आवेश तिवारी
दैनिक जागरण रेप की ख़बरों से कैसे खेलता है इसका एक क़िस्सा मैं आपको सुनाता हूँ. २३ अप्रैल २००६ को जब ये घटना घटी मैं उस वक़्त देश के नंबर वन अखबार ‘दैनिक जागरण’ का संवाददाता हुआ करता था. अतिनक्सल प्रभावित सोनभद्र जनपद में पुलिस का दमन चक्र जोरों पर था, वहीँ सड़कों और अखबार के पन्नों पर दलाल पत्रकारों और नेताओं के साथ उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश दिखाने के लिए हाई प्रोफाइल ड्रामा खेला जा रहा था. शाम को तकरीबन ७ बजे मुझे ये जानकारी मिली कि बेहद दुर्गम आदिवासी गांव बैरपुर में तीन आदिवासी लड़कियों के साथ २४ घंटे पहले गैंग रेप हुआ है और पुलिस ने सूचना के बावजूद उस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की है. मैंने जब इस बेहद संगीन मामले के सन्दर्भ में पुलिस से जानकारी मांगी तो उनके होश उड़ गए, तत्काल गाडी भेजकर जैसे तैसे लड़कियों को और उनके परिजनों को बुलाया गया. चूँकि रात १० बजे के बाद अखबार के क्षेत्रीय संस्करण छूटने लगते हैं, सो मैं एफआईआर दर्ज होने का लम्बे समय तक इन्तजार नहीं कर सकता था. मैंने लड़कियों और उनके पिता का बयान रिकॉर्ड किया जो कि आज भी मेरे पास सुरक्षित है और खबर भेज दी.
अपने बयान में इन लड़कियों ने बताया था कि पिछली रात जब हम तीनो गाँव की ही एक शादी से लौट रहे थे,गाँव के ही तीन लड़कों ने चाकू के बल पर हमें अँधेरे सुनसान रास्ते में उठा लिया और हम सबका बारी-बारी से बलात्कार किया. ये लड़के बसपा के एक नेता और ग्राम प्रधान के बेटे थे. दुष्कर्म की शिकार लड़कियों के परिजनों ने बताया कि उन लोगों ने हमें गांव में ही बंधक बना लिया था. वो तो हमने जैसे-तैसे पुलिस को सूचना दी नहीं तो वो तो आने ही नहीं दे रहे थे. कल्पित नामों के साथ अगले दिन ये खबर जागरण के अलावा एक दो अन्य अखबारों में प्रकाशित हुई थी.
२४ अप्रैल को सबेरे ७ बजे सोकर उठने के तत्काल बाद जब मैंने स्थानीय एसएचओ को इस मामले में की गयी कारवाई को जानने के लिए फ़ोन किया तो मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गयी. एसएसपी रघुबीर लाल जो कि अब दिल्ली मेट्रो के सुरक्षा अधिकारी हैं, के बेहद ख़ास और हिरासत में एक दलित की मौत के मामले में जांच का सामना कर रहे एसएचओ ने मुझे बताया कि ‘कहाँ कुछ हुआ है? वो लड़कियां तो कुछ भी होने से साफ़ इनकार कर रही हैं’. पूरी तरह से स्तब्ध मैं जब तैयार होकर थाने पहुंचा तो पाया बेहद डरे और सहमे हुए पीडितों के परिजनों और खुद दुष्कर्म की शिकार लड़कियों के बयान बदले हुए हैं. मैं कुछ समझ पाता इसके पहले जागरण से मेरे पास फ़ोन आया कि ‘आप इस मामले में ज्यादा रुचि मत लीजिये, कप्तान साहब ने व्यक्तिगत तौर पर इस मामले को ज्यादा तवज्जो नहीं देने को कहा है’.
मैं सारी हकीकत समझ गया था. इधर तब तक पुलिस ने पूरे मामले को झूठा साबित करने के लिए इन लड़कियों के बयान की विडियो रिकॉर्डिंग करा ली थी. शाम को एक रेस्ट हाउस में दारू और मुर्गे की दावत में सभी बड़े अखबारों के प्रमुख और तमाम पत्रकारों एवं पुलिस के अधिकारियों की मौजूदगी से ये तय हो गया कि उन आदिवासी लड़कियों के बाद अब ख़बरों का बलात्कार होना तय है.
मैं अब भी उन लड़कियों के बयान से पलटने की बात पर यकीं नहीं कर पा रहा था. मुझे अपने सूत्रों से ये मालूम हुआ कि इनसे डरा धमका कर और पैसे का लालच देकर ये बयान लिया गया है तो मैं अपने कुछ पत्रकार मित्रों को लेकर दो दिन बाद बैरपुर गांव जा पहुंचा. गांव में घुसते ही हमें डर और दहशत का माहौल देखने को मिला. गाँव के ही एक युवक अरविन्द जिसने पुलिस को इस मामले की इत्तिला दी थी, चार दिनों से बिना किसी जुर्म के हिरासत में था. उसके छोटे भाई ने बताया कि हमारे भाई को बुरी तरह से पुलिस ने पीटा है, वे उसे झूठे जुर्म में जेल भेज देंगे. दुष्कर्म की शिकार लड़कियों से मिलने से पहले हमने उनकी माताओं से बात की. दिन भर जैसे तैसे मजदूरी करके पेट भरने वाली उन महिलाओं ने कहा कि ‘साहब हम कहाँ तक लड़ पाएंगे? अगर उफ़ भी करेंगे तो पुलिस जीने नहीं देगी, हमारी लड़कियों को पंचायत ने दूषित बताकर गाँव से बाहर कर दिया… हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते.’ वो लड़कियां गाँव के बाहर एक बिना छप्पर के घर में एक साथ रह रही थी, उनका कुसूर यह था कि उनके साथ रेप हुआ था.
बैरपुर से वापस लौटने के तत्काल बाद मुझे जागरण प्रबंधन ने इस खबर की सत्यता को प्रकाशित करने के बजाय कवरेज को लेकर मुझे १० दिनों तक निलंबित करने का आदेश दे दिया. अखबार ने एक खंडन भी प्रकाशित किया जिसमे एसएसपी के हवाले से कहा गया था कि ‘उन लड़कियों ने बलात्कार के पीड़ित को मिलने वाले मुआवजे के लालच में पूर्व में झूठे बयान दिए थे. अब अगर किसी को ऐसा करते पाया गया तो उसके खिलाफ कार्यवाही की जायेगी. न्यूज़ चैनल ‘सहारा समय’ और कुछ एक साप्ताहिक पत्रों ने पुलिस की लीपापोती पर खबरें कहानी सिर्फ यहीं ख़त्म नहीं हुई. इस घटना के महज १५ दिनों बाद मुझे आगजनी के एक मामले में अभियुक्त बना दिया गया, हालांकि प्रेस काउंसिल के कड़े तेवरों की वजह से महज २४ घंटे में मेरा नाम पुलिस को हटाना पड़ा. उधर बलात्कार की शिकार लड़कियों को मोहरा बनाकर ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ में मेरे साथ-साथ अन्य तीन पत्रकारों के खिलाफ मानहानि की शिकायत दर्ज करायी गयी, हालाँकि बाद में हमने आयोग के पत्र के जवाब में उन्हें सीधे तौर पर कहा कि ‘ये बेहद शर्मनाक है कि शहरी महिलाओं के उत्पीडन पर आयोग के सदस्य फौरी तौर पर सक्रिय हो जाते हैं क्योंकि वहां मीडिया होती है लेकिन तीन आदिवासी लड़कियों के मामले में वास्तविकता जाने बगैर नोटिस जारी कर दिया गया. आयोग महिलाओं को लेकर देश में दोहरे मापदंड अपना रहा है’.
अब तक अविवाहित और गांव से निकाले जाने का संताप झेल रही लड़कियों के पिता अपने इस्तेमाल किये जाने से थक चुके हैं. रूपा का पिता कहता है, ‘भैया, हमको तो न कोर्ट मालूम है न थाना न कचहरी, हमसे जो कहा उन लोगों ने हम किये, अब वो मुकदमा लड़वा रहे हैं. हमें मार दिए होते तो अच्छा था.’
पिछले महीने पता चला चंदा, रूपा और तारा में से दो की कुछ वक्त पूर्व अज्ञात कारणों से मौत हो गई.
आवेश तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह अनुभव उन्होंने अपनी फेसबुक दीवार पर लिखा है. वहीं से साभार प्रकाशित.