आज के अखबारों में चर्चा करने लायक कई खबरें हैं और इन खबरों के कारण थोड़ी चर्चा बदली राजनीति, बदली पत्रकारिता और खबरों के चयन की बदली नीति पर करनी चाहिए। आज के अखबार इसके लिए आदर्श हैं। सबसे पहले तो झारखंड में एक युवक को बांधकर पीटे जाने और अंततः उसके मर जाने की खबर की चर्चा जरूरी है। कल मैंने लिखा था कि सोशल मीडिया पर खबर होने के बाद भी टेलीग्राफ और नवभारत टाइम्स को छोड़कर, मैं जो अखबार देखता हूं उनमें यह खबर पहले पन्ने पर नहीं थी। इसके बावजूद कल इस खबर पर हंगामा रहा और आज यह कई अखबारों में पहले पन्ने पर है। मैं नहीं कह सकता कि गलत है, नहीं होना चाहिए था पर कायदे से यह खबर कल ही नहीं, 19 या 20 जून को ही पहले पन्ने पर छपनी चाहिए थी। युवक को खंबे में बांधकर रात भर पीटा जाना खबर नहीं है तो उसे जेल भेज दिया जाना तो खबर थी ही। पर खबर तब बड़ी हुई जब वह मर गया, उसपर संसद में चर्चा हुई। कार्रवाई के नाम पर कुछ खानापूर्ति भी हो गई है। तो यह खबर बनी है। कई अखबारों में प्रमुखता इसी खानापूर्ति को दी गई है। उसमें मूल घटना का उल्लेख मजबूरी में है या नहीं भी है। आज मेरा विषय वह खबर नहीं है।
मैं यह बताना चाहता हूं कि 32 साल पहले, 1987 में जब मैंने जनसत्ता ज्वायन किया था तब खोजी खबरें छपा करती थीं। 91-92-95 की बात होगी, यह चर्चा चली कि कुछ खबरों पर तो हंगामा मच जाता है और कुछ अच्छी महत्वपूर्ण खबरें, यूं ही रह जाती है। बाद में इस बारे में पता चला कि दरअसल जो खबरें संसद का सत्र चलने के समय छपती हैं उनपर संसद में चर्चा हो गई तो खबर चर्चा में आ जाती है। पहले, खबर में यह बताने का रिवाज था कि अमुख खबर फलाने अखबार में छपी थी जिसपर संसद में चर्चा हुई और यह बताया जाता था संसद की चर्चा क्या रही। आज तबरेज की खबर देखकर लग रहा है कि समय के चक्र में मामला पूरा घूम चुका है। अब संसद में चर्चा होती है तब अखबारों में खबर छपती है और यह बताने की जरूरत नहीं होती है कि जिस खबर पर चर्चा हुई वह कहां छपी है। खबर अखबारों में नहीं छपने के बावजूद सबको मालूम होती है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब संचारक्रांति और टेलीविजन के उदय से संभव हुआ है पर इसमें अखबारों की नालायकी कम नहीं है।
अगर टेलीविजन की खबरों के बाद भी पढ़ने लायक संसद की रिपोर्टिंग का उदाहरण देखना हो तो द टेलीग्राफ को देखा जा सकता है। आज के अखबार का पहला पन्ना देखिए – शीर्षक है, भारत में रहने का अधिकार किसे है? नीचे बताया गया है कि, उड़ीशा के मोदी ने पूछा …. निर्मम अधीर ने जवाब दिया (निर्मम को आप नहीं बख्शने वाले भी पढ़ सकते हैं)। क्या टेलीविजन या आज के दूसरे अखबारों की खबरों से आपको ऐसी सूचना मिली? क्या आपको यह नहीं जानना चाहिए कि पहली बार सांसद बने ‘उड़ीसा के मोदी’ ने संसद में क्या सवाल उठाए। मेरे ख्याल से यह सूचना क्रांति के बाद भी बाजार में टिके रहने की रिपोर्टिंग का नमूना है। वैसे कहा तो यही जाता है कि टेलीविजन के बाद अखबारों के लिए संभावनाएं कहां है और इसीलिए अखबार कूड़ा होते जा रहे हैं। पहले कहा जाता था कि अखबारों में काम करने के लिए खबरों को पहचाने वाली नाक (नोज फॉर द न्यूज) होनी चाहिए। अब अखबार संकट तो बताते हैं पर वह सिर्फ खबर देने की नालायकी ही है। संकट से जूझने की कोई कोशिश नहीं होती। टेलीग्राफ के शीर्षक, खबर और प्लेसमेंट आदि को देखने के बाद साथ छपी तस्वीर आपको भारत के किसी गांव और गांव से गुजरते सड़क की लगेगी। पर यह खंबा पहचाना हुआ लग रहा है और कैप्शन से पता चलता है कि तबरेज को इसी खंबे से बांधकर पीटा गया था।
अखबारों की नालायकी के कारण ही समाज में घोला जा रहा जहर इतनी तेजी से, सफलतापूर्वक फैलता जा रहा है। झारखंड में मॉबलिंचिंग के मामले पहले भी हुए हैं और अपराधियों के नेता बनने तथा उनके राजनीतिक झुकाव के बदले अखबारों – पत्रकारों से अलग अपेक्षा थी पर वे मामूली काम भी नहीं करते। उदाहरण के लिए, झारखंड के मंत्री ने कहा कि तबरेज के मामले में राजनीति हो रही है (इसीलिए खबर नहीं छपी थी?)। झारखंड के मंत्री सीपी सिंह ने कहा कि भीड़ द्वारा हत्या की घटना को लेकर राजनीति करना गलत है। क्या मारे गए व्यक्ति के पक्ष में बोलना गलत है? अगर यह काम अखबारों ने किया होता तो नेताओं को तथाकथित राजनीति करने की जरूरत ही नहीं पड़ती और नेताओं को जवाब भी अखबार दे सकते हैं पर देते नहीं है। उदाहरण के लिए टेलीग्राफ ने फोटो कैप्शन में लिखा है, पुलिस ने कहा कि तबरेज को जय श्री राम और जय हनुमान कहने के लिए मजबूर किया जाने वाले वीडियो से छेड़छाड़ हुई लगती है। टेप को जांच के लिए भेजा जाएगा।
मेरा मानना है कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है। तबरेज को बांध का मारा गया – इसमें शक नहीं है तो नारे लगाने के लिए मजबूर करने या नहीं करने का मामला है कहां? जांच और पुष्टि तो इसकी होनी है कि उसकी पिटाई हुई कि नहीं और सजा पिटाई के लिए होनी है – नारे लगवाना आईपीसी में भले अपराध हो पर मौत उससे नहीं हुई है। एफआईआर में भले आरोप हो, चार्जशीट में नारे लगाने से संबंधित धाराएं लगाई जाएं या नहीं यह तो जांच के बाद ही तय किया जाना चाहिए। पर नेतागण अगर अभी ऐसा कुछ कह रहे हैं तो मसकद यही साबित करना है कि पीटने वाले भाजपा और संबद्ध दलों या सेनाओं के समर्थक नहीं (भी हो सकते) हैं। वरना यह मुद्दा ही नहीं है। पुलिस का यह कहना की जांच कराई जाएगी नेताओं की भाषा बोलना नहीं है? और इसकी रिपोर्टिंग का औचित्य? जहां तक टेलीग्राफ का सवाल है, अखबार ने लिखा है, सोमवार को स्वास्थ्य कार्यकर्ता ममता देवी ने अपनी रिश्तेदार माया महाली के हवाले से कहा कि तबरेज को पीटा गया था और उसे जय श्रीराम कहने के लिए मजबूर किया गया।
तबरेज पर मोटर साइकिल चुराने का आरोप भी ऐसा ही है। शुद्ध राजनीतिक मकसद से लगाया गया है और इस बारे में बात करना मॉबलिंचिंग करने वालों और उनके समर्थकों-संरक्षकों का बचाव करना है। तबरेज ने मोटरसाइकिल चोरी की ही हो तो भी उसे पीटना गलत और गैर कानूनी है। पर राज्य के मंत्री जी कह रहे हैं कि हो सकता है उसने चोरी की हो, जांच का मुद्दा है, इसपर राजनीति ठीक नहीं है। सवाल उठता है कि इसपर राजनीति कर कौन रहा है? राजनीति अगर हो रही है तो बांध कर मारने पर हो रही है। आज के समय में कोई मोटरसाइकिल किसकी है – यह पता करना मिनटों का काम है। कायदे से मंत्री के लिए यह काम एक फोन करने भर का है और आरोप लगाने से पहले मंत्री को इसकी पुष्टि कर लेनी चाहिए। पर अभी तक इस आरोप की आधिकारिक तौर पर ना पुष्टि हुई है ना खंडन। वैसे तो इसकी कोई जरूरत नहीं है पर नेता जी कह रहे हैं तो उनका बयान या तो छापना नहीं चाहिए या फिर उसकी पुष्टि की जानी चाहिए।
इसके अलावा आज की खबरें जो चर्चा योग्य हैं
1. दक्षिण दिनाजपुर जिला परिषद के 18 तृणमूल कांग्रेस के सदस्य भाजपा में शामिल हो गए और इस तरह भाजपा ने बंगाल में पहले जिला परिषद पर कब्जा हासिल कर लिया है। (द टेलीग्राफ) 10 सदस्यों को भाजपा में शामिल करने का कार्यक्रम दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में हुआ। दिल्ली में छपने लायक खबर है। नहीं छपी तो समझिए क्यों नहीं छपी।
2. ममता बनर्जी ने कट मनी की शिकायत करने के लिए 10 जून को टोलफ्री, व्हाट्सऐप्प नंबर और ई-मेल की घोषणा की थी। इसके बाद भाजपा वालों ने पार्षदों – पंचायत सदस्यों तक का घेराव शुरू कर दिया। जो स्थिति है उसपर मैं लिख चुका हूं। इससे संबंधित खबर आज इंडियन एक्सप्रेस में है।
3. ग्रामीण पुणे की खेड पुलिस ने कर्नल, 30 जवानों के खिलाफ ग्रामीणों को डराने का मामला दर्ज किया है। पुलिस को लगता है कि यह कर्नल और दो अन्य परिवारों के बीच संपत्ति के विवाद का मामला है। इस संबंध अदालत में मामले लंबित हैं – टाइम्स ऑफ इंडिया
4. पिटाई से मौत का मामला गर्माया, कांग्रेस ने संसद में कहा, भीड़ की हिंसा का अड्डा बना झारखंड – नवोदय टाइम्स में लीड
5. मॉब लिंचिंग – घटना 17 जून की, वीडियो 23 जून को सामने आया, मामला संसद में गूंजा तो दो थाना प्रभारी सस्पेंड – दैनिक भास्कर
इन सभी खबरों से अलग, दैनिक जागरण की खबर – गुरमीत की पैरोल पर हरियाणा सरकार को नहीं एतराज, गौरतलब है। खबर कहती है, चुनाव की तैयारी में जुटी हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार डेरा सच्चा सौदा के संचालक गुरमीत राम रहीम की पैरोल में अड़ंगा नहीं डालेगी। सरकार के मंत्रियों से लेकर गृह सचिव एसएस प्रसाद से मिले संकेतों को समझें तो डेरामुखी जल्द ही जेल से बाहर हो सकता है। नियमानुसार दो साल की सजा काट चुका कैदी पैरोल की मांग कर सकता है। इसी को आधार बनाते हुए डेरामुखी ने सिरसा स्थित जमीन पर खेतीबाड़ी करने के लिए पैरोल मांगी है। पुलिस अधीक्षक ने अपनी रिपोर्ट स्थानीय उपायुक्त को सौंप दी है जिस पर अब मंडलायुक्त फैसला लेंगे। जेल प्रशासन राम रहीम के अच्छे आचरण का हवाला देकर पैरोल देने के लिए राजी है। इससे पहले डेरामुखी ने अप्रैल में सिरसा में एक शादी समारोह में शामिल होने के लिए हाई कोर्ट में भी अर्जी लगाई थी, जिसे बाद में उसने वापस ले लिया।
हरियाणा में अक्तूबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। प्रदेश सरकार के डेरामुखी को राहत देने संबंधी फैसले को डेरे से जुड़े बड़े वोट बैंक को साधने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।जेल मंत्री कृष्ण लाल पंवार का कहना है कि राम रहीम को पैरोल मिलना उनका अधिकार है। अगर नियमों के तहत पैरोल मिल सकती होगी तो मिलेगी। आप जानते हैं कि गुरमीत राम रहीम सिंह की गिरफ्तारी के बाद हरियाणा में भारी हिंसा और तोड़फोड़ हुई थी। अब नियमों के तहत उसे पैरोल पर छोड़ा जा सकता है तो सरकार को इसका विरोध करना चाहिए पर चुनाव की तैयारी का मतलब काफी विस्तृत होता है।