, देश का मीडिया इतना धंस चुका था कि उसे हाथ जोड़ने की मुद्रा के सिवा और कुछ दिखना बंद हो चुका था। लिखा जायेगा कि सरकार और संघ की प्रयोगशाला में ढलकर तैयार हुआ सरकार का अगुआ जब महामारी के वक़्त देश की वंचित जनता को ससम्मान दोनों वक़्त की रोटी देने में अक्षम था, देश की मुख्यधारा की मीडिया देश के संविधान और पत्रकारिता के मूल्यों की तिलांजलि देकर 56 इंची सीने वाले सरकार बहादुर की सारी कमज़ोरियों पर पर्दा करने डालने का घृणित कार्य कर रही थी।

देश का संविधान आज जिस नाज़ुक हालत में है और उसे इस हालत में पहुंचाने के दोषियों में मीडिया को शामिल देखकर, संविधान के जनक आंबेडकर के पत्रकारीय मूल्यों की ओर लौटना ज़रूरी हो जाता है। धंधे के आगे ईमान बेच देने वाले पत्रकारों के लिए आंबेडकर ने अपने अख़बार मूकनायक की संपादकीय में आज से करीब 90 साल पहले ही लिख दिया था कि “भारत में पत्रकारिता पहले एक पेशा थी। अब वह एक व्यापार बन गयी है। अखबार चलाने वालों को नैतिकता से उतना ही मतलब रहता है जितना कि किसी साबुन बनाने वाले को। पत्रकारिता स्वयं को जनता के जिम्मेदार सलाहकार के रूप में नहीं देखती। भारत में पत्रकार यह नहीं मानते कि बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, निर्भयतापूर्वक उन लोगों की निंदा करना जो गलत रास्ते पर जा रहे हों– फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों, पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित करना उनका पहला और प्राथमिक कर्तव्य है। व्यक्ति पूजा उनका मुख्य कर्तव्य बन गया है।”

जिस अनैतिक और जातिवादी स्वरूप वाले मीडिया का सामना आज कर रहे हैं तथा अधिनायकवादी दौर में टीवी मीडिया के जिस घिनौने स्तुतिगान को पूरा देश सुन रहा है, आंबेडकर के दौर में भी समाचार-पत्रों में ऐसे खेल जारी थे।

“भारतीय प्रेस में समाचार को सनसनीखेज बनाना, तार्किक विचारों के स्थान पर अतार्किक जुनूनी बातें लिखना और जिम्मेदार लोगों की बुद्धि को जाग्रत करने के बजाय गैर–जिम्मेदार लोगों की भावनाएं भड़काना आम बात हैं। व्यक्ति पूजा की खातिर देश के हितों की इतनी विवेकहीन बलि इसके पहले कभी नहीं दी गई। व्यक्ति पूजा कभी इतनी अंधी नहीं थी जितनी कि वह आज के भारत में है।” (आंबेडकर समग्र, खंड 1)

प्रधानमंत्री की के हाथ जोड़ने को गिनने वाला संस्थान या सामान्य बातों को मंत्र बताकर प्रस्तुत करने वाला पत्रकार कभी पलटकर सरकार से यह सवाल नहीं पूछता कि लॉकडाउन में गरीबों-मज़दूरों के लिए उनकी क्या तैयारी है। पिछले कुछ दिनों में पूरे देश में जगह-जगह फंसे हुए मज़दूरों के प्रोटेस्ट हुए, इनमें से किसी ने भी सवाल मज़दूरों के सवालों को सरकार से नहीं पूछा। आंबेडकर ने कहा था कि “पूरे भारत में प्रतिदिन हमारे लोग अधिनायकवादी लोगों के बेहरहमी और भेदभाव का शिकार होते हैं लेकिन इन सारी बातों को कोई अखबार जगह नहीं देते हैं। एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत तमाम तरीकों से सामाजिक–राजनीतिक मसलों पर विचारों को रोकने में शामिल हैं।”

राष्ट्राध्यक्षों के साथ अपने ट्विटर पर तस्वीरें चमकाने वाला पत्रकार पलटकर यह भी नहीं पूछ पाता कि कोरोना के चलते देश में डॉक्टरों की जान पर बन आयी है और देश आ रहे 4 लाख किट मोदीजी के मित्र ट्रंप कैसे हड़प गये

सुधीर चौधरी से लेकर दीपक चौरसिया जैसे पत्रकार लॉकडाउन की घोषणा के बाद आईटी सेल की तर्ज़ पर अपने ट्विटर पर समान भाषा में समान ट्वीट करते रहे कि 30 अप्रैल की जगह 3 मई तक लॉकडाउन क्यों किया गया। इसे ट्वीट करते उनकी तत्परता कुछ यूं दिखी जैसे कोरोना का वैक्सीन मिलन की ख़बर दे रहे हों।

सरकार के सम्मुख बिछ जाने को ये पत्रकार जितने आमादा दिखाई देते हैं, काश बस अपनी ही इंडस्ट्री के लोगों से यह अपील कर देते कि किसी को नौकरी से निकाला न जाये, किसी के पैसे न काटे जायें। मीडिया में 6 से से ज़्यादा संस्थानों में पत्रकारों को नौकरी से निकाला जा रहा है और वेतन में कटौती की जा रही है।

कोरोना के दौर में जब गैरबराबरी अपने सबसे क्रूरतम रूप में सामने खड़ी है, हमारे देश की मीडिया ने गरीबों, वंचितों, मज़दूरों, निम्न आय वर्ग के लोगों की ख़बरों का एक किस्म का बहिष्कार कर रखा है। आंबेडकर के पत्रकारीय मूल्यों को याद करना समाज के इन्हीं अंधेरों की याद दिलाता है और हमें उनकी पहचान के लिए गवाही देने को प्रेरित करता है। हम जानते हैं गोदी मीडिया के इन पत्रकारों ने आंबेडकर को नहीं पढ़ा होगा, वरना उनमें इतना पत्रकारीय संस्कार तो होता कि वे देश के प्रधानमंत्री के जुड़े हाथ गिनने की जगह उनकी आंखों में आंख डालकर सवाल कर पाते।