पंकज श्रीवास्तव
बीजेपी कार्यकर्ताओं ने जीत के जश्न में त्रिपुरा में रूसी क्रांति के नायक लेनिन की मूर्ति ढहा दी। कुछ लोग सोशल मीडिया में तर्क दे रहे हैं कि कम्युनिस्टों ने भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी की मूर्ति न लगाकर ‘विदेशी’ लेनिन की मूर्ति लगाकर ग़लत किया था। मूर्तियाँ आदर्शों पर चलने की कितनी प्रेरणा देती हैं, यह अलग बहस है, लेकिन भगत सिंह को लेनिन के बरक्स खड़ा करना एक हास्यास्पद कोशिश है। सच यह है कि लेनिन ने दुनिया भर के क्रांतिकारियों को प्रेरित किया था और भगत सिंह तो उनके दीवाने ही थे।
आइए ज़रा इतिहास के पन्ने पलटते हैं। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर मुक़दमा चल रहा था कि कि ‘लेनिन दिवस’ आ गया (21 जनवरी यानी लेनिन की पुण्यतिथि)। भगत सिंह और उनके साथियों ने तीसरे इंटरनेशन (कम्यनिस्टों की अंतरराष्ट्रीय संस्था) के लिए एक तार तैयार किया और सुनवाई के दौरान अदालत में पढ़ा। अख़बारों में इसकी रिपोर्ट यूँ लिखी गई थी-
21 जनवरी, 1930 को लाहौर षड़यंत्र केस के सभी अभियुक्त अदालत में लाल रुमाल बांध कर उपस्थित हुए। जैसे ही मजिस्ट्रेट ने अपना आसन ग्रहण किया उन्होंने “समाजवादी क्रान्ति जिन्दाबाद,” “कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिन्दाबाद,” “जनता जिन्दाबाद,” “लेनिन का नाम अमर रहेगा,” और “साम्राज्यवाद का नाश हो” के नारे लगाये। इसके बाद भगत सिंह ने अदालत में तार का मजमून पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे तीसरे इंटरनेशनल को भिजवाने का आग्रह किया।
तार का मजमून—
लेनिन दिवस के अवसर पर हम उन सभी को हार्दिक अभिनन्दन भेजते हैं जो महान लेनिन के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कमाना करते हैं। सर्वहारा विजयी होगा। पूँजीवाद पराजित होगा। साम्राज्यवाद की मौत हो।
भगतसिंह (1931)
उस वक़्त भगत सिंह का नाम बच्चे-बच्चे की ज़बान पर था। अंग्रेज़ सरकार की दस्तावेज़ों में दर्ज हुआ कि भगत सिंह की शोहरत गाँधी जी से ज़्यादा हो गई है। अंग्रेज़ सरकार सबसे ज़्यादा भगत सिंह से ख़ौफ़ खाती थी क्योंकि वे साफ़ तौर पर ख़ुद को ‘बोल्शेविक’ कहते थे और मार्क्सवादी सिद्धांतों के आधार पर समाज के निर्माण को अपना मक़सद बताते थे। जेल में रहने के दौरान साम्यवाद को लेकर उनका अध्ययन लगातार जारी था। ब्रिटिश ही नहीं, पूरी दुनिया के पूँजीवादी देश लेनिन के नेतृत्व में हुई रूसी क्रांति और उसके वैश्विक प्रभाव से आतंकित थे।
23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिले थे। उन्होंने बाद में लिखा कि भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे.
‘इंक़लाब ज़िदाबाद!’
भगत सिंह ने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए या नहीं ? जब मैंने उन्हे किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो।
मैंने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इन्क़लाब ज़िदाबाद !”
इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को उनका धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने उनके केस में गहरी रुचि ली ।
मेहता के जाने के थोड़ी देर बाद जेल अफ़सरों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है। अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा.
जब यह ख़बर भगत सिंह को दी गई तो वे मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे. उनके मुंह से निकला, ” क्या मुझे लेनिन की किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे ? ज़रा एक क्रांतिकारी की दूसरे क्रांतिकारी से मुलाक़ात तो ख़त्म होने दो।”
लेनिन का भारत के स्वतंत्रता संग्राम से गहरा नाता था। अफ़गानिस्तान में गठित भारत की पहली निर्वासित सरकार के राष्ट्रपति राजा महेंद्रप्रताप सिंह भी लेनिन से काफ़ी प्रभावित थे। 1 दिसंबर 1915 को हुई इस सरकार की घोषणा को स्वर्ण पट्टिका में अंकित करके रूस भेजा गया था। अंग्रेज़ बोल्शविकों और महेंद्र प्रताप की निकटता से आतंकित थे। क्रांति के बाद लेनिन ने उन्हें रूस आमंत्रित भी किया था।
लेनिन ने ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’ के नारे से आंदोलित धरती पर रूसी क्रांति के ज़रिए मज़दूरों के राज का असंभव लगने वाला सपना सच कर दिखाया था। कॉरोपेरेट पोषित ‘राष्ट्रवादी’ राजनीति अगर मज़दूरों के इस नायक से घृणा करती है तो आश्चर्य कैसा।
पंकज श्रीवास्तव, मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।