2009 में जब अर्थव्यवस्था वैश्विक मंदी की मार से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रही थी, उस समय अमेरिका का अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स एक जोरदार आंतरिक बहस में उलझा हुआ था। टाइम्स के नीति निर्देशक भविष्य को ध्यान में रखते हुए ऐसी योजना बनाना चाहते थे जिससे कि टाइम्स के समाचार और अन्य सूचनायें केवल भुगतान करने वाले ग्राहकों को उपलब्ध हो सकें। अंततः टाइम्स ने ऑनलाइन और प्रिंट वर्जन के घटते राजस्व को देखते हुए और आय के नए स्रोतों के लिए पे-वाल (वेबसाइट पर साधारण उपयोगकर्ता एवं प्रीमियम उपयोगकर्ता के मध्य अंतर रखने में प्रयुक्त तकनीकी) लागू करने का निर्णय लिया।
28 मार्च, 2011 को टाइम्स ने ‘मीटर्ड पे-वाल’ शुरू की, जिसके तहत लोग एक महीने में बीस लेख तक मुफ्त पढ़ सकते थे। एक महीने में इससे अधिक लेख पढ़ने के लिए ‘सब्सक्रिप्शन’ खरीदना आवश्यक था। हाल के वर्षों में टाइम्स ने पे-वाल के अपने प्रतिबंधों को और बढ़ाया है। अब वो पाठकों को कम मुफ्त लेख प्रदान कर रहा है। पाठकों को सब्सक्रिप्शन लेने के लिए टाइम्स और भी अधिक समझाने का प्रयास करता है। इलीट प्रकाशनों के एक छोटे से क्लब ने अब विज्ञापनदाताओं के बजाय पाठकों के माध्यम से अपनी पत्रकारिता का समर्थन करने का एक स्थायी तरीका खोज लिया है। इस बीच बहुत से फ्री-टू-रीड आउटलेट, जिन्होंने व्यवहार्य व्यावसायिक मॉडल खोजने का श्रम किया है, अभी भी विज्ञापन से प्राप्त राजस्व पर निर्भर हैं। जिसमें डिजिटल-मीडिया क्रांति की पूर्व अगुआ जैसे कि बजफीड, वाइस, हफपोस्ट, माइक, माशेबल, और वोक्स मीडिया के उपक्रम शामिल हैं।
इनमें से कई कंपनियों ने वेंचर फंडिंग के माध्यम से सैकड़ों मिलियन डॉलर का निवेश पाया और बड़े आकार के न्यूज़ रूम बनाए। फिर भी वे व्यवसाय के रूप में सफल होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। क्योंकि डिजिटल विज्ञापनों से होने वाली आय का बड़ा भाग गूगल और फेसबुक जैसे माध्यम अपने पास रखते हैं। यह दोनों संबंधित कंपनियों को आय का मामूली हिस्सा ही देते हैं। डिजिटल विज्ञापन से मिलने वाले मामूली हिस्से ने कुछ साइटों को बंद होने पर मजबूर कर दिया। कुछ ने खुद को बचाये रखने के लिए अपनी पत्रकारिता की महत्वाकांक्षाओं का त्याग करते हुए कास्ट कटिंग के नाम पर अपने कर्मचारियों की बलि ले ली।
एक मजबूत, स्वतंत्र प्रेस व्यापक रूप से लोकतंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा समझा जाता है। यह मौजूदा दौर में डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर प्रोपेगंडा आधारित अफवाहों, अर्धसत्य, और प्रचार के खिलाफ एक दीवार के रूप में भी काम करता है। प्रोपेगंडा आधारित अफवाहें, अर्धसत्य और कुत्सित प्रचार डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के साथ कॉर्पोरेट पूँजी से संचालित अधिकांश प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की एक भीषण समस्या बन चुका है; इसलिए स्वतंत्र और उच्चतम गुणवत्ता वाली पत्रकारिता का अधिकांश हिस्सा पे-वाल के पीछे खड़ा है। हाल के दिनों में जब कोरोना नामक वायरस से फैली महामारी ने लगभग पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है, उस दौरान तथ्य आधारित समाचार के मूल्यों को पहचानते हुए टाइम्स, द अटलांटिक, वॉल स्ट्रीट जर्नल, वाशिंगटन पोस्ट, न्यू यॉर्कर ने कोरोना वायरस से संबंधित समाचारों के लिए अपनी पे-वाल की दर में कटौती कर दी है। कोरोना वायरस से उत्पन्न हुई आपातकाल जैसी स्थिति के अधिक दिन तक बने रहने पर यह स्पष्ट नहीं है कि कब तक प्रकाशक दर कम रखने के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे।
कोरोना वायरस से उत्पन्न संकट समाज के हर पहलू को निगल जाने को आतुर है। इससे व्यापक पैमाने पर आर्थिक अव्यवस्था और सामाजिक संकट पैदा होंगे, जिनकी अवधि और असर दीर्घकालिक हो सकते हैं। कोविड-19 के प्रसार से पैदा हुई आर्थिक नाकाबंदी विज्ञापन से प्राप्त राजस्व पर निश्चित ही गंभीर प्रभाव डालेगी, जिससे अधिकतर डिजिटल न्यूज आउटलेट और स्थानीय अखबार बंद हो सकते हैं।
2004 और 2018 के बीच पाँच अमेरिकी अखबारों में से लगभग एक बंद हो गया। उस समय प्रिंट न्यूज़ रूम ने अपने लगभग आधे कर्मचारियों को निकाल दिया। कम पत्रकारों का मतलब है कम खबरें। जानकारी की नदी को प्रवाहमान रखने वाली सहायक नदियाँ सूख रही हैं। गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता के कुछ पहाड़ी झरने हैं, जिनमें से अधिकांश पे-वाल के सहारे खड़े हैं। द रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म द्वारा पिछले साल जारी एक रिपोर्ट समाचार पाठकों के बीच उभरे विभाजन को चित्रित करती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में ऑनलाइन समाचार के लिए भुगतान करने वाले लोगों का अनुपात कुल पाठकों का सिर्फ सोलह प्रतिशत है। अधिकतर ऐसे पाठक धनवान होते हैं और उनके पास कॉलेज की डिग्री होने की अधिक संभावना होती है।
2018 में प्रकाशित “ब्रेकिंग न्यूज” पुस्तक में गार्जियन के पूर्व प्रधान संपादक एलन रुसब्रिजर ने अखबार में पे-वाल लगाने के विवादास्पद तर्कों का वर्णन किया है। रुसब्रिजर लिखते हैं कि उन्होंने और अन्य लोगों ने डिजिटल पहुँच के लिए चार्ज करने का विरोध किया। पे-वाल के दुष्प्रभाव को चिन्हित करते हुए रुसिबिगर ने कहा, “सबसे अच्छी जानकारी को उन लोगों तक सीमित रखा जा रहा है, जो भुगतान कर सकते हैं। बाकी लोगों को जानकारी के नाम पर कूड़ा परोसा जा रहा है।” एलन रुसब्रिजर के अनुसार, ”लगभग असीमित जानकारी वाली दुनिया में सबसे अच्छा केवल धनी लोगों के लिए उपलब्ध होगा।”
लिडिया पोलग्रीन ने तीन वर्ष पहले टाइम्स का महत्त्वपूर्ण पद छोड़ हफपोस्ट के संपादकीय प्रभारी का दायित्व संभाला था। हाल ही में उन्होंने हफपोस्ट से विदाई ले ली। लिडिया पोलग्रीन के अनुसार, ”ट्रम्प की जीत के बाद समाज में जैसी असमानता की बातें हम करते हैं, वैसी ही असमानता मीडिया में तेजी से पैर पसार चुकी है। पुश्तैनी समाचार संगठनों के मुख्य पाठक/दर्शक अमीर, सबसे अच्छी सूचनायें रखने वाले और उच्च शिक्षित हैं। वे किसी भी माध्यम से सूचना प्राप्त करने के चुनाव पर मनचाहा खर्च कर सकते हैं।” पोलग्रीन के अनुसार वे उस बड़ी आबादी के लिए डिजिटल समाचारों पर कार्य करना चाहती थीं, जो न्यूयार्क टाइम्स का सब्सक्रिप्शन कभी नहीं ले पायेंगे।
पिछले वर्ष पोलग्रीन ने गार्जियन अखबार में op-ed के माध्यम से सूचना के पारिस्थितिकी तंत्र के हो रहे पतन पर अपनी आशंका व्यक्त की थी। अपने लेख में वे विज्ञापनदाताओं को उन तरीकों पर विचार करने को कहती हैं, जिन तरीकों से वे सूचना के पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करने में अपना योगदान दे रहे हैं। वह विज्ञापनदाताओं को सुझाव देती हैं सूचना के पारिस्थितिकी तंत्र को बचाये रखने के लिए उन्हें गूगल और फेसबुक द्वारा नियंत्रित डिजिटल एडवरटाइजिंग नेटवर्क की मनमानी रोकनी होगी। इसके लिए एक कंपनी को अपने मार्केटिंग बजट का एक हिस्सा विशेष रूप से उच्च-गुणवत्ता वाली समाचार साइटों के लिए आरक्षित करना चाहिए। इससे वे सूचना पारिस्थितिकी तंत्र के ढहते ढाँचे को बचाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।
पत्रकारिता के मूल को बनाए रखने के लिए गैर-लाभकारी मॉडल एक प्रभावी मॉडल है। यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया के एनेबर्ग स्कूल फॉर कम्युनिकेशन के एक प्रोफेसर विक्टर पिकार्ड ने अपनी नई पुस्तक Democracy Without Journalism? में तर्क दिया है कि एक सौ पचास वर्षों तक अखबारों का संचालन करने वाला व्यावसायिक मॉडल सुधार/मरम्मत से परे है। पिकार्ड के अनुसार, ”स्वतंत्र समाचार मीडिया प्रणाली के बिना लोकतंत्र के आदर्शों के बारे में सोचना भी नामुमकिन है।” फिलहाल स्वतंत्र और गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता की पहुँच सीमित होने से चिंतित लोग केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि डिजिटल-मीडिया उद्योग किसी तरह अपना रास्ता खोज ले, हालाँकि कोरोना वायरस महामारी के कारण होने वाली आर्थिक तबाही ने इसे और भी कठिन बना दिया है।
आने वाले समय में कोविड-19 महामारी का प्रकोप इसी तरह जारी रहा तो यह कई देशों के आधारभूत ढाँचे को ध्वस्त कर देगा। इस महामारी ने कई विकसित और समृद्ध देशों की स्वास्थ्य व्यवस्था की बेबसी और कमजोरी को उजागर कर दिया है। कोरोना वायरस ने हमें दिखा दिया कि हम विकसित और समृद्ध होने के बुलबुले में जी रहे हैं। कोरोना वायरस मीडिया पारिस्थितिकी तंत्र सहित अन्य प्रणालियों के साथ भी यही करेगा। कोरोना वायरस से पैदा हुई आर्थिक मंदी के बाद यह सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि मीडिया पारिस्थितिकी तंत्र अपना बचाव कैसे करता है और खुद को पुनः कैसे खड़ा करेगा?
प्रस्तुतिः विभांशु केशव / अंकुर जायसवाल