खण्डहर में दबी हुई अन्य धुकधुकियों, हमें बेशर्त माफ़ कर दो…

Mediavigil Desk
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Alienation | Painting of Thomas Harutunyan |


बीबीसी प्रकरण पर 4 अगस्‍त, 2019 को प्रकाशित लेख पर मीडियाविजिल का आधिकारिक वक्‍तव्‍य


मीडियाविजिल डॉट कॉम पर रविवार 4 अगस्‍त, 2019 को ”बीबीसी से मीना कोटवाल के हटाए जाने की एक अंतर्कथा यह भी” शीर्षक से प्रकाशित आलेख के लिए हम अपने पाठकों के बेशर्त क्षमाप्रार्थी हैं। फेसबुक पर उठायी गई निजी आपत्तियों के जवाब में मीडियाविजिल के संस्‍थापक संपादक द्वारा याचित निजी क्षमाप्रार्थना और लेख के तत्‍काल अप्रकाशन के बावजूद मीडियाविजिल के ऊपर एक आधिकारिक माफ़ीनामे का सघन दबाव पिछले तीन दिनों से काम कर रहा था। लिहाजा यह वक्‍तव्‍य और स्‍पष्‍टीकरण प्रस्‍तुत है।

ज्ञात हो कि उक्‍त ‘विवादित’ आलेख के प्रकाशन के बाद कुछ पाठकों, मीडियाविजिल के नियमित स्‍तम्‍भकारों व परामर्शदाता मंडल के एक सदस्‍य विशेष द्वारा इसकी फेसबुक पर सख्‍त निंदा की गई थी और इसे हटाए जाने का आह्वान किया गया था। इसके तुरंत बाद इसे संस्‍थापक संपादक की ओर से अप्रकाशित कर दिया गया और इसकी सूचना उसी मंच पर दे दी गई थी जहां आपत्ति की गयी थी। वेबसाइट के संस्‍थापक ने तत्‍काल इस लेख की व्‍यक्तिगत जिम्‍मेदारी लेते हुए फेसबुक पर ही माफ़ी मांगी थी। इसके बाद भी मामला नहीं थमा। विभिन्‍न माध्‍यमों से आधिकारिक बयान की मांग की जाती रही।

इस वक्‍तव्‍य के साथ हम समझते हैं कुछ और बातें कही जानी ज़रूरी हैं ताकि हमारे पाठकों और सहयोगियों के मन में भविष्‍य में कोई भ्रम न रहे। यह बात मूलत: मीडियाविजिल के फॉर्म और कंटेंट के पस्‍पर संबंध और इससे उपजे प्रभावों व धारणाओं के बारे में है।

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कभी-कभार लोकवृत्‍त में ऐसे प्रसंग आते हैं जब फॉर्म और कंटेंट के बीच एक गहरी खाई पैदा हो जाती है। कंटेंट, जो कि पाठक का आईना होता है, वह फॉर्म यानी आंतरिक स्‍वरूप का अक्‍स दिखाता है। ज़रूरी नहीं कि जो और जैसा अक्‍स कंटेंट में दिखे, फॉर्म वास्‍तव में वैसा ही हो। मीडियाविजिल के साथ अपने परिचालन के इन साढ़े तीन वर्षों में यही हादसा घटा है। हमारे लिहाज से तो यह हादसा सुखद है, लेकिन इसके दुखद पहलू भी हैं, जैसा हमने रविवार को महसूस किया, जो दुखद से कहीं ज्‍यादा त्रासद था।

मीडियाविजिल अपने सुविचारित कंटेंट, पत्रकारीय मूल्‍यों, तथ्‍यपरकता, पक्षधरता और लोकतांत्रिकता के बल पर एक खास किस्‍म के पाठक वर्ग के बीच अपनी विश्‍वसनीयता कायम कर चुका है। कंटेंट से पैदा हुई इस विश्‍वसनीयता ने पाठकों के मानस में इस वेबसाइट का सांस्‍थानीकरण कर दिया है और परिणामस्‍वरूप उनकी अपेक्षाएं भी वैसी ही हो गई हैं जैसी किसी पत्रकारिता संस्‍थान से होनी चाहिए। जब हम ‘संस्‍थान’ कहते हैं तो दरअसल फॉर्म की बात कर रहे होते हैं। इस फॉर्म में अधिरचना, कार्यबल, संसाधन आदि चीज़ें शामिल होती हैं।

मीडियाविजिल से जुड़े पत्रकारों और इसके स्‍तम्‍भकारों के मन में भी इसके एक ‘संस्‍थान’ होने का भाव है गोकि सभी इसके ”सांस्‍थानिक अवयवों” से बराबर परिचित नहीं हैं। इसकी एक वजह यह है कि हम अपने लेखकों और सम्‍बद्ध पत्रकारों को न्‍यूनतम ही सही, यथासंभव पारिश्रमिक का भुगतान करते हैं और इसे एक मूल्‍य के बतौर लेकर चलते हैं। यह भुगतान भी विश्‍वसनीयता के आधार पर मिले चंदे से ही मुमकिन हो पाता है। जब चंदा नहीं मिलता, तब हम लेखकों से साफ़ कह देते हैं कि भुगतान नहीं कर पाएंगे। यह पारदर्शिता ही हमें आगे बढ़ाती है और लेखकों को जोड़े रखती है।

वरना वास्‍तविकता यह है कि मीडियाविजिल डॉट कॉम के पास न तो अपना कोई दफ्तर है, न कोई कर्मचारी, न वेबसाइट चलाने के न्‍यूनतम संसाधन। इसका परिचालन अनौपचारिक रूप से सामूहिक और सहकारी मॉडल पर होता है। एक अलाभकारी ट्रस्‍ट की छतरी तले होने के चलते यह स्‍वाभाविक भी है। आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि मीडियाविजिल पर खबरें पोस्‍ट करने का अधिकार आधा दर्जन ऐसे पत्रकारों के पास है जो यह काम स्‍वेच्‍छा से करते हैं। क्‍या कोई मानेगा कि मीडियाविजिल के पास अपने संसाधन के रूप में एक कंप्‍यूटर सिस्‍टम तक नहीं है?

मीडियाविजिल के फेसबुक पेज पर लाइव करने का अधिकार कोई डेढ़ दर्जन पत्रकारों के पास है। हमारी खबरों के स्रोत गांव-गिरांव, कस्‍बों और छोटे शहरों में रह रहे ऐसे पत्रकार व लेखक हैं जिनके पास लिखने-छपने को कोई मंच नहीं। कुल मिलाकर मीडियाविजिल में कहने को एक संस्‍थापक संपादक है और एक कार्यकारी संपादक, लेकिन निजी आजीविका और जीवन के दबावों में वे अपना आधा-आधा भी इस वेबसाइट को नहीं दे पाते। उलटे अपने घर खर्च से काट कर वे इस ‘संस्‍थान’ को किसी अदृश्‍य उम्‍मीद में चला रहे हैं। मीडियाविजिल जो है और जैसा है, सिर्फ और सिर्फ अपने समानधर्मा मित्रों के कारण ही है।

यह बताना इसलिए ज़रूरी लगा क्‍योंकि धारणाएं कभी-कभार घातक भी होती हैं। संवाद में अंतराल भ्रम और संदेह को पैदा करता है। ऐसी कई अफ़वाहें और बातें सुनने को नियमित मिलती हैं और हम सहज हंस देते हैं। लोकतांत्रिकता और मूल्‍यों की कीमत तो सभी को चुकानी पड़ती है। बीता रविवार बड़ी कीमत लेकर आया। अपने साढ़े तीन साल के परिचालन में मीडियाविजिल के ऊपर न तो कभी इतना दबाव बना और न ही मीडियाविजिल दबाव में आया। ऐसा पहली बार है कि हम समानधर्मा मित्रों से क्षमा प्रार्थना कर रहे हैं और वह भी इसलिए कि जो चूक हुई, उसकी बुनियाद में मीडियाविजिल का आंतरिक स्‍वरूप और कार्यप्रणाली की अतिलोकतांत्रिकता जिम्‍मेदार है।

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इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘विवादित’ लेख पत्रकारीय मानकों पर खरा नहीं उतरता था। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि उक्‍त लेख कायदे से छपने योग्‍य नहीं था। इसमें भी हमें कोई संदेह नहीं कि उसे भरसक अनाम नहीं छापा जाना चाहिए था। आपत्ति उठाने वाले मित्रों के साथ इन तमाम सहमतियों के बावजूद हमारी ओर से कुछ सवाल बच जाते हैं। ये सवाल केवल इसलिए, क्‍योंकि हम अब भी मानकर चल रहे हैं कि मीडियाविजिल और इसके पाठकों के बीच विश्‍वास का रिश्‍ता है। सवाल पूछने से विश्‍वास गहराते हैं, संदेह दूर होता है। जाहिर है, सवाल विशेष तौर पर उन्‍हीं से है जो मीडियाविजिल की आंतरिक कार्यप्रणाली यानी इससे जुड़े सभी व्‍यक्तियों को निजी रूप से जानते हैं (क्‍योंकि अधिकतर आपत्तियां भी मित्रों की ओर से ही आई हैं, अपहचाने पाठकों की ओर से नहीं)।

सवाल है कि क्‍या कोई ”आपत्तिजनक” सामग्री प्रकाशित होने पर दिखते ही यह नहीं पता लगाया जाना चाहिए था कि ऐसा कैसे हो गया? कहीं यह कोई चूक तो नहीं? हादसा तो नहीं? या फिर इसके पीछे कोई विशेष मंशा है? ऐसा पता लगाने के पचास तरीके नहीं, बस एक तरीका था कि संपादकद्वय से सीधा संपर्क कर के सवाल पूछा जाता और आधिकारिक जवाब आने तक भरोसे को बनाये रखा जाता।

सोशल मीडिया पर किसी प्रकाशित सामग्री से आपत्ति दर्ज कराना एक बात है लेकिन संपादकद्वय की मंशा पर सवाल उठाना बिलकुल दूसरी बात, खासकर तब जब आप उन्‍हें निजी तौर से जानते हों। यह कैसे मुमकिन है कि एक ओर आप ‘संस्‍थान’ की विश्‍वसनीयता का हवाला देकर अपनी आहत भावनाएं जाहिर करें और दूसरी ओर ‘संस्‍थान’ के संचालकों के प्रति ऐसे शब्‍दों का प्रयोग करें जिनमें विश्‍वास का छटांक भी नहीं झलकता?

संदर्भ जाति/जातिवाद का था, तो साफ़ पूछा जाना चाहिए कि जिनकी भावनाएं आहत हुई हैं उन्‍हें दिक्‍कत किससे है? प्रकाशित सामग्री से या प्रकाशक की जाति से (चूंकि कई फेसबुक पोस्‍टों में संपादकद्वय को टैग कर के बाकायदे जातिगत पूर्वाग्रह और कुंठा के आरोप लगाए गए थे)? क्‍यों न यह माना जाए कि पत्रकारीय प्रेक्षण की पद्धति को छोड़कर कुछ पत्रकारों ने समानधर्मा पत्रकारों को ही कठघरे में खड़ा करने की ऐसी जल्‍दबाज़ी दिखायी जिसमें उनके खुद के जातिगत पूर्वाग्रह सतह पर आ गए और कथित ‘विश्‍वास’ का धागा टूट के कगार पर पहुंच गया?

उक्‍त लेख क्‍यों और कैसे छप गया, इस हादसे के तकनीकी विवरणों को छोड़ भी दें, तो एक चीज़ होती है मित्रतापूर्ण अंतर्विरोध और दूसरी चीज़ होती है शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध। मित्रतापूर्ण अंतर्विरोधों से स्‍वस्‍थ असहमतियां उपजती हैं, जातिगत गालियां और अपशब्‍द नहीं। क्‍या रविवार को मीडियाविजिल के संपादकद्वय के खिलाफ कई फेसबुक पोस्‍टों में लिखे गए ‘अपशब्‍द’ मित्रतापूर्ण अंतर्विरोधों का परिचायक हैं?

माफ़ी मित्रों से ही मांगी जाती है, शत्रुओं से नहीं। इस बात को हम बहुत अच्‍छे से समझते हैं। लेकिन दूसरी बात भी हमें समझनी होगी, कि बंदूकें शत्रुओं पर तानी जाती है, मित्रों पर नहीं।

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दोस्‍तो, मीडियाविजिल कोई कॉरपोरेट मीडिया नहीं है। किसी कॉरपोरेट से अनुदानित भी नहीं। न ही कोई कंपनी है। न इसका कोई व्‍यावसायिक उद्देश्‍य है। न ही इसके संचालकों के कोई निजी स्‍वार्थ हैं। ये सब आप जानते हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है। इसके बावजूद एक ‘ग़लती’ के लिए मुकदमे की धमकी तक पहुंच जाना और ‘मुफ्त में कानूनी सलाह’ लेने-देने जैसी बातें करना  आखिर किसे कमज़ोर करता है और किसे मज़बूत, क्‍या इस पर एक बार भी नहीं सोचेंगे?

मुक्तिबोध को याद करें, जिन्‍होंने लिखा था:

दुख तुम्हें भी है / दुख मुझे भी
हम एक ढहे हुए मकान के नीचे दबे हैं
चीख़ निकालना भी मुश्किल है/असम्भव…।

दरअसल, हम सभी अपने-अपने सीमित साधनों और सामर्थ्‍य से इस मलबे के नीचे से निकलने का सम्मिलित प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास में एक-दूसरे की हम प्रेरणा बनें या संदिग्‍धता? संदिग्‍धताएं सम्मिलित प्रयासों को कमज़ोर करती हैं। आलोचनाएं और समालोचनाएं हमें परस्‍पर मज़बूत करती हैं। आलोचना में संदेह का पुट आ जाने पर वह निंदा बन जाती है। चौतरफा अन्‍यायों के दौर में संघर्ष कर रहे समान विचार वाले लोगों को यह बात क्‍या बार-बार याद दिलानी होगी?

विशुद्ध पत्रकारीय नजरिये से तो सवाल और भी हो सकते हैं, लेकिन यह वक्‍तव्‍य प्रश्‍नांकन के लिए नहीं, क्षमा प्रार्थना और आत्‍मनिरीक्षण के उद्देश्‍य से है। सार्वजनिक कार्य में कर्ता का औदात्‍य और विनम्रता भी एक मूल्‍य है वरना पिछले साल संपादकीय पन्‍ने पर डोनाल्‍ड ट्रम्‍प के ऊपर निजी आक्षेप लगाने वाले ‘भुतहा लेखक’ के लिए न्‍यूयॉर्क टाइम्‍स ने अब तक अमेरिकी सरकार से माफ़ी मांग ली होती। दूसरी ओर सार्वजनिक कार्य में लक्षित पाठकों और श्रोताओं का भी एक नैतिक धर्म होता है वरना वाटरगेट स्‍कैंडल पर चालीस साल अनाम रहे ”डीप थ्रोट” नामक पत्रकारीय सूत्र के लिए बॉब वुडवर्ड लिंच हो गए होते। कहने का आशय ये है कि जो बातें हम सत्‍ताओं को समझाते हैं वह खुद भी कभी अपनी क्षुद्रताओं और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर सोचने-समझने की कोशिश करें: डोन्‍ट शूट दि मैसेंजर! संदेशवाहक को गोली न मारें, आखेट न करें, थोड़ा सभ्‍य बनें।

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उक्‍त ‘विवादित’ लेख पर उपजे रविवारीय प्रकरण में हमारे लिए दो सबक हैं।

पहला, विशुद्ध संस्‍थागत है, कि लोकतांत्रिकता के साथ संस्‍थान नहीं चलते, उसके लिए पदानुक्रम और कार्यप्रणाली की केंद्रीयता आवश्‍यक है ताकि जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके। हम मीडियाविजिल के भीतर इस अतिरिक्‍त लोकतंत्र का विकर्तन करने का बेशक प्रयास करेंगे ताकि अगली बार कुछ यूं ही फिसल न जाए।

दूसरा सबक सामूहिक है, सबके काम का है। चूंकि मीडियाविजिल सामाजिक न्‍याय के विचार को अपनी खबरों और आलेखों में नीतिगत स्‍तर पर प्रमुखता देता है और जोर-जबर वाले हर फासिस्‍ट विचार के खिलाफ़ है, लिहाजा सामाजिक न्‍याय सहित किसी भी राजनीतिक विचार को शुद्धतावादी आग्रह की उस हद न ले जाया जाए जहां पहुंचकर वह फासिस्‍ट होने का अहसास देने लगे।

इस क्षमाप्रार्थना वक्‍तव्‍य की विडंबना देखिए कि इसका अंत अपनी राजनीतिक विचारधारा में लोकतंत्र को बचाने की गुज़ारिश और अपने पेशागत व्‍यवहार में लोकतंत्र को कतरने की स्‍वीकारोक्ति पर हो रहा है।

हम सभी आहत भावनाओं से एक बार फिर बेशर्त माफी मांग रहे हैं। यह जानते हुए कि ऐसा करते हुए हम मीडियाविजिल को आपके हाथों में हमेशा के लिए छोड़ रहे हैं, लेकिन पहले से कम, बहुत कम। यह अच्‍छा है या बुरा, यह भी आप ही तय करें। मुक्तिबोध से ही उधार लेते हुए:

… मेरे साथ/खण्डहर में दबी हुई अन्य धुकधुकियों/सोचो तो
कि स्पन्द अब…/पीड़ा-भरा उत्तरदायित्व-भार हो चला
कोशिश करो/कोशिश करो जीने की
ज़मीन में गड़कर भी…!