अभिषेक श्रीवास्तव / दिल्ली
संसद के मौजूदा शीत सत्र में आज एक ऐसा विधेयक पारित होने की उम्मीदकी जा रही थी जिससे देश में उत्पीड़न और अमानवीयता के सबसे बर्बर स्वरूप को पहलीबार कायदे से चुनौती मिलेगी। पर्सन्स इन ट्रैफिकिंग बिल (प्रिवेंशन, प्रोटेक्शनएंड रीहैबिलिटेशन) नाम का यह विधेयक राज्यसभा में आज ही पेश किए जाने के लिए अधिसूचितथा लेकिन राफेल सौदे की संयुक्त संसदीय समिति से जांच की विपक्ष की मांग पर संसदके दोनों सदनों को अगले दिन के लिए स्थगित कर दिया गया। मानव तस्करी निरोधक उक्तविधेयक के समर्थन में कोई 12000 से ज्यादा बंधुआ मजदूरों ने दस्तखत कर के इसेपास करने का अनुरोध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजा है।
मानव तस्करी की समस्या को रोकने के लिए देश में पहले कई कानून हैं लेकिन अब तक वे सभी निष्प्रभावी रहे हैं। आम तौर से मानव तस्करी की समस्या को वेशवृत्ति से जोड़ कर देखा जाता है लेकिन मानव तस्करी के खिलाफ देश में बने सामाजिक संगठनों के गठबंधन से संबद्ध पीवीसीएचआर के डॉ. लेनिन बताते हैं कि 70 फीसदी मानव तस्करी दरअसल बंधुआ मजदूरी के लिए की जाती है। वेश्यावृत्ति से इसे अनिवार्यत: जोड़ कर देखना गलत धारणा है।
संसद के शीतसत्र में इस बिल को पेश किए जाने की पृष्ठभूमि में समर्थनजुटाने व दबाव कायम करने के लिए दिल्ली में उपरोक्त बिल के समर्थन में बंधुआमजदूरी व मानव तस्करी उन्मूलन से संबद्ध राष्ट्रीय गठबंधन का पिछले दिनों एकसम्मेलन हुआ। कांस्टिट्यूशन क्लब में 13 दिसंबर को आयोजित दिन भर के सम्मेलनमें कोई चौदह राज्यों से आए मुक्त किए गए बंधुआ मजदूर शामिल थे जिन्होंनेअपनी-अपनी आपबीती सुनाई। इस आयोजन के केंद्र में तमिलनाडु के सामाजिक कार्यकर्ताडॉ. कृष्णन और बनारस के डॉ. लेनिन थे।
अगले दिन प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान बंधुआ मजदूरी और मानव तस्करी की जैसी कहानियां सुनने को मिलीं, वे भयावह कर देने वाली थीं। पीवीसीएचआर के छुड़ाए गए चार बंधुआ मजदूरों ने बताया कि कैसे उन्हें अब तक इस देश का नागरिक तक नहीं समझा जाता था और कैसे मानवाधिकार वालों के संपर्क में आने के बाद पहली बार उन्हें वे अधिकार प्राप्त हो सके जो एक सामान्य नागरिक को होने चाहिए।
जिन चार व्यक्तियों ने अपनी आपबीती सुनाई उनमें एक महिला भी थीं। सभी पूर्वी उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। इन्हें ऊंची जातियों के लोगों ने बंधक बनाकर छह से सात महीने मुफ्त में अपने ईंट भट्ठे पर मजदूरी करवायी, बदले में मारा पीटा और एक मौके पर तो एक के काम से मना करने पर बंदूक तान दी और महिला के कपड़े तक फाड़ दिए।
इनकी गवाहियों में दो बातें स्पष्ट रूप से खुलकर सामने आईं। मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी के अपराधी ऊंची जाति या दबंग जाति के लोग ही होते हैं जबकि इसका शिकार वर्ण व्यवस्था के हाशिये से भी बाहर जीने वाले मुसहर समुदाय के लोग हैं। इन मुसहरों के पास न रहने को घर है न खाने को राशन।
एक पीडि़त ने दिलचस्प वाकया सुनाया। वे बताते हैं कि इनकी रिहाइश दो गांवों की सरहद पर थी। एक गांव में प्रधानी के चुनाव में इनसे वोट ले लिया गया। जब वे उस गांव के कोटेदार के पास चीनी और मिट्टी का तेल लेने गए तो उनका गैलन उठाकर दूर फेंक दिया गया और कहा गया कि वे इस गांव के निवासी नहीं हैं, दूसरे गांव में जाएं। जब वे दूसरे गांव में गए तो वहां भी उनके साथ यही बरताव हुआ। वे कहते हैं, ‘’हम लोग गेंद्र की तरह इधर से उधर धकेले जाते रहे। एक साल एक गांव का प्रधान हमे वोट लेता, दूसरे साल दूसरे गांव का प्रधान लेकिन कोटे के राशन के नाम पर दोनों गांवों से हमें भगा दिया जाता। हम कहीं के नागरिक नहीं थे।‘’
पीवीसीएचआर के हस्तक्षेप के बाद कुछ बंधुआ मजदूरों की ओर से जब दबंगों के खिलाफ केस कराया गया, तब जाकर सरकार की ओर से इन्हें बीस-बीस हजार का मुआवजा मिला। इसके अलावा एससी/एसटी एक्ट में अस्सी हजार का मुआवजा मिला और इनका राशन कार्ड बन सका।
बंधुआ मजदूरी की ऐसी हृदयविदारक कहानियां समूचे देश में मौजूद हैं लेकिन सत्ता-समाज में जाति की जकड़न के चलते इनका इलाज नहीं हो पाता है। डॉ. कृष्णन बताते हैं कि दक्षिण भारत में भी यही हाल है। वहां भी उत्पीड़न करने वाला ऊंची जाति का दबंग है जबकि उत्पीडि़त लोग दलित या आदिवासी हैं। समूचे देश में उत्पीड़न का जातिगत स्वरूप ऐसा ही है।
राष्ट्रीय अपराध आंकड़ा ब्यूरो के मुताबिक पिछले साल मानव तस्करी के कुल 8132 मामले दर्ज किए गए थे जबकि 2015 में ये मामले 6877 थे। दिलचस्प यह है कि 2015 में मानव तस्करी के 2387 मामलों में दोषसिद्ध हुआ, कोर्ट ने 815 लोगों को सजा दी और 1556 को छोड़ दिया। बंधुआ श्रम कानून के तहत उस साल केवल चार लोगों को दंड मिल सका।
आज राज्यसभा में बिल को पेश किया जाना था लेकिन सदन की कार्रवाई स्थगित हो जाने के कारण अब इस पर सवालिया निशाल लग गया है। उक्त विधेयक को लेकर सरकार वैसे गंभीर नजर आती है। दिल्ली में 13 दिसंबर के सम्मेलन में महिला और बाल कल्याण मंत्रालय के प्रतिनिधि की उपस्थिति से इस उम्मीद को बल मिला। अगर राफेल पर संसदीय गतिरोध ऐसे ही कायम रहा तो मानव तस्करी विरोधी विधेयक का इस सत्र में पास हो पाना मुश्किल जान पड़ता है।
वीडियो: अभिषेक श्रीवास्तव