केजरीवाल— अगले 18 दिन गीता के 18 अध्याय पढ़ो.
मोदी सरकार– रामायाण और महाभारत देखो.
स्टीफन हॉकिंग– इस ब्रह्मांड के संचालन में ईश्वर की भूमिका की गुंजाइश नहीं है.
जन क्या है..? ‘जन वह है जिसका शोषण होता है लेकिन वह किसी का शोषण नही कर सकता, या करने की स्थिति में नही होता’- यह निष्कर्ष निकला था गुरु और इतिहासकार प्रो.लालबहादुर वर्मा को पढ़ने-सुनने के बाद.
लेकिन हम अपनी व्यवस्था को ‘जनतंत्र’ की जगह ‘लोकतंत्र’ क्यों कहना पसंद करते हैं? क्या ‘जन’ की जगह ‘लोक; कहने से अर्थछवि बदल नहीं जाती? वाक़ई भाषा का खेल बड़ा महीन होता है. पूरी दुनिया के लिए जो ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ महज लोगों के बीच भौतिक दूरी का अर्थ देती है, वही भारत में तमाम लोगों के लिए वर्णव्यवस्था या छुआछूत वैज्ञानिक होने का प्रमाण है. सामाजिक भेदभाव के आदी हो चुके समाज की यह स्वाभाविक गति है.
बहरहाल, बात ‘लोक’ और ‘जन’ की. जन आधारित जनतंत्र का अर्थ यही हुआ कि सब कुछ के केंद्र में ‘जन’ होगा. वह शासित नहीं शासक होगा. संविधान को आत्मार्पित करने वाले ‘हम भारत के लोग’ के अर्थ का यह अर्थ विस्तार है।
लेकिन लोकतंत्र! इसमें छिपा ‘लोक’ कुछ कहता है. लोक की बात करते ही ‘परलोक’ की अवधारणा खड़ी हो जाती है. इहलोक को सुधारना है ताकि परलोक सुधर जाये.
यानी जनतंत्र जहां एक सेक्युलर (इस दुनिया का) व्यवस्था की शिनाख़्त करता है, वहीं लोकतंत्र में ‘परलोकतंत्र’ के प्रवेश के रास्ते खुले हैं। एक प्रगतिशील समाज दोनों के अंतर को ख़त्म कर सकता था या फिर ‘जन’ को ‘लोक’ से प्रतिस्थापित भी कर सकता था, लेकिन सौदा महंगा पड़ता. लिहाज़ा लोक-परलोक का खेल जारी रखा गया है.
लगभग दो साल पहले (14 मार्च 2018) को स्मृतिशेष हुए, आइंस्टीन के बाद सबसे महान विज्ञानी कहे जाने वाले स्टीफ़न हाकिंग ने अपनी किताब ‘द ग्रांड डिज़ायन’ में तमाम वैज्ञानिक सिद्धांतों और प्रयोगों का हवाला देते हुए कहा था कि ब्रह्मांड के संचालन के लिए किसी ईश्वर की ज़रूरत नहीं है. ब्रह्मांड से पुराना या बड़ा कुछ भी नहीं है. हमारा सौरमंडल अनूठा नहीं है बल्कि ब्रह्मांड में कई सूरज हैं जिनके चारो ओर ग्रह चक्कर काटते रहते हैं जैसे पृथ्वी. मनुष्य इस अर्थ में ही अनूठा है कि वह ब्रह्मांड़ को समझ सकता है।
हॉकिंग कहते हैं कि गुरुत्वाकर्षण वो नियम है जिसके चलते ब्रह्मांड अपने आपको शून्य से एक बार फिर शुरू कर सकता है और आगे भी करेगा. ये अचानक खुद ब खुद होने वाली खगोलीय घटनाएं हमारे अस्तित्व के लिए ज़िम्मेदार हैं. ऐसे में ब्रह्मांड को चलाने के ले किसी ईश्वर की ज़रूरत नही है.
ख़ैर, ईश्वर पर आस्था के ज़रिये जीवन में पसरी दुखों की नदी को पार करने वालों के लिए स्टीफ़न हॉकिंग की बात स्वीकार करना आसान नहीं है. वे परलोक के सहारे ही लोक की मुसीबत झेलते हैं जिसे ध्यान में रखते हुए मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम बताने के साथ-साथ उसे ‘हृदयहीन दुनिया का प्राण’ भी कहा था. मार्क्स जब धर्म को अफ़ीम बता रहे थे तो यह दर्दनिवारक के रूप में इस्तेमाल होती थी. शासकवर्ग के लिए ‘परलोक’ के छद्म के सहारे लोक पर क़ब्ज़ा करने या बनाये रखने का सिलसिला पुराना है. इसके उलट की प्रक्रिया अपनाना ख़ासी तक़लीफ़देह और समाज में ऐसी प्रश्नाकुलता पैदा करने वाली है जो शासकों के लिए हमेशा ख़तरे की घंटी रही है। राजतंत्र में राजा ईश्वर की छाया ही माना गया है। ‘ज़िल्ले इलाही’ का यही अर्थ है.
इतनी लंबी भूमिका के बाद यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों को लॉकडाउन के बचे हुए 18 दिनों में गीता पाठ करने की सलाह क्यों दे रहे हैं. गीता जैसे ग्रंथ का एक संदेश बड़ा स्पष्ट है कि जो कुछ हो रहा है दुनिया मे वह स्वयं भगवान कर रहे हैं। भगवान से इतर संसार मे कुछ भी नहीं है। जो मर रहा है वह भी ईश्वर है और जो मार है है वह भी ईश्वर ही है। लिहाज़ा किसी चीज़ का भी शोक नहीं करना चाहिए. सब ईश्वर की लीला है. किसी संशय की ज़रूरत नहीं है.
वैसे, केजरीवाल चाहते तो 18 दिनों में भारतीय संविधान के घर-घर पाठ का भी आग्रह कर सकते थे, लेकिन उन्होंने गीता का चुनाव किया. इससे पहले वे चुनाव में बीजेपी के जय श्रीराम के नारे का जयबजरंगबली के नारे से सफल मुकाबला कर चुके हैं. यही नहीं, दिल्ली के बुज़ुर्गों को तीर्थयात्रा कराने की अनोखी योजना भी इस आईआईटी से निकले मुख्यमंत्री ने लागू की है जो बताता है कि लोगों का परलोक सुधारने में उनकी कितनी रुचि है.(वे दिल्ली ही नहीं स्वर्ग में भी स्वराज लाने की चाहत रखते हैं जिसे सुनकर इंद्र का सिंहासन डोलने लगना चाहिए.)
ध्यान से देखें तो दिल्ली की राजनीति पर क़ाबिज़ दोनों महत्वपूर्ण दल परलोक का संदेश देने के मामले में होड़ ले रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने महाभारत के युद्ध के 18 दिनों का हावाल देते हुए कोरोना से 21 दिन में निपटने का संकल्प जताया था. फिर उनकी सरकार ने कोरोना से पैदा हुए इस विकट संकट के बीच दूरदर्शन ने रामायण और महाभारत का प्रसारण भी शुरू कर दिया। यह कोरोना के ख़िलाफ़ किसी कल्याणकारी राज्य की भंगिमा नहीं है। यह धर्मयुद्ध की मुद्रा है और यहां धर्म बहुत स्थूल अर्थ में है ( आशय हिंदू धर्म से ही है जिसके वोट से सरकार बनती बिगड़ती है). थाली-ताली बजाकर कोरोना कि चिड़िया उड़ाने का हौसला दिखा चुकी बालकनी वाली जनता के लिए यह किसी ‘वैकेशन गिफ़्ट’ की तरह है। इन भाषणों-प्रसारणो के ज़रिये जो मानस तैयार किया जा रहा है, वह भी स्पष्ट है। जनता के मन में इस बहाने कूट-कूट कर भरा जाएगा कि कोरोना काल में जो भी कष्ट हुए या हो रहे हैं उसके लिए न केजरीवाल ज़िम्मेदार हैं और न मोदी, यह सब ‘हरिइच्छा’ है। अब हरि को कौन चैलेंज कर सकता है?
जनतंत्र में राजनीतिक दलों का काम है लोकजीवन को व्यवस्थित और विकसित करना। वे उन एजेंसियों की तरह हैं जो जनता के सामने अपना प्रोजेक्ट रखती हैं और जनता पर है कि वह उसे स्वीकार करे या अस्वीकार। इसमें रोज़ी-रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे सभी अहम मुद्दे आ जाते हैं। पर जनतंत्र को परलोकतंत्र बनाने में जुटे राजनीतिक दल अपनी असफलता को उस ईश्वर के मत्थे मढ़ दिया है जो है ही नहीं। इस कोरोना काल में उसकी अनुपस्थिति अब मज़ाक़ का विषय बन गयी है। मक्का से लेकर वेटिकन और पुरी के जगन्नाथ मंदिर तक फैला सन्नाटा बता रहा है कि ईश्वर लंबी छुट्टी पर चला गया है। लेकिन रामायण और गीतापाठ करने वाली जनता तो इसे लीला मानकर चुप रह जाएगी। यह तो संविधान का पाठ करने वाले हैं जो सवालों का मोर्चा छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
शासक वर्ग इस ख़तरे को जानता है. इसीलिए संविधान-संविधान रटकर राजनीतिक क़ामयाबी हासिल करने वाले भी संविधान नहीं गीतापाठ की सलाह दे रहे हैं।
अपनी ही एक ग़ज़ल का शेर है-
कोई हो सल्तनत, बुनियाद डाली है लुटेरों ने
हैं सारे ज़ख्म सुल्तानी तो मरहम आसमानी क्या..
नोट-डा.आंबेडकर ने गीता को यथास्थिति का ही नहीं, गैरबराबरी को धार्मिक मान्यता देने वाला ग्रंथ बताया है।
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।