पिछले पांच दिनों से हम जम्मू-कश्मीर के सीनियर पुलिस अधिकारी दविन्दर सिंह की गिरफ्तारी के बारे में पढ़ रहे हैं, जो जम्मू-कश्मीर पुलिस के एंटी हाइजेकिंग यूनिट में हुमहमा एयरपोर्ट श्रीनगर में कार्यरत था। उसे पिछले साल राष्ट्रपति मेडल भी दिया गया था जिससे वहां की पुलिस इंकार कर रही है। राज्य के पुलिस प्रमुख का कहना है कि पुलवामा में हुए अटैक के बाद उसे राज्य सरकार ने मेडल दिया था (वैसे यह याद रखना भी बहुत ही जरूरी है कि जब पुलवामा पर अटैक हुआ था तो वहां राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था)। अर्थात दविन्दर सिंह सीधे केन्द्र सरकार के अधीन काम कर रहा था और अगर उसे मेडल उसी वीरता के लिए मिला था तब भी उसे केन्द्र सरकार द्वारा दिया गया मेडल ही माना जाना चाहिए। दविन्दर सिंह के बारे में बहुत पहले अरुंधति राय ने आउटलुक में 13 दिसंबर के संसद हमले के संदर्भ में लिखा था और उसकी गिरफ्तारी के बाद उन्होंने एक संक्षिप्त टिप्पणी की है जिसे पढ़ा जाना चाहिए। इसके अलावा “13 दिसंबरः भारतीय संसद पर हमले का अजीबोगरीब मामला” नामक पुस्तक भी इस संदर्भ में पढ़ी जानी चाहिए।
हाल ही में यूरोपीय संघ के 15 सांसदों ने अनुच्छेद 370 हटाने के बाद जब कश्मीर का दौरा किया था तो वह स्वागत समिति का सदस्य था (वह संभवतः जेल में बंद बड़ी आबादी और नेताओं के तमाशे का लुफ्त उठाना चाह रहा था)। दविन्दर सिंह को जम्मू-कश्मीर पुलिस के अपने ही सहयोगियों के द्वारा एक विशेष ऑपरेशन में शनिवार, 11 जनवरी को दक्षिणी कश्मीर में खुद की गाड़ी में दो बड़े आतंकवादियों को हथियारों के साथ ले जाते समय गिरफ्तार किया गया था। पुलिस का कहना है कि यह ‘जघन्य अपराध’ है और उसे हम एक आतंकवादी के रूप में ही देख रहे हैं।
अधिकतर लोग नहीं जानते होंगे कि दविन्दर सिंह है कौन? लेकिन उन लोगों के लिए जिन्होंने 13 दिसंबर, 2001 के संसद पर हमले के बारे में शोध किया है या लिखा है, वे जानते हैं कि वह एक ऐसा बदनाम शख्स रहा है जिसे बिना दंड दिए आजाद छोड़ दिया गया है। रविवार, 12 जनवरी को संवाददाता सम्मेलन में संसद पर हुए हमले के प्रश्न के जवाब में कश्मीर के आइजी विजय कुमार ने कहा, “हमारे रिकार्ड में इसका कोई उल्लेख नहीं है और न ही मैं इसके बारे में कुछ जानता हूं… हम उनसे इस बारे में सवाल करेंगे।”
यह अज्ञानता नहीं बल्कि एक अंग-विन्यास है। उन सवालों को 13 साल पहले भी कई लोगों ने पूछा है। कई महत्वपूर्ण व्यक्ति जो इसका जवाब दे सकते थे अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया जा चुका है (‘समाज के सामूहिक विवेक को संतुष्ट करने के लिए’)। एसएआर गिलानी मर चुके हैं। पुलिस और खुफिया एजेंसी ऐसा व्यवहार कर रही है जैसे कि दविन्दर सिंह की गतिविधियों ने उसके चेहरे पर झन्नाटेदार चांटा मारकर चेहरा नीला कर दिया हो, लेकिन पुलिस के इस हावभाव पर विश्वास करना मुश्किल है।
सवाल तो है हीः अभी क्यों? अब हम किसी नई साजिश और बुरी कहानी को फिर से निगलने की उम्मीद कर रहे हैं?
अनुवाद और इंट्रोः जितेन्द्र कुमार
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