समता को लेकर एक सवाल- कि अगर सभी बराबर हो गए तो राजा कौन बनेगा, राज कौन करेगा- जो समाज में जनमानस की प्रचलित समझ में बहुत गहराई तक पैठ बना चुका है, ‘आर्टिकल 15’ उसी सवाल से दो चार होने की एक ईमानदार कोशिश है।
प्रसिद्ध इतिहासकार और विद्वान प्रो. लाल बहादुर वर्मा अपने व्याख्यानों में अकसर डिकेन्सकी प्रसिद्ध उक्ति को उद्धृत करते हैं: “Those were the worst of the times, Those were the best of the times”. यह उक्ति जैसे हमारे ही समय के लिए कही गई लगती है। ऐसे समय में जब हमारे सामाजिक ताने-बाने, साझी विरासत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अभूतपूर्व चौतरफ़ा हमलों का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में अनुभव सिन्हा जैसे फ़िल्मकार लगातार अच्छा कर रहे हैं।
अनुभव सिन्हा की ख़ासियत यह है कि वे उन फ़िल्मकारों में शामिल हो गए हैं जो रिस्क लेने में ज़रा भी नहीं घबराते और यही कारण है कि वे लगातार चुनौतीपूर्ण और समाज को असहज करने वाले विषयों पर फ़िल्म बना रहे हैं। इसी दौर में जब एक फ़िल्म में प्रेम के आवरण में यौनिकता और सामंती विचारों को महिमामंडित किया जा रहा है, यह वाक़ई साहस की बात है कि अनुभव सिन्हा मल्टीप्लेक्स के खाये-अघाये दर्शक से ऐसे विषयों और घटनाओं पर संवाद कर रहे हैं जो न केवल उन्हें असहज करते हैं बल्कि इस दौर के तथाकथित मीडिया में जगह भी नहीं बना पाते। इस बार अनुभव सिन्हा हाज़िर हैं अपनी नई फ़िल्म ‘आर्टिकल 15’ को लेकर।
यह फ़िल्म कहने को तो बदायूँ की उस निर्मम घटना पर केंद्रित है जिसमें दो दलित बहनों को सामूहिक बलात्कार के बाद पेड़ से फांसी के फंदे से लटका दिया गया था, लेकिन दरअसल यह फ़िल्म इस घटना के इर्द-गिर्द रहते हुए जाति के प्रश्न पर और उससे भी बढ़कर समता के आदर्श पर, जिसे हमारे संविधान में मूलाधिकार के रूप में शामिल किया गया है, बात करती है। चूंकि समता एक ऐसा आदर्श है जिसे हमारे देश में संविधान लागू होने के सत्तर वर्षों बाद भी हासिल किया जाना एक चुनौती है, तो एक फ़िल्म से यह आशा करना कि वह इस महान आदर्श को उसके सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत कर पाएगी बेमानी होगा।
ख़ासकर हमारे देश में, जहां जाति जैसी बर्बर व्यवस्था हज़ारों वर्षों से समाज के एक छोटे से तबके द्वारा समाज के बहुसंख्यक जन का शोषण करने की छूट प्रदान करती हो, वहां समता का आदर्श मात्र संविधान में कुछ उपबन्ध करने से हासिल हो जाएगा ऐसा मानना अनुचित होगा। हां, आरक्षण की व्यवस्था ने समता को हासिल करने में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है और समता की दिशा में लिया गया यह एक बड़ा क़दम माना जा सकता है।
इस विषय की समस्या यह भी है कि इसके साथ जाति का विमर्श और उससे भी बढ़कर आरक्षण की बहस भी शामिल हो जाती है और मेरिट समर्थक अपने खोखले तर्कों के साथ इस विमर्श में कूद पड़ते हैं और विमर्श को विवाद तक ले जाते हैं। इस फ़िल्म के साथ भी यही हुआ है। अनुभव सिन्हा एक साथ कई विषयों पर बात करने की कोशिश करते हैं जिसके केंद्र में वह आपराधिक घटना है जिसकी जांच फ़िल्म का नायक कर रहा है। समस्या यह भी है कि अनुभव सिन्हा अपनी पिछली फ़िल्म ‘मुल्क’ के साथ स्वयं अपने लिए इतना ऊंचा बेन्चमार्क बना चुके हैं कि जब दर्शक इस फ़िल्म को मुल्क की कसौटी पर कसता है तो यह उसके आसपास भी नज़र नहीं आती।
ख़ैर, फ़िल्म पर आते हैं। फ़िल्म की शुरुआत में ही दर्शकों को बता दिया जाता है कि फ़िल्म का नायक अपर पुलिस अधीक्षक अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) अपनी पहली ही पोस्टिंग पर लालगांव आता है और उसका सामना होता है समाज की उन सच्चाइयों से जिनसे दिल्ली में हुई उसकी परवरिश के दौरान उसका सामना नहीं हुआ था। यह मानना हालांकि मुश्किल है कि जाति जैसे कड़वे यथार्थ से ASP के पद तक पहुंच गए किसी युवक का सामना नहीं हुआ होगा। उसकी एक महिला मित्र है जो दिल्ली में किसी बड़े अख़बार में पत्रकार है और जो सामाजिक विषयों और लैंगिक समानता जैसे विषयों पर लिखती रहती है। अपनी पोस्टिंग के शुरुआती दिनों में ही उसे उस भयानक घटना की जांच में जुट जाना पड़ता है जिसमें दलित समुदाय की दो लड़कियों को बलात्कार के बाद फांसी पर लटका दिया जाता है लेकिन स्वयं उसके विभाग के सहकर्मी यह साबित करने में लगे हैं कि यह ऑनर किलिंग का मामला है क्योंकि दोनों लड़कियां समलैंगिक थीं।
नायक, जो सेवा में आया ही है और अपने विभाग के काइयांपन से अवगत नहीं है, शुरू में खुद भी मान लेता है कि मामला जैसा उसके विभाग द्वारा बताया जा रहा है वैसा ही है. लेकिन, धीरे-धीरे उसे यह अहसास होता है कि उसका विभाग इस मामले को ग़लत दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहा है और चूंकि मामला दलित समुदाय से जुड़ा हुआ है तो विभाग स्वयं यह कोशिश कर रहा है कि झूठे गवाहों, साक्ष्यों और बयानों में उलझा कर मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाय और केस बंद कर दिया जाय।
ख़ैर, वह यह ठान लेता है कि वह मामले की तह तक जाएगा और उस तीसरी लड़की, जो घटना वाले दिन से ही लापता है, को ढूंढ निकालेगा। उसके इस लक्ष्य में उसके समक्ष क्या-क्या बाधाएं आती हैं, यहाँ तक कि CBI भी यही चाहती है कि वही रिपोर्ट प्रस्तुत करे जो उसके विभाग ने बनाई है, और वह किस तरह अपने लक्ष्य तक पहुंचता है, यही फ़िल्म की कहानी है.
फ़िल्म का सशक्त भाग इसके कुछ बेहद चुटीले संवाद और मार्मिक दृश्य हैं जो सीधे दर्शक, ख़ासकर मल्टीप्लेक्स के दर्शक, के मस्तिष्क पर चोट करते हैं। एक दृश्य में एक व्यक्ति गटर में पूरा डूबकर बाल्टी के सहारे गटर साफ़ कर रहा है। यह बेहद मार्मिक दृश्य है जो सहज ही दर्शकों का ध्यान गटर साफ़ करने के दौरान होने वाली मौतों की ओर ले जाता है- ख़ासकर ऐसे समय में जब कुछ समय पहले यह ख़बर आई थी कि गटर की सफ़ाई करते हुए जितने लोगों की मृत्यु हुई उतने सीमा पर मुठभेड़ में सैनिक भी शहीद नहीं हुए।
एक अन्य दृश्य में जांच के दौरान जाति से ब्राह्मण ASP साहब स्वयं गंदे तालाब में उतरते हैं और कहते हैं कि ‘कभी ना कभी तो ब्राह्मणों को भी उतरना होगा’, दर्शकों के मस्तिष्क पर सीधे असर करता है.
फ़िल्म का कमज़ोर पक्ष यह है कि फ़िल्म एक साथ कई विषयों पर बात करने की कोशिश करती है- जैसे दलितों के मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध और 21वीं सदी के भारत में भी जाति व्यवस्था का क्रूर यथार्थ जो दिनोंदिन और क्रूर होता जा रहा है, दलितों में उभरता हुआ नवीन नेतृत्व जिसका नेतृत्व चंद्रशेखर रावण जैसे नेता कर रहे हैं, सरकारी विभागों में भी सहकर्मियों के बीच जाति के आधार पर होने वाला भेदभाव और इस देश की जनता का रोज़ होने वाला आर्थिक शोषण (फ़िल्म में प्रसंग है कि जिन लड़कियों की निर्मम हत्या और सामूहिक बलात्कार हुआ उन्होंने दैनिक मज़दूरी में मात्र तीन रुपए की वृद्धि की मांग की थी और मांग पूरी न होने पर काम छोड़ दिया था। यही बात उच्च जाति के रसूखदार ठेकेदार को नागवार गुज़री और उसने न केवल उनका सामूहिक बलात्कार किया और करवाया बल्कि उनकी लाशों को सरेआम पेड़ से लटकाकर उनकी पूरी जाति को यह संदेश भी दिया कि विद्रोह का यही परिणाम होगा) और समाज में तेज़ी से उभरता हुआ हिंदुत्व, इत्यादि।
फ़िल्म का एक कमज़ोर पक्ष यह भी है कि यह फ़िल्म इस तथ्य पर कोई बात नहीं करती कि समता की राह में सबसे बड़ी बाधा पूंजी और पूंजीवादी सत्ता है।
सभी कलाकारों ने अदाकारी में अपना सर्वस्व देने का प्रयास किया है लेकिन मुल्क की कसौटी पर कसने पर अदाकारी भी कमज़ोर ही लगती है। आयुष्मान खुराना परिपक्व अदाकार हैं लेकिन इस भूमिका में वह छाप नहीं छोड़ सके जो इसके पहले ‘अंधाधुन’, ‘दम लगा के हैशॉ’, ‘शुभ मंगल सावधान’ और ‘बधाई हो’ में छोड़ी थी। मोहम्मद जीशान अयूब इस फ़िल्म में भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं। सयानी गुप्ता, कुमुद मिश्रा, मनोज पाहवा अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करते हैं।
फ़िल्म को अवश्य देखा जाना चाहिए। ऐसे विषय समाज में इस फ़िल्म के माध्यम से कम से कम चर्चा में केंद्र में तो आएंगे।