हाल ही में जातिवाद के चलते बीबीसी से एक दलित पत्रकार मीना कोतवाल को निकाल देने की ख़बर आई थी, जिसके बाद वरिष्ठ पत्रकार ने पिछले बुधवार जितेंद्र कुमार ने अपने कॉलम में बीबीसी के भीतर जातिवाद का मुद्दा उठाया था. अब इसके बाद एक और वरिष्ठ पत्रकार और जन मीडिया के संपादक अनिल चमड़िया ने जाति के मसले पर बीबीसी को एक एक लम्बा औपचारिक पत्र लिखा है.
अनिल चमड़िया ने अपने पत्र में लिखा है कि उन्होंने अपने लम्बे पत्रकारिता अनुभव के आधार पर महसूस किया है कि “मैं 35 से अधिक वर्षों से भारत में पत्रकारिता और उसके अकादमिक क्षेत्र में सक्रिय हूं. मैंने अपने लंबे पत्रकारीय अनुभवों से कई तरह के शब्द सीखे हैं. लेकिन जो शब्द मेरे दिमाग को सबसे ज्यादा कचोटता है, वह है जाति. मैं अश्वेतों के साथ भेदभाव और ब्रिटेन में इस बुराई के खिलाफ आंदोलनों से अवगत हूं. दुनिया भर में, लिंग, रंग, नस्ल, भाषा और धर्म आदि के आधार पर भेदभाव किया गया है.
भेदभाव का मतलब है कि जो कोई भी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर ऊपर है, वह एक बड़ी आबादी पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है, जिसे मूल रूप से उन्हें कम आंका जाता है,नीचा समझा जाता है.
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान राष्ट्रीयता के आधार पर भेदभाव किया गया था. उस समय, भारतीय ब्रिटिश सरकार के समक्ष निवेदन करते थे कि उन्हें भी सरकारी नौकरियों में समायोजित किया जाना चाहिए.भारतीयों को आत्मरक्षा के अधिकार के लिए भी अनुरोध अनुरोध करना पड़ता था.”
अनिल चमड़िया ने अपने पत्र में आगे लिखा है कि भारत में भेदभाव का आधार वैश्विक स्तर से काफी अलग है और इस आधार को जाति के रूप में जाना जाता है. इस देश के संविधान के अनुसार, आप अपना धर्म बदल सकते हैं और विज्ञान ने हमें लिंग बदलने में सक्षम बना दिया है. लेकिन भारत में किसी भी परिस्थिति में किसी व्यक्ति की जाति नहीं बदली जा सकती. हर जगह जाति की मुहर दिखाई देती है. यहां तक कि रंगों की भी अपनी जातियाँ हैं! यहाँ के श्मशान जातियों के आधार पर विभाजित हैं. ज्यादातर शादियां जाति के भीतर होती हैं. नामों की एक जाति आधारित अलगाव है.
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अनिल चमड़िया ने बीबीसी से सवाल किया है कि बीबीसी के भारत कार्यालय में लगभग 90 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? बीबीसी में कुछ विशेष जाति समूहों से संबंधित लोगों को क्यों पसंद किया जाता है? क्या बीबीसी के मैनेजमेंट में बैठे लोग क्या सिर्फ एक निश्चित प्रकार की सोच, ढंग,स्वाभाव, लिखने और पढ़ने वालों को पसंद करते हैं? क्या यह एक तरह का जातिवाद नहीं है? जिन्हें केवल इसलिए खारिज कर दिया गया है क्योंकि उन्हें ’अच्छी भाषा’ और पत्रकारिता की कोई समझ नहीं है? आपकी जो भी योग्यता हैं, वह पैकेजिंग के अलावा और कुछ नहीं है. और भारत में, पात्रता की पैकेजिंग की कसौटी जाति है.
अनिल चमड़िया ने आगे लिखा है कि जब उन्होंने भारत के मीडिया संगठनों के संपादकीय विभागों में सबसे ऊपर बैठे लोगों की जातिगत पृष्ठभूमि को समझने के लिए 2006 में एक अध्ययन किया तो पाया कि 90 प्रतिशत आबादी वाले लोगों को इसमें कोई जगह नहीं मिलती है.भारत में बीबीसी का कार्यालय उन संगठनों में से एक था. क्या यह एक मात्र संयोग है कि जिन लोगों को इन कार्यालयों में भर्ती किया गया है वे एक निश्चित जाति समूह के हैं? इसका मतलब है कि यह एक ऐसी दृष्टि है कि जो एक निश्चित जाति समूह को ही पसंद करती है!
अब आप खुद सोच सकते हैं कि सार्वजनिक स्थान पर जाति का प्रभाव कैसे काम करता है? किसी जाति को छूना अपवित्र हो जाना है, यहां तक कि उसकी छाया से भी नफरत करते हैं.
अनिल चमड़िया ने अपने इस पत्र में और बहुत बाते लिखी हैं. कई मुद्दे उठाते हुए पत्र के अंत में बीबीसी से निवेदन किया है कि वह जातिवादी व्यवस्था को रोकने के लिए तत्काल सकारात्मक कदम उठाये. उन्होंने सलाह दी है कि इसके लिए वह (बीबीसी) समाजशास्त्रियों की मदद ले सकते हैं.
उन्होंने लिखा है-वास्तव में, आपको भारतीय समाज का दर्पण बनना चाहिए. उन लोगों में अपार प्रतिभा है, जिन्हें पिछड़ा, दलित और आदिवासी कहा जाता है.
मुझे आशा है कि आप मेरी किसी भी बात का बुरा नहीं मानेंगे. मैं आपकी किसी भी भावना को गलती से आहत करने के लिए माफी चाहता हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि आप मीना के इस पूरे प्रकरण को दर्पण पर जमी धूल को साफ करने के अवसर के रूप में देखेंगे.
-अनिल चमड़िया .
अनिल चमड़िया वरिष्ठ पत्रकार और जन मीडिया के संपादक हैं