दुनिया के बड़े औद्योगिक हादसों में शुमार भोपाल गैस कांड का यह पैंतीसवां साल है। इस बीच केंद्र और राज्य में जाने कितनी सरकारें आईं और गईं, लेकिन इस त्रासदी के असर ने भोपाल में जैसे स्थायी डेरा डाल लिया है। गैस पीड़ित लोगों की तीसरी पीढ़ी पर भी ज़हरीली गैस से विषाक्त हुई पारिस्थितिकी का असर देखा जा रहा है। बावजूद इसके भोपाल में यह चुनावी मुद्दा नहीं है।
यह कोई नई बात नहीं। न तो यह कुछ माह पहले बीते विधानसभा चुनाव में मुद्दा था, न ही पिछले कई चुनावों में रहा है। यहां के पीडि़त बाशिंदों के लिए चुनाव महज लोकतांत्रिक व संसदीय प्रक्रिया नहीं है। 1984 में मारे गए लोगों और तब से लेकर अब तक मर-मर कर जीते आ रहे लोगों के लिए यह ध्यानाकर्षण का एक ज़रिया भी है। हर नया चुनाव इस बात की ताकीद करता है कि काल के प्रवाह में यह त्रासदी खिंचती ही जा रही है, कम नहीं हो रही।
भारतीय जनता पार्टी ने इस बार मालेगांव विस्फोट कांड में आतंकवाद की आरोपी और फिलहाल खराब स्वास्थ्य के नाम पर ज़मानत पर बाहर प्रज्ञा सिंह ठाकुर को अपना उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पर दांव खेला है। भोपाल संसदीय सीट पर 1989 से ही भाजपा का कब्जा है, लेकिन गैस पीड़ितों की समस्याओं और उन्हें पर्याप्त मुआवजा दिलाने की बात भाजपा ने कभी नहीं की। अपने घोषणापत्र में भाजपा ने भोपाल गैस त्रासदी के शिकार हुए लोगों की बात नहीं की है। कांग्रेस ने हर बार की तरह इस घोषणापत्र में भी केवल खानापूर्ति की है। हालिया विधानसभा चुनाव में भी दोनों दलों का यही रवैया था। पिछले दिनों दिग्विजय सिंह के समर्थन में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने यहां एक बड़ी रैली को संबोधित किया, लेकिन भोपाल गैस पीड़ितों की उन्हें याद नहीं आई।
भोपाल गैस कांड के पांच साल बाद 1989 में विदेशी कंपनी यूनियन कार्बाइड और भारत सरकार के बीच जो समझौता हुआ, उसके तहत मृतकों की संख्या 3,000 और घायलों की संख्या एक लाख मानी गई थी। 1992 में मध्य प्रदेश हाइकोर्ट के की निगरानी में भोपाल में एक दावा अदालत गठित की गई जिसमें गैस त्रासदी का नए सिरे से मूल्यांकन किया गया। इसमें मृतकों की संख्या 15,274 और घायलों की संख्या 5,74,000 मानी गई। बारह साल बाद 2004 में भोपाल गैस पीड़ितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे अब्दुल जब्बार ने दावा किया कि मृतकों और घायलों की संख्या पांच गुना अधिक है इसलिए मुआवजा भी उसी अनुपात में मिलना चाहिए।
जब्बार कहते हैं, “कांग्रेस नैतिक रूप से अपराधबोध का शिकार है। 3 दिसंबर को हादसा हुआ और वैश्विक दबाव की वजह से एंडरसन 7 दिसंबर 1984 को भोपाल आए क्योंकि इस हादसे के बाद यूनियन कार्बाइड समूचे यूरोप-अमेरिका में बदनाम हो गई थी। भोपाल आने के कुछ घंटे बाद एंडरसन को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन शाम छह बजे उन्हें रिहा कर के राजकीय विमान से दिल्ली भेज दिया गया और फिर वहां से एंडरसन अमेरिका के लिए रवाना हो गए। उसके बाद फिर कभी एंडरसन भारत नहीं लाए जा सके। उनकी रिहाई और सकुशल अमेरिका वापसी के पीछे कांग्रेसी हुकूमत थी। जिस तरह आपातकाल का कलंक आज भी कांग्रेस के माथे पर है, उसी प्रकार एंडरसन को भगाने का दोष भी कांग्रेस के सिर पर है और इससे वह मुक्त नहीं हो सकती। भोपाल गैस त्रासदी के साढ़े तीन दशक बाद भी पीड़ितों के साथ न्याय नहीं हो पाया है। इसके लिए कहीं न कहीं कांग्रेस जिम्मेदार है।‘’
स्थानीय सीजेएम अदालत में स्वराज पुरी और अन्य बनाम अब्दुल जब्बार और अन्य के नाम से एक मुकदमा हुआ था। इस केस में अब्दुल जब्बार ने अदालत को लिखित साक्ष्य में बताया है कि किस तरह तत्कालीन जिला कलेक्टर मोती सिंह व पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी ने एंडरसन को गिरफ्तार किया और बाद में उन्हें रिहा कर दिया। इसकी पुष्टि करने के लिए वे मोती सिंह की किताब ‘भोपाल का सच’ का जिक्र करते हैं। भोपाल सीजेएम ने इस मुकदमे को खारिज कर दिया, लेकिन जब्बार ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने मध्य प्रदेश हाइकोर्ट में इस फैसले के खिलाफ अपील दायर की। ऊपरी अदालत ने भी जिला अदालत के फैसले को बरकरार रखा। नतीजतन 2018 में अब्दुल जब्बार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करते हुए एंडरसन की रिहाई के जिम्मेदार भोपाल के तत्कालीन जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की अपील की है।
2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के कीटनाशक कारखाने से 40 टन मिथाइल आयसोसायनेट (एमआईसी) का रिसाव होने से यह भयावह हादसा हुआ था। यह जहरीली गैस भोपाल शहर के करीब 40 किलोमीटर दायरे में फैल गई। इसके असर से (कई साल में) 20,000 से ज्यादा लोग मारे गए और लगभग 5.5 लाख लोगों पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा। जब यह हादसा हुआ उस समय भोपाल की आबादी करीब नौ लाख थी। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड उस समय यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के नियंत्रण में थी। यह अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी बाद में डाउ केमिकल कंपनी (यूएसए) के अधीन आ गई और बदले हुए नाम से दोबारा इसने भारत में निवेश कर दिया। अगस्त 2017 से डाउ केमिकल का ईआई डुपोंट डी नीमोर एंड कंपनी के साथ विलय हो जाने के बाद यह अब डाउ-डुपोंट के अधीन है।
अफसोस की बात यह है कि हादसे के बरसों बाद भी राज्य और केंद्र सरकारें गैस हादसे के शिकार हुए लोगों पर बीमारियों के असर का समग्र आकलन नहीं कर सकी हैं। यही वजह है कि आज भी लक्षणों के आधार पर गैस पीड़ितों का इलाज किया जा रहा है। भोपाल स्थित सद्भावना केंद्र पिछले डेढ़ दशक से गैस पीड़ितों के उपचार एवं कल्याण से जुड़ा है। जोगीपुरा निवासी पचपन वर्षीय शमसुन बी गैस पीड़ित हैं। हादसे के वक्त उनकी उम्र सात बरस थी। उनके परिवार के कई लोग भोपाल गैस त्रासदी के शिकार हुए थे। सरकार की तरफ से उनके परिवार को 25000 का मुआवजा मिला था। वह बताती हैं कि सरकार की तरफ से मिला यह इमदाद नाकाफी है, जबकि इतने वर्षों में लाखों रुपये अस्पताल में खर्च हो गए।
बुधवारा निवासी जूही खान की उम्र 25 साल है और भोपाल गैस त्रासदी के समय उनका जन्म भी नहीं हुआ था। बावजूद इसके उनके ऊपर जहरीली गैस का प्रभाव है। जूही एनीमिया और त्वचा रोग से ग्रस्त हैं। उनका कहना है कि इतने साल बीत गए लेकिन कोई डॉक्टर यह बताने को तैयार नहीं कि उन्हें क्या बीमारी है। गोविंदपुरा निवासी ताज हसन की उम्र साठ साल है और वह भी गैस पीड़ित हैं। वह पर्याप्त मुआवजे के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनका कहना है कि भाजपा और कांग्रेस के लिए भोपाल गैस त्रासदी कोई मुद्दा नहीं है। जुबैर अहमद और उनकी पत्नी अमीना पिछले पैंतीस वर्षों से मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन उन्हें अभी तक कोई राहत नहीं मिली है। अमीना के पति जुबैर अहमद भोपाल गैस त्रासदी के बाद कई तरह की बीमारियों के शिकार हैंख् लेकिन सरकार की तरफ से उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला है।
सतीनाथ सारंगी सद्भावना केंद्र के न्यासी प्रबंधक हैं। वह 1984 से भोपाल गैस त्रासदी के शिकार हुए लोगों की मदद कर रहे हैं। उनका कहना है कि सरकार गैस त्रासदी के पीड़ितों के प्रति शुरूआत से ही उदासीन रही है। भोपाल गैस हादसे के शिकार लोगों के बच्चे भी तमाम तरह की बीमारियों के शिकार हैं। इनकी संख्या करीब तीन लाख के आस-पास होगी। इससे आगे की पीढ़ियों में भी कई प्रकार की बीमारियां मौजूद हैं। वे कहते हैं, ‘’हम सिर्फ लक्षणों के आधार उनका इलाज कर रहे हैं लेकिन उन्हें किस प्रकार की बीमारी है और उसका क्या नाम है यह हम नहीं जानते।‘’
अब्दुल जब्बार बताते हैं कि 14-15 फरवरी 1989 को केंद्र सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच हुआ समझौता एक धोखा था। समझौते के तहत मिला मुआवजा गैस पीड़ितों के लिए नाकाफी है। नतीजतन, गैस प्रभावितों को स्वास्थ्य सुविधाओं, राहत और पुनर्वास, पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति और न्याय- हर चीज़ के लिए लगातार लड़ाई लड़नी पड़ी है। 1969 से 1984 तक चली यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के आसपास जहरीला कचरा जमा होने से यहां की जमीन और पानी दूषित हो गया है। राज्य और केंद्र सरकारों ने इस बाबत होने वाली क्षति का कोई समग्र अध्ययन नहीं कराया है। इसके उलट इस समस्या को कम करके दिखाया जा रहा है। 2009-10 में नेशनल इंवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट, नागपुर और नेशनल जियोफिज़िकल रिसर्च इंस्टिट्यूट, हैदराबाद द्वारा किए गए एक अध्ययन से यह पता चला था कि जहरीले कचरे से प्रभावित कुल मिट्टी 11,00,000 मीट्रिक टन है।
Vishwas Sarang letter to Anant kumarयूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के आसपास रहने वाले पीड़ितों के घरों के निर्माण और उनके आर्थिक विकास के लिए भारत सरकार द्वारा निर्गत राशि का दुरुपयोग पूर्व भोपाल गैस त्रासदी राहत तथा पुनर्वास मंत्री विश्वास सारंग ने किया है। साल 2018 में आरटीआई के जरिए इस बात का खुलासा हुआ है। केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय द्वारा गैस पीड़ितों के कल्याण के लिए 272.5 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की गई थी लेकिन मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्री रहे विश्वास सारंग ने इस राशि का इस्तेमाल अपने निर्वाचन क्षेत्र में सड़क, नाला और पार्क बनाने में किया और उस पर करीब 85.87 करोड़ रुपये खर्च किए।
भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन की संयोजक रचना धींगरा ने बताया, ‘’भोपाल गैस पीड़ित साढ़े तीन दशक से नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। वहीं गैस रिहैबिलिटेशन मिनिस्टर ने अपने विधानसभा क्षेत्र में सड़कों, नालों और पार्कों के निर्माण के लिए इस धन का इस्तेमाल किया।‘’ रचना बताती हैं कि पिछले साल उन्होंने जब आरटीआई के जरिए यह जानकारी हासिल की तो मंत्री के आदमियों ने उन्हें डराने-धमकाने की कोशिश की। उनके मुताबिक मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आरिफ अकील ने भोपाल गैस पीड़ितों के कल्याण के लिए कई वादे किए लेकिन चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कभी गैस पीड़ितों की सुध नहीं ली।
Misutilization Funds Nov 2018अभिषेक रंजन सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। दूर दराज के इलाकों से रिपोर्ट करने का एक दशक से ज्यादा का अनुभव। बंगाल और ओडिशा से प्रचुर मात्रा में रिपोर्टिंग कर चुके हैं। फिलहाल स्वतंत्र लेखन और फिल्म निर्माण में संलग्न