शिशिर अग्रवाल
भारत के लोग दो चीज़ों के लिए हद दर्जे तक दीवाने हैं- पहला क्रिकेट और दूसरा सिनेमा. हमारे देश में आलम यह है कि एक ओर जहाँ सचिन का सौवां शतक जल्द पूरा हो जाए इसके लिए दुआ के साथ-साथ लोगों ने व्रत रखे, तो दूसरी ओर रजनीकांत का मंदिर बनाकर हमने पूजा तक की है. मगर सचिन के छक्के हों या रजनीकांत का एक्शन, लोगों के बीच ये सब टेलीविज़न के माध्यम से ही पहुँच रहा है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा की भारतीय जनमानस में धारणाओं और विचारों की निर्मिति में टीवी एक महत्वपूर्ण रोल अदा करता है.
भारत में टीवी का इतिहास यूं तो बहुत लंबा नहीं है मगर दिलचस्प ज़रूर है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि टीवी एक बेहद प्रभावशाली जनसंचार माध्यम है. भारत में टीवी के विकास को जब भी याद किया जाता है तो 1987-88 के दौरान आए धारावाहिक ‘रामायण’ का ज़िक्र ज़रूर होता है. घर के बड़े-बूढों से बात करेंगे तो पता चलता है कि जब यह धारावाहिक प्रसारित होता था तो न सिर्फ सड़कें खाली हो जाया करती थीं बल्कि यह वह दौर था जब टेलीविजन का तिलक वंदन करके उसे पूजा भी गया था. इस सन्दर्भ में अरविन्द राजगोपाल की किताब ‘पॉलिटिक्स आफ्टर टेलीविजन’ पढ़ी जानी चाहिए. इस किताब के माध्यम से लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि किस तरह भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के पांव जमाने के लिए टेलीविजन उत्तरदायी रहा है. इस दौरान वे यह भी बताते हैं कि किस प्रकार भारत में हिंदुत्व का माहौल बनाने के लिए 1987-88 के दौरान आया रामायण धारावाहिक भी ज़िम्मेदार रहा है. दरअसल ऐसे समय में जब लोग पात्रों को ही भगवान मान बैठे हों तब टेलीविजन के माध्यम से अपने हिंदुत्व के एजेंडे को फील्ड में इसी माध्यम से सबसे सटीक तरीके से लाया जा सकता था. दक्षिणपंथी ताकतों ने टीवी के विकास को इस प्रकार अपने पक्ष में खूब भुनाया. इस माध्यम से उन्होंने देश में जो माहौल बनाया उसी का नतीजा था कि सन 1992 में कारसेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया.
सन 2014 में केंद्र में जो सरकार बनी उसने तमाम ज़रूरी मसलों को एक तरफ करते हुए राष्ट्रवाद के मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया. इसके ज़रिए वे एक छद्म राष्ट्रवाद का माहौल बनाने में कामयाब भी हुए. सर्जिकल स्ट्राइक के बाद राष्ट्रवाद की परिभाषा पाकिस्तान विरोध, सेना का जौहर और हिन्दू संस्कृति (जिन्हें दक्षिणपंथी भारतीय संस्कृति साबित करने में लगे हुए हैं) के इर्द गिर्द ही घूमने लगी. ऐसे में हाल के वर्षों में देश में आई कुछ ख़ास तरह की फिल्मों पर नज़र डालिए. छोटी-बड़ी सभी फिल्मो को मिला दें तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इन चार वर्षों में भरपूर ‘राष्ट्रवादी’ फ़िल्में आयी हैं.
‘बेबी’ से लेकर ‘राज़ी’ तक हर फिल्म देशभक्ति से भरपूर थी. इन फिल्मों ने न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर जम कर कमायी की बल्कि इससे सरकार के उस तथाकथित राष्ट्रावाद को भी बल मिला जिसकी आड़ में टीवी पर हिंदुत्व का एजेंडा आसानी से सेट कर दिया गया. इस माहौल का परिणाम यह हुआ कि आप चाहकर भी मणिपुर में 2004 में महिलाओं द्वारा भारतीय सेना के विरोध में किये गये नग्न प्रदर्शन की बात मुंह पर नहीं ला पाएंगे. कश्मीर समस्या पर बात करते हुए यदि भूल से भी आपने आफ्स्पा हटाने की बात कह दी तो आपको देशद्रोही करार दिया जाएगा.
इधर बीच सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही तीन फिल्मों– ‘उरी अटैक’, ‘दी एक्सिडेंटल प्राइममिनिस्टर’ और ‘ठाकरे’ को भी इसी सांचे में रखकर देखा जाना चाहिए. राफेल, नोटबंदी और जी.एस.टी. जैसे मुद्दों पर सत्तापक्ष फ़िलहाल घिरा हुआ नज़र आ रहा है. हाल ही में आए चुनावों के परिणामों ने मोदी सरकार की चिंता और भी बढ़ा दी है. तो ऐसे में जब चुनाव करीब हों तो प्रचार तो होगा ही. 2014 के चुनाव के बारे में कहा गया कि यह चुनाव टीवी पर लड़ा गया था. इसमें कोई दो राय नहीं है कि आगामी चुनाव भी टीवी पर ही लड़ा जाएगा जिसकी शुरुआत प्रधान सेवक ने नये साल में इंटरव्यू देकर कर दी है.
जब माहौल में एंटी-इनकमबेंसी बढ़ रही हो तो किया क्या जाए? ऐसे में मीडिया को अपने पक्ष में माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी सौपी जाती है. मौजूदा हालात को देख कर यह अनुमान लगाया जा सक्ता है कि यह काम न सिर्फ प्राइम टाइम और शाम को स्टूडियो में होने वाली बहस के ज़रिये होगा बल्कि फिल्म इंडस्ट्री का भी खूब इस्तेमाल किया जाएगा. सन 2014 में जो बहुमत भाजपा को मिला उसका सबसे बड़ा कारण तत्कालीन मनमोहन सरकार के खिलाफ जनता का आक्रोश था. ज़ाहिर है इस बार जब 2019 का चुनावी समर शुरू होगा तो मोदी सरकार को अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करना होगा. चूँकि सरकार का रिपोर्ट कार्ड उतना अच्छा नहीं है कि उसे सामने रखकर चुनाव में जाया जाए तो ऐसे में कोशिश यही होगी कि जनता को यूपीए सरकार का एक फ़्लैश बैक दिखा कर डराया जाए. ऐसा दांव बीजेपी मध्यप्रदेश में खेलती भी रही है जहाँ जनता को दिग्विजय सरकार की याद दिला कर डराने का काम उसने किया. ऐसे में मोदी सरकार के वर्तमान कार्यकाल के सामने सीधे तौर पर मनमोहन सिंह के कार्यकाल को खड़ा करके जनता में यह सन्देश देने की कोशिश की जा रही है कि यदि इस बार भी हमें नहीं चुना तो ये लोग वापस सत्ता में आ जाएँगे और फिर से वाही घोटालों का दौर शुरू हो जाएगा. यह सारा खेल ‘दि एक्सिडेंटल प्राइममिनिस्टर’ के ज़रिये खेला जाएगा.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रह चुके मोदी की छवि हिंदूवादी नेता की रही है. सन 2002 के बाद देश के बहुसंख्यक तबके के ह्रदय में नरेन्द्र मोदी की छवि हिन्दू हृदय सम्राट की बनाई गयी. राम मंदिर और हिंदुत्व का कार्ड भी बीजेपी हर चुनाव से पहले अमूमन खेलती ही आई है तो इस बार ऐसा न हो यह हो नहीं सकता. कुछ ही दिनों में आने वाली फिल्म ‘ठाकरे’ इस माहौल को सेट करने में काफी हद तक मदद कर सकती है. फिल्मों के ज़रिये किसी भी इंसान की छवि को बनाया या बिगाड़ा जा सकता है. यानी यह वह माध्यम है जिसके ज़रिये आप चाहें तो किसी को भी दूध का धुला या फिर निहायत ही ख़राब दिखा सकते हैं. सन 2016 में आई फिल्म ‘अज़हर’ इसका सटीक उदाहरण है. इस फिल्म में मोहम्मद अजहरुद्दीन को एकदम पाक साफ़ दिखाया गया था. इसी प्रकार हो सकता है कि आने वाली फिल्म ‘ठाकरे’ में भी शिवसेना के संस्थापक और बाबरी मस्जिद विध्वंस में अपनी भूमिका को खुले तौर पर स्वीकारने वाले बाला साहेब ठाकरे को भी जस्टिफाई कर दिया जाए. इसकी सम्भावना इसलिए भी है क्यूंकि इस फिल्म में बाल ठाकरे की पार्टी शिवसेना काफी दिलचस्पी लेती हुई नज़र आ रही है. मौजूदा राजनीति की ओर नज़र डालने पर यह बात ज़हन में आती है कि बेशक यह फिल्म बाल ठाकरे पर हो मगर कहीं न कहीं ये मौजूदा सरकार को भी फायदा देगी. हो सकता है कि इससे महाराष्ट्र में शिवसेना को फायदा पहुंचे मगर देश के बाकि हिस्सों में तो यह फिल्म बीजेपी के लिए ही कारगर होगी क्यूंकि मौजूदा समय में नरेन्द्र मोदी के अलावा देश की राजनीति में ऐसा कोई राष्ट्रीय नेता नहीं नज़र आता जिसको जनता हिन्दु हृदय सम्राट की नज़र से देख सके. इस प्रकार साफ़ है कि इस फिल्म के ज़रिये एक बार फिर हिंदुत्व का माहौल गर्म किया जाएगा.
इसी कड़ी में ‘उरी अटैक’ को भी देखिये. सर्जिकल स्ट्राइक भारतीय सेना की तरफ से पाकिस्तान पर की गयी एक जवाबी कार्यवाही थी. मगर मौजूदा सरकार और उससे जुडी हुई तमाम दक्षिणपंथी ताकतों ने इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया. लोकतंत्र में ऐसा कोई भी संस्थान नहीं है जिससे जनता सवाल न कर सके मगर मौजूदा दौर में सत्ता पक्ष की तरफ से जो माहौल बनाया गया है उसमे सेना से सवाल करना ही देशद्रोह का पर्याय बना दिया गया है. हालत ऐसे हैं कि हर अनैतिक और अलोकतांत्रिक कार्य को दबाने के लिए राष्ट्रवाद का ही सहारा लिया जा रहा है. आप कश्मीर में मासूमों पर किये जा रहे पैलट गन को लेकर सवाल करेंगे तो सरकार की तरफ से आपको देशद्रोही करार देते हुए पकिस्तान का दलाल करार दिया जाएगा. इस प्रकार सेना की आड़ में जिस छद्मराष्ट्रवाद का हिंसात्मक आवरण बनाया जा रहा है उसे यह फिल्म बल देगी. इसका परिणाम यह होगा कि बड़े ही आसानी से आतंकवाद, गरीबी, बेरोजगारी जैसे मुद्दों को आपकी टेबल से हटा दिया जाएगा और उसकी जगह सेना का शौर्य और छद्म राष्ट्रवाद को रख दिया जाएगा.
यह तीनों फिल्में इस बात का अच्छा उदाहरण है कि किसी प्रोपेगेंडा को रचने और उसे मजबूत करने में पूंजीवाद किस तरह स्टेट का साथ देता है. यह कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में न सिर्फ रैलियों और गोदी मीडिया की ज़रिये प्रोपेगेंडा का प्रचार-प्रसार कर जनता को प्रभावित करने की कोशिश की जाएगी बल्कि इसके साथ ही फिल्म इंडस्ट्री के ज़रिये भी ऐसा माहौल बनाया जाएगा जिससे आप मूल मुद्दों को भूलकर स्टेट के प्रोपेगेंडा में उलझ कर रह जाएँगे. आप यह सवाल करना भूल जाएँगे की आपके बच्चे को नौकरी क्यूँ नहीं मिली, देश से भुखमरी अभी तक ख़त्म क्यूँ नहीं हुई है और ऐसे बहुत से प्रश्न जिससे आप सीधे सीधे प्रभावित होते हैं किनारे कर दिए जाएँगे. जनता को एक बार फिर एक मजबूत प्रचार तंत्र का शिकार बना दिया जाएगा और उसका परिणाम होगा कि सारा शोषण बदस्तूर चलता रहेगा, बदलेगा कुछ नहीं.
लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र हैं