अभी 10 अगस्त को नेपाल पुलिस ने जाने-माने पत्रकार और साहित्यकार खेम थपलिया को काठमांडो में उनके बाग बाजार स्थित कार्यालय से गिरफ्तार कर लिया। वह मासिक पत्रिका ‘जलजला’ के संपादक हैं और फेडरेशन ऑफ नेपाली जर्नलिस्ट्स (एफएनजे) के सक्रिय सदस्य हैं। पुलिस उनके दफ्तर से उनका कंप्यूटर और ढेर सारी पुस्तकें भी जब्त कर अपने साथ ले गयी। पुलिस का कहना है कि खेम थपलिया बिप्लव के नेतृत्व वाली ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल’ (सीपीएन) के समर्थक हैं।
स्मरणीय है कि इसी वर्ष 12 मार्च को केपी ओली की सरकार ने नेत्र बिक्रम चंद उर्फ बिप्लव की पार्टी पर प्रतिबंध लगाते हुए इसे ‘आपराधिक और विध्वंसक’ कहा। इससे कुछ ही दिनों पूर्व पुलिस ने इसी आरोप में पोखरा में पत्रकार साजन साउद को गिरफ्तार किया। वरिष्ठ पत्रकार टीका राम प्रधान की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले महीने पुलिस ने एक संपादक जितेंद्र महर्जन को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही हिरासत से छोड़ा। इसी महीने पुलिस ने ‘डांग संदेश’ के संपादक जानकी चौधरी को एक कार्यक्रम के भाग लेते समय गिरफ्तार करने की कोशिश की लेकिन वहां उपस्थित लोगों के विरोध की वजह से वह नाकाम रही। पत्रकारों का कहना है कि सरकार किसी न किसी बहाने विरोध की आवाज को कुचलने का प्रयास कर रही है। सरकार द्वारा कुछ समय पूर्व लाए गए ‘मीडिया काउंसिल बिल’ के व्यापक विरोध की भी यही वजह थी।
‘काठमांडो पोस्ट’ में विनोद घिमिरे की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिसमें बताया गया है कि सरकार ने ‘मीडिया काउंसिल बिल’ पर उठे देशव्यापी विवाद की वजह से इसे ठंडे बस्ते में डाल तो दिया पर अब वह पहले से भी ज्यादा सख्त प्रावधानों वाले ‘मास मीडिया बिल’ को लाने जा रही है। इस विधेयक के मसौदे को अंतिम रूप देने में कानून और न्याय मंत्रालय लगा है। रिपोर्ट के अनुसार इस विधेयक के अनुच्छेद 59(1) के अनुसार अगर किसी पत्रकार ने राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मीडिया में कोई ऐसा समाचार प्रकाशित या प्रसारित किया जो देश की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ हो तो उसे एक करोड़ रुपए का जुर्माना देना होगा और अधिकतम 15 वर्ष की जेल की सजा काटनी होगी।
विधेयक के अनुच्छेद 59(3) के अंतर्गत इस बात का प्रावधान है कि अगर किसी पत्रकार की रिपोर्ट से विभिन्न जातियों, जनजातियों और धार्मिक समूहों के बीच सद्भावपूर्ण संबंधों में कमी आती है तो उसे 15 लाख रुपये का जुर्माना या 10 साल की सजा झेलनी होगी। इसके अलावा देशद्रोह, मानहानि या अदालत की अवमानना के खिलाफ भी कठोर दंड का प्रावधान है।
रिपोर्ट के अनुसार बिल का मसौदा संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने कैबिनेट की सलाह पर तैयार किया है और वित्त मंत्रालय से हरी झंडी मिलने के बाद यह विधि मंत्रालय में अंतिम रूप ले रहा है। सरकार की योजना है कि इसे बजट सत्र में संसद में पेश कर दिया जाय।
अब थोड़ा उस ‘मीडिया काउंसिल बिल’ के बारे में जान लें जिसके खिलाफ व्यापक एकजुटता हुई और जिसके स्थान पर इस नए ‘मास मीडिया बिल’को लाया गया है। 11 जून 2019 को नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने ‘ऑक्सफोर्ड यूनियन, लंदन’में शांति, जनतंत्र और विकास के मुद्दे पर बोलते हुए कहा- ‘‘एक ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसने अपने जीवन का पांच दशक से भी अधिक समय जनतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष में लगाया और चार साल की कैद तनहाई सहित 14 वर्ष जेल में बिताया, मैं जानता हूं कि मनुष्य और समाज के विकास और समृद्धि हेतु शिक्षा और अभिव्यक्ति की आजादी कितनी जरूरी है।’’
इस वक्तव्य से ठीक एक माह पूर्व 10 मई को उनकी सरकार ने अपनी संसद में अभिव्यक्ति की आजादी पर सीधा प्रहार करने वाला नेपाल मीडिया काउंसिल बिल पेश किया था।
बिल का न केवल मीडिया बल्कि नागरिक समाज और मानव अधिकार आंदोलन से जुड़े लोगों ने भी विरोध किया। सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के उन लोगों ने भी इसकी आलोचना करते हुए उन प्रावधानों में संशोधन की बात कही जिनमें पत्रकार को अपराधी की श्रेणी में रखते हुए भारी दंड की व्यवस्था है। नेकपा के वरिष्ठ नेता माधव नेपाल ने बिल में संशोधन की बात कही तो झलनाथ खनाल ने कहा कि सरकार को ऐसा कोई बिल नहीं लाना चाहिए जिसमें संविधान का उल्लंघन हो। इसी पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता नारायण काजी श्रेष्ठ ने तो कहा कि ‘ऐसे विधेयक को बदल देना चाहिए जिसमें सरकार द्वारा नामजद सदस्यों का बहुमत हो और वे न्यायाधीश का काम करें।’इसके अलावा संसदीय दल के उप नेता सुभाष नेमवांग, पार्टी की स्थायी समिति के सदस्य योगेश भट्टराई और पंफा भुसाल सहित अनेक लोगों ने सूचना मंत्री गोकुल बास्कोटा से अनुरोध किया कि वे इस विधेयक को वापस ले लें। लेकिन बास्कोटा ने तो पहले ही ऐलान कर दिया था कि वह बिल वापस नहीं लेंगे।
इस विधेयक का विरोध नेपाल के पत्रकार संगठनों के महासंघ ‘फेडरेशन ऑफ नेपाली जर्नलिस्ट्स’ (एफएनजे) की अगुवाई में लगातार तेज होता गया। मई के अंतिम सप्ताह में देश के 21 संपादकों ने एक वक्तव्य जारी करते हुए कहा कि यह विधेयक संविधान द्वारा प्रदत्त प्रेस की आजादी के खिलाफ है और इसे सरकार को फौरन वापस लेना चाहिए। वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने वालों में अखिलेश उपाध्याय, युवराज घिमरे, सुधीर शर्मा, कुन्द दीक्षित, कृष्ण ज्वाला देवकोटा, प्रतीक प्रधान, नारायण वाग्ले, प्रकाश रिमाल आदि जाने-माने पत्रकार थे। राजधानी काठमांडो के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में पत्रकार संगठनों के प्रदर्शनों का भी सिलसिला चलता रहा। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष अनूप शर्मा ने एक वक्तव्य के जरिए कहा कि अपना दायित्व पूरा करने में लगे पत्रकारों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।
पत्रकारों के इस आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का भी समर्थन मिला। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने एक वक्तव्य में कहा कि ‘नेपाली मीडिया को पत्रकारों के लिए अंतर्राष्ट्रीय तौर पर मान्य आचार संहिता से निर्देशित किया जा सकता है जिसमें पत्रकारों के अधिकारों और दायित्वों की घोषणा शामिल है जिसे म्यूनिख चार्टर के रूप में जाना जाता है।’इसका यह भी मानना है कि नेपाल के पत्रकार और वहां का मीडिया स्वयं ही ऐसे मीडिया काउंसिल के गठन की जिम्मेदारी ले सकता है जिसमें तीनों पक्षों–पत्रकारों, मीडिया मालिकों और जनता के चुने प्रतिनिधि हों। सरकार अगर इसमें अपना कोई प्रतिनिधि भेजना चाहे तो उसकी हैसियत महक प्रेक्षक की हो। प्रसंगवश बता दें कि 2019 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के मामले में नेपाल 180 देशों में 106ठें स्थान पर है।
अंततः लगभग दो महीने तक चले पत्रकारों के संघर्ष के बाद सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य सचेतक खेमलाल भट्टराई ने 9 जुलाई को ऐलान किया कि पार्टी के सांसद विधेयक के प्रावधानों को लेकर एफएनजे की चिंता के प्रति काफी गंभीर हैं। उन्होंने एक बयान में कहा कि ‘हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि हमारी पार्टी के सांसद मीडिया से संबंधित विधेयक के प्रावधानों के संबंध में किसी उचित निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं और इसके लिए वे एफएनजे तथा अन्य सरोकार समूहों से विचार-विमर्श करेंगे।’ इसमें पत्रकारों से आंदोलन खत्म करने की अपील भी की गई थी।
सत्ताधारी पार्टी के सांसदों की ओर से लिखित आश्वासन के बाद एफएमजे ने जुलाई के प्रथम सप्ताह में आंदोलन को फिलहाल स्थगित करने की घोषणा की, लेकिन दो-तिहाई बहुमत के घोड़े पर सवार के.पी. ओली की सरकार कुछ ऐसे कानूनों को लाने के लिए आमादा है जिससे आने वाले दिनों में जन असंतोष पर काबू पाया जा सके। ओली की अजीब स्थिति है- दो तिहाई बहुमत की ताकत भी है और अपने साथियों के भितरघात का डर भी है। सत्ता में बने रहने की जोड़तोड़ में लगे रहने की वजह से स्थिर सरकार के बावजूद अभी तक उन्होंने न तो ऐसा कोई कार्यक्रम लिया जो जनता की बदहाली दूर करने में मददगार हो और न रोजगार की तलाश में युवकों का खाड़ी देश को हो रहे पलायन में ही कोई कमी आई।
Energy is building to free a fellow comedian imprisoned for something he said about a movie! #FreePraneshGautamhttps://t.co/D60mKRgVrU
— Lee Camp [Redacted] (@LeeCamp) June 12, 2019
अभी कुछ माह पूर्व इनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने लोक गायक पशुपति शर्मा को इतना धमकाया कि उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ चर्चित अपने गाने को यूट्यूब से हटाना पड़ा। इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजैक्शन ऐक्ट (विद्युतीय कारोबार ऐन) के तहत प्राणेश गौतम नामक युवक को इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने निर्माता मिलन चामलिंग की फिल्म ‘बीर बिक्रम पार्ट 2’ की यूट्यूब पर व्यंग्यात्मक समीक्षा की थी। यह कानून बुनियादी तौर पर बैंकों, वित्तीय संस्थानों आदि में धोखाधड़ी को रोकने के मकसद से लाया गया था लेकिन पुलिस मनमाने ढंग से इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रही है।
फिर भी, भारत के मुक़ाबले नेपाल की पत्रकारिता को सलाम किया जा सकता है। भारत में मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्वेच्छा से सरकार की गोद में जा बैठा है, लेकिन नेपाल के पत्रकार सरकार की उन नीतियों का डट कर विरोध कर रहे हैं जिन्हें वे जनविरोधी मानते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार, नेपाल मामलों के विशेषज्ञ और ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के संस्थापक आनंदस्वरूप वर्मा मीडियाविजिल के परामर्शदाता मंडल के सदस्य हैं