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पत्रकारों के ऊपर हमले की चर्चा तो आए दिन होती है लेकिन पत्रकारों की खुदकुशी, उनकी हारी-बीमारी, उनके काम करने की स्थितियों, उनकी पेशेवर दुश्वारियों, पारिवारिक संकट और निजी व पेशेवर जीवन के विरोधाभासों से उपजे संकटों पर सामान्य तौर पर तब तक बात नहीं होती जब तक कि कोई हादसा न घट जाए। कल्पेश ज्ञाग्निक की खुदकुशी से पहले भी पत्रकारों की अस्वाभाविक मौत होती रही है और उसके चौबबीस घंटे बाद भी एक मौत हुई जो खबरों में ज्यादा नहीं आ सकी। नवभारत, बिलासपुर के संपादक निशांत का दिल का दौरा पड़ने से मौत हुई। किसी ने नहीं पूछा कि एक पत्रकार को दिल का दौरा क्यों पड़ता है। मौत के कगार पर खड़े ऐसे कई पत्रकार हमारे इर्द-गिर्द हैं। हमारी नज़र उन पर नहीं जाती। जब वे गुज़र जाते हैं तो हम उनके पत्रकारीय काम की चर्चा करने के बजाय अनावश्यक कारणों में झांकना शुरू कर देते हैं। जीते जी भी हम जिन्हें नायक बनाते हैं और खलनायक, उनके पत्रकारीय काम के आकलन के आधार पर ऐसा नहीं करते। नतीजतन तमाम अच्छे पत्रकार गुमनामी के अंधेरे में तनाव दूर करने की गोलिया फांकते रहते हैं। आवेश तिवारी की यह पोस्ट हमारे समय के पत्रकारीय संकटों को बहुत अच्छे से रेखांकित करती है। (संपादक)
आवेश तिवारी
संपादकों-खबरनवीसों की मौत की ख़बरें लगातार पढ़-पढ़ कर अवाक हूँ। कहीं दिल का दौरा पड़ रहा तो कहीं कोई आत्महत्या कर ले रहा, कोई कह रहा न्यूजरूम का दबाव है तो कोई कह रहा कार्पोरेट्स का दबाव। मैं फिर से कहता हूँ बुजदिलों के लिए जर्नलिज्म नहीं है। अगर आप न्यूजरूम का प्रेशर नहीं संभाल सकते तो आप प्रेशर कुकर की दूकान खोल लीजिये, प्लीज जर्नलिज्म में मत आइये। कार्पोरेट्स का दबाव महज एक अफवाह है क्योंकि नौकरी आपने चुनी है,अपनी मनमर्जी से चुनी है। लेकिन कुछ तो है जो मौतें हो रही हैं। आखिर क्या है?
1- एक खबरनवीस, एक रिपोर्टर, एक सम्पादक की पहचान उसका काम, उसकी ख़बरें, उसका अखबार होता है। ख़बरों से इतर वो बेहद आम होता है लेकिन काम के असामान्य घंटे, ख़बरों का घटनाओं का दबाव, आर्थिक अभाव, अव्वल बने रहने की जुगत और सबसे बड़ी बात जनता की अपेक्षा उसे एक आम आदमी की तुलना में जल्दी अवसादग्रस्त कर सकती है। यह बात माननी होगी कि ख़बरों का आदमी होने और बाबूगिरी करने में बड़ा फर्क है। खबरनवीस होना और अखबार निकालना किसी युद्ध में होने जैसा है और युद्ध अपने साथ अपनी विभीषिकाएँ लेकर आता है, फिर भी युद्ध लड़े जाते हैं। मैं अपने जितने सम्पादक मित्रों को जानता हूँ उनमें से 90 फीसदी अवसाद या एन्क्जायटी की दवाएं खाते हैं, रक्तचाप की दवाओं का खाना सामान्य सी बात है। यकीन मानिए इनमें से ज्यादातर दबाव उनके खुद के पैदा किये होते हैं। इसी अवसाद की वजह से खबर का आदमी अज्ञात दिशाओं में निरंतर दौड़ता रहता है- कभी प्रेम में पड़ता है, कभी नशे में तो कभी भीड़ में खुश होने की वजहें तलाशने लगता है।
2- खबर का आदमी छोटी-छोटी बात पर अपराधबोध से भर जाता है- न उसके पास खूबसूरत सपने बचते हैं न ही कल के शानदार होने की उम्मीदें। बात अजीबोगरीब मगर सच है कि एक खबरनवीस के प्रेम में पड़ने की संभावना एक आम आदमी की तुलना में काफी ज्यादा होती है लेकिन यह भी सच है कि प्रेम मिलता है या न मिलता है, वो अपने लिए अवसाद के ढेर सारे सामान ढूँढ़ लाता है। पिछले एक साल में आधा दर्जन पत्रकारों को, जिनमें से दो तीन बेहद शानदार थे इन्हीं प्रेम संबंधों की वजह से अँधेरे गलियारे में जाते देखा है। फेसबुक पर कथित नैतिकतावादियों ने प्रेम और सेक्स को लेकर जितने कैम्पेन चलाये ज्यादातर पत्रकारों को लेकर ही चलाये।
3- एक दूसरी वजह भी है- समकालीन पत्रकारिता में एक तरफ सुधीर चौधरी और रोहित सरदाना जैसे लोग हैं जो सत्ता की आँख के तारे हैं, दूसरी तरफ रवीश कुमार हैं जिन्होंने राजनैतिक परिस्थितियों का अपने पक्ष में इस्तेमाल कर खुद को शोषित उत्पीड़ित घोषित करने का तरीका खोज लिया है। हर पत्रकार या तो रवीश कुमार बनना चाहता है या चौधरी, बीच का कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं गया। जब तक बीच के रास्ते पर चलने का जोखिम नहीं उठाया जाएगा, मौतें होती रहेंगी।
फेसबुक पोस्ट से साभार