मनीष और अमिता: एक ‘नक्सली दम्पति’ की कहानी

सीमा आज़ाद सीमा आज़ाद
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बीती 8 जुलाई को उत्तर प्रदेश के आतंकवाद निरोधी दस्‍ते ने मनीष और अमिता के घर पर सुबह छह बजे धावा बोल कर उन्‍हें गिरफ्तार किया। पुलिस की एफआइआर के अनुसार ‘‘अधिसूचना प्राप्त हुई है कि कुछ संदिग्ध नक्सली घूम-फिर कर आम जनमानस को मीटिंग कर,  आपराधिक षडयन्त्र भड़का कर सशस्त्र विद्रोह करके सत्ता परिवर्तन करने की योजना बना रहे हैं।‘’

मनीष और अमिता के अलावा एफआइआर में छह नाम और हैं, जिनमें से चार लोग कृपाशंकर, बिंदा, बृजेश और प्रभा- जो कि विभिन्न जनसंगठनों से जुड़े हैं- को एटीएस ने 8 जुलाई को ही देवरिया स्थित उनके घरों पर भोर में चार बजे धावा बोल गिरफ्तार किया गया था, लेकिन लोगों के हल्ला मचाने पर देर रात छोड़ दिया। इन्हें पूछताछ के नाम पर बार-बार एटीएस मुख्यालय बुलाकर परेशान किया जा रहा है और कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है।

किसी लोकतान्त्रिक समाज में वैसे तो सत्ता परिवर्तन के मकसद से सिर्फ मीटिंग करना अपराध नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन अगर ऐसा ही है तो पहला अपराध प्रत्यक्ष रूप से खुद सरकार की ओर से हो रहा है, जो अपने सशस्त्र बलों को आदिवासियों, विस्थापितों, आंदोलनकारियों के दमन के लिए खुलेआम उत्प्रेरित ही नहीं कर रही, बल्कि इस दमन के लिए उन्हें पुरस्कृत भी कर रही है। इस पर हम अक्सर बात करते भी रहते हैं और प्रतिरोध भी दर्ज कराते हैं, लेकिन इस समय यहां मैं सिर्फ यह बताना चाहती हूं कि गिरफ्तार किये गये ‘संदिग्ध नक्सली’ मनीष और अमिता हैं कौन?

छियालीस वर्षीय मनीष मेरे बड़े भाई हैं। इलाहाबाद में मेरी पहचान पहले मनीष की बहन के रूप में ही थी, स्वतंत्र पहचान बाद में बनी। परिस्थितियां ऐसी बदली हैं कि मनीष को इसी शहर में अब लोग मेरे भाई के नाम से जान रहे हैं। मनीष इस बात से खुश ही होंगे। मनीष उन लोगों में हैं, जो कभी बंधे-बंधाये ढर्रे या लीक पर नहीं चले। युवा होने के साथ ही उन्होंने अपने इस व्यक्तित्व का परिचय घर में दे दिया, जब इण्टर की परीक्षा यूपी बोर्ड से 67 प्रतिशत से विज्ञान धारा से पास करने के बावजूद उन्होंने कह दिया कि वे घर के बंधे-बंधाये ढर्रे पर इन्जीनियरिंग की तैयारी करने के बजाय बीए करेंगे। घर खानदान के सभी लोगों ने समझाया, लेकिन उन्होंने इलाहाबाद युनिवर्सिटी में हिन्दी साहित्य, राजनीति विज्ञान, इतिहास विषय के साथ बीए में दाखिला ले लिया। इसके बाद घर-खानदान की ओर से सुझाव दिये जाने लगे कि ‘बीए कर ही रहे हैं तो उन्हें इलाहाबाद की परम्परा के हिसाब से सिविल सर्विसेज की तैयारी करनी चाहिए।‘ मनीष की रूचियों की विविधता, जानकारी और पढ़ाई की लगन देखकर लोगों का मानना था कि उनका चयन एक बार में ही हो जाएगा, लेकिन उन्होंने लोगों की यह सलाह भी नहीं मानी और बीए करते हुए ही सामाजिक कामों से जुड़ गये।

इलाहाबाद युनिवर्सिटी में प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा उस वक्त आए ही थे। उनसे और देवमणि भारती से प्रभावित होकर वे इलाहाबाद की झुग्गी-बस्तियों में बच्चों को पढ़ाने जाने लगे। इस दौरान उनकी अंशु मालवीय से भी अच्छी दोस्ती बनी। लाल बहादुर वर्मा जी ने अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग में इसका जिक्र किया है, उन्होंने मनीष का नाम मनु लिखा है। इस काम के दौरान उनके दोस्तों में खूब इजाफा हुआ, जिसमें अमिता भी थीं, जो वर्मा के जी अण्डर में ‘मौखिक इतिहास’ जैसे नायाब विषय में रिसर्च कर रहीं थीं और उनकी प्रिय शिष्य थीं।

मनीष दोस्तों से घिरे रहते थे, लेकिन वे उन सामाजिक कर्मियों में नहीं थे, जो ऐसे कामों को करते हुए अपने घर से दूर हो जाया करते हैं। मनीष ने अपने भाई-बहनों के साथ चाचा, बुआ, मौसी के लड़कों को भी अपने साथ लिया। उस वक्त मेरे घर खानदान में इस बात को लेकर काफी चर्चा हुआ करती थी कि मनीष के प्रभाव में सभी युवाओं को ये हो क्या गया है?  मेरे कई ममेरे, फुफेरे, मौसेरे, चचेरे भाई बस्ती में गरीब बच्चों को पढ़ाने जाने लगे थे। अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए वे देश-दुनिया का साहित्य और इतिहास एक साथ पढ़ते थे, उस पर बहस करते थे। आज ये सारे लोग भले ही परिवार-रोजगार में लग गए हैं, लेकिन ये सभी आम समाज के लोगों के मुकाबले बेहतर इंसान के तौर पर जीवन जी रहे हैं।

हमारे सामंती मूल्यों वाले घर में जनवाद का बीज मनीष ने ही डाला और पूरा घर बदलने लगा। मेरी बड़ी बहन मनीष और अमिता के प्रभाव से ही शादी के 14 साल बाद अपने नकारा और शराबी पति को छोड़कर आने की हिम्मत कर सकी। अमिता उस समय ‘उम्मीद महिला मंच’ नाम के महिला संगठन का नेतृत्व किया करती थीं, जो कि शहर में काफी चर्चित और सक्रिय था। मेरी दीदी दो बच्चों के साथ ससुराल छोड़कर अपने मायके आने के बजाय अमिता के घर पहुंची थी, यह स्पष्ट करने के लिए कि उन्होंने घर के भरोसे पर नहीं बल्कि संगठन के भरोसे पर नया जीवन चुना है। इन सबके प्रभाव से मैं खुद भी बदल रही थी। हर लड़ाई में मनीष मेरे साथ थे, बल्कि अब वे मेरे भाई से दोस्त में बदलने लगे थे।

मनीष के वर्मा जी के प्रभाव में आने के पहले ही 1990 में मेरे बड़े भाई की शादी परमानन्द श्रीवास्तव की बड़ी बेटी से हुई, तो उनके प्रभाव में सबसे पहले मनीष ही आए। वे उस वक्त इण्टर पास कर बीए में दाखिला ले चुके थे। भाभी से भी उसकी खूब पटती थी क्योंकि वे ‘मुक्तिबोध की कविताओं में मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र’ पर रिसर्च कर रहीं थीं। दोनों खूब बातें करते थे। अब मुझे ये नहीं याद कि कौन बताने वाला था और कौन सुनने वाला, मेरे कान में तो ‘मार्क्सवाद’ और ‘मुक्तिबोध’ शब्द ही लगातार पड़ते रहते थे। मनीष और बड़ी भाभी के प्रभाव में मैंने भी इण्टर में अपने जीवन का पहला साहित्यिक उपन्यास ‘गोदान’ न सिर्फ पढ़ा, बल्कि उस पर अपना मत लिखकर चुपके से मनीष को दिया था। मनीष के चेहरे पर आया आश्चर्य मुझे आज भी याद है। इसके बाद उन्होंने मुझे किताबें उपहार में देना शुरू किया, जो आज तक जारी है।  मनीष जहां भी जाते हैं, सबके लिए उनके झोले में कुछ न कुछ पढ़ने या देखने के लिए जरूर होता है, एक साल के बच्चे से लेकर बूढ़े तक। किसी को भी कुछ समझना होता है तो वह मनीष को खोजता है। मनीष ने ही हम सबके सामने विश्व साहित्य से लेकर सिनेमा, कला, संस्कृति, विज्ञान, खगोल और दर्शन का दरवाजा खोला।

इलाहाबाद युनिवर्सिटी से बीए करने के बाद वे घर में नौकरी के लिए पड़ने वाले दबाव से मुक्त होने के लिए गोरखपुर चले गए। वहां गोरखपुर विश्‍वविद्यालय में उन्होंने एमए में दाखिला लिया और ‘इंकलाबी छात्र सभा’ नाम के छात्र संगठन का गठन किया। वे उसके पहले अध्यक्ष थे। संगठन का विस्तार गोरखपुर से इलाहाबाद तक हुआ। विश्वविजय इसी संगठन से निकले हैं। यह छात्र संगठन आगे चलकर ‘इंकलाबी छात्र मोर्चा’ हो गया।

इसी बीच उन्होंने एक बार फिर सामंती परम्परा को तोड़ते हुए उम्र और कक्षा में खुद से बड़ी अमिता से शादी कर ली। अमिता का घर भी इलाहाबाद में ही था। वे अपने पापा की बजाज स्कूटर या अपनी हीरोपुक लेकर जब हंसती-खिलखिलाती हम सबको गले लगाती हमारे घर आतीं, तो हमारे घर के साथ पड़ोस के लिए भी आकर्षण का केन्द्र होती थीं। उस वक्त वे महिला संगठन के काम के साथ अपने रिसर्च के सिलसिले में घूम-घूम कर स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े लोगों का साक्षात्कार किया करती थीं। मैं भी कभी-कभी उनके साथ जाती थी। वे बहुत ही सुरीला गाती हैं और इस गुण के कारण भी सबके बीच काफी लोकप्रिय हैं। फैज की नज़्म ‘मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग’ और फरीदा खानम की ‘आज जाने की ज़िद न करो’ मैंने सबसे पहले उनसे सुना था। उनका घर मेरे जैसी दब्बू लड़कियों के लिए आजादी को सेलिब्रेट करने और खुद अपने गुण को पहचानने का ठिकाना हुआ करता था। उनके कमरे में बहुत सारी रोचक और खूबसूरत चीजों के साथ मेरी भी एक अनगढ़ सी कविता लगी हुई थी।

मनीष-अमिता की शादी के समय और उसके बाद मेरा घर पूरे खानदान के लिए कौतूहल का विषय हो गया क्योंकि मनीष के बाद मैंने और फिर मेरे छोटे भाई ने भी जाति, दहेज, स्टेटस, कुण्डली, पुरातन रीति-रिवाज और महंगे कपड़े आदि की परम्परा को तोड़कर शादी की, वो भी बेहद सादे समारोह में और काफी कम पैसे में। और अब सामाजिक कामों के कारण पहले मेरी विश्वविजय की और अब मनीष अमिता की यह गिरफ्तारी लोगों के लिए कौतूहल का विषय है। ज्यादातर लोगों ने हालांकि इसे अच्छे से स्वीकार किया है। मेरे मां-पिता के लिए निश्चित ही यह असहज स्थिति होती होगी, लेकिन मनीष ने ही अम्मा से कहा है, ‘‘अच्छे काम की शुरूआत कुछ ही लोग करते हैं, शुरू में बुराई भी करते हैं, लेकिन इतिहास हमें सही साबित करेगा।‘’

मनीष और अमिता ने इलाहाबाद से गोरखपुर और फिर देहरादून, रायपुर होते हुए भोपाल तक का सफर तय किया। देहरादून में मनीष ने ‘प्रोग्रेसिव स्टूडेंट फ्रंट’ को समृद्ध करने का काम किया और अमिता उत्तराखण्ड महिला मंच के साथ जुड़ी रहीं। रायपुर में वे सामाजिक कामों के साथ एक स्कूल में अध्यापिका भी रहीं। हर जगह दोनों आन्दोलनों के साथ रहे। पिछले कई वर्षों से अमिता की तबीयत खराब होने के बाद से दोनों भोपाल में रह रहे थे और मुख्यतः अनुवाद का काम करते रहे। उन्हें ब्लड शुगर और हाइ ब्लड प्रेशर है। अमिता एक स्कूल में पढ़ा भी रही थीं।

शिरीन उनका पेन नाम है। इसी नाम से उनकी कविताएं, कहानियां विभिन्न साहित्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। उन्होंने बोलीविया के खदान में काम करने वाली मजदूर डोमितिला की खदान का जीवन बयान करने वाली किताब लेट मी स्‍पीक का हिंदी अनुवाद किया है। दोनों ने मिलकर हान सुइन की ऐतिहासिक किताब मॉर्निंग डेलूज  का हिंदी अनुवाद किया है जो कि शीघ्र प्रकाश्य है। मार्गरेट रेंडाल की पुस्तक सैंदीनोज़ डॉटर्स का हिंदी अनुवाद किया है, जिसे प्रकाशक का इंतजार है।

मनीष खासतौर पर विभिन्न जन संगठनों, आन्दोलनकारियों के लिए अच्छे साहित्य हिन्दी में उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन सत्ता इसे अपराध मानती है क्योंकि अपनी भाषा में जनवादी साहित्य उपलब्ध कराने का मतलब है उसकी चेतना का विकास करना और दिमाग को जनवादी बनाना। ऐसे ‘अपराधी’ से मैं केवल बहन के तौर पर नहीं, बल्कि एक नागरिक के तौर पर भी प्यार करती हूं।