मटका नहीं था…..



 

दोस्तों, इस देश को बदनाम करने में लगे घनघोर ग़ैर-राष्ट्रवादियों को क्या कहा जाए, जो समय-बेसमय-कुसमय महिला कार्ड, दलित कार्ड, माइनियोरिटी कार्ड खेलते हैं और दुनिया की नज़रों में भारत यानी विश्वगुरु को बदनाम करने की जुगत लगाए रहते हैं। लेकिन भला हो मीडिया, न्यायपालिका और अन्य भारत का भला चाहने वालों का कि इन बदनाम करने वालों का सदा भंडाफोड़ होता आया है। जैसे भंवरी देवी के बलात्कार मामले में न्यायाधीश महोदय ने साफ और स्पष्ट कर दिया कि ये मामला बलात्कार का हो ही नहीं सकता था, कि उच्च जातिय वर्णों के पुरुष किसी निम्न जाति की महिला को हाथ लगा ही नहीं सकते, क्योंकि भ्रष्ट हो जाएंगे, ऐसे में बलात्कार का सवाल ही नहीं उठता। भंवरी देवी ने झूठे ही इन उच्च जातिय पुरुषों पर बलात्कार का आरोप लगाया और फिर इस जुगत में लग गई कि इससे फायदा कैसे उठाया जाए। हमारा ये महान देश जो विश्वगुरु बनने की दहलीज पर खड़ा है, वो इस विश्वगुरु के सिंहासन वाली इमारत के भीतर बस इन्हीं लोगों की वजह से नहीं पहुंच पा रहा।

बिलकीस बानो का किस्सा देख लीजिए, माना कि बलात्कार हुआ, और फिर उस गर्भवती महिला को मरा जानकर बलात्कारी उसे वहीं छोड़ आए, कि जिस तरह उसकी तीन साल की बच्ची की हत्या की थी, उस तरह उसकी हत्या करने की जरूरत बाकी ना रही। वैसे भी बलात्कार करके थक गए होंगे, इसलिए हत्या करने में ताकत खर्च करने का कोई फायदा नहीं था। तो इन हत्यारे और बलात्कारियों को भी विश्वगुरु की दहलीज पार करवाने की कोशिश करने वाले लोगों ने समय रहते रिहा कर दिया। अब देखें कि हमें विश्वगुरु बनने से कौन रोक सकता है। बिलकीस बानो और उस जैसी तमाम महिलाएं जो पहले ”प्रोवोकेटिव” कपड़े पहन कर मर्दों को लुभाती हैं, ”जैसा कि केरल हाई कोर्ट में कहा गया” और फिर छेड़े जाने पर, बलात्कार हो जाने पर, न्याय की गुहार लगाती हैं, ऐसी महिलाओं को शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं है। इन लोगों को जेल में अच्छे व्यवहार के लिए ससम्मान रिहा कर दिया गया है।

ठीक इसी तरह रोज़ एक-आध भंडाफोड़ भारत के विश्वगुरु बनने की राह में रोड़ा अटकाने वालों का लगातार हो रहा है। हिमांशु कुमार पर जुर्माना और सजा की तलवार लटका ही दी गई है, किसी भी दिन उन्हे गिरफ्तार करके, आदिवासियों के हक-अधिकार पाने के संघर्ष पर विराम लगा दिया जाएगा। तीस्ता सीतलवाड़ जैसे लोगों को भी गिरफ्तार कर ही लिया गया है, कप्पन अभी भी जेल में हैं, और उन्हे अभी बेल या रिहाई मिलेगी इसकी कोई गुंजाइश नहीं है। और मान लीजिए कि न्याय के तकाजे के तहत उन्हें कभी बेल मिल भी जाती है तो महान भारत भू की पुलिस कम चतुर नहीं है, उन्हे जेल से निकलते ही किसी और मामले में पकड़ कर धर लिया जाएगा और न्याय के मंदिर से पुलिस के कहने पर रिमांड दे देना तो बहुत आसान है।

बाकी बात करनी थी, राजस्थान के एक बच्चे ”इंदर मेघवाल” के बारे में, जिसकी असमय मौत का, ”जिसे हत्या और जातिगत हिंसा बताया जा रहा है” हल्ला मचाने वालों के बारे में….कहानी ये बताई जा रही है कि उस दलित बच्चे ने उच्च जाति वाले मास्टर जी की मटकी से पानी पी लिया। बच्चा था, नादान था, और गलती सरासर मां-बाप की थी, जिन्होने उसे ये तक नहीं सिखाया कि उच्च जाति का पानी छू लेने से जान तक देनी पड़ सकती है। इसमें माफ कीजिएगा, मास्टर का कोई दोष नहीं था। सरस्वती विद्या मंदिर में, बताइए, जिस स्कूल के नाम में ही मंदिर हो, उस स्कूल में उस दलित को पढ़ने पर रोक नहीं है, इससे ज्यादा क्या सामाजिक न्याय चाहिए बे सामाजिक न्याय के नाम पर चीख-पुकार मचाने वालों….। तो खैर, कहानी ये है कि सरस्वती विद्या मंदिर के हेड मास्टर ने अपनी पीने के पानी की मटकी के भ्रष्ट हो जाने से जो क्रोध की ज्वाला थी, उसे उस बच्चे पर उतार दिया, और वो मासूम लेकिन दलित, दलित कार्ड खेलने की खातिर मर गया। ”कहने वाले कहते रहें कि उसकी हत्या की गई” लेकिन असल मामला ये है कि मौत का कोई ठिकाना नहीं, कि कब और कहां आ जाए। ये सब तो ईश्वर की माया है, आप लोग बेकार में हल्ला मचा रहे हो।

तो साहब, मामले की तह में जाने पर पता चला कि मटके वाली ये कहानी ही झूठी है। सिरे से झूठी। बताया जा रहा है कि दो बच्चों की आपस में लड़ाई हुई, अब आप तो जानते हो कि ये नीची जाती के लोग होते ही लड़ाई-झगड़े वाले हैं, और कुछ तो इन्हे आता नहीं, तो स्कूल में जाकर लड़ाई करते हैं। अब हेडमास्टर को अनुशासन कायम करना पड़ता है, तो उसने दोनो बच्चों को मारा, तो एक बच्चे को थोड़ा ज्यादा लग गया, और वो मर गया। अब दुर्भाग्य से वो बच्चा दलित था, लेकिन इसका ये मतलब थोड़े है कि उसकी जाति के नाम पर तुम दलित कार्ड खेलोगे? बाकी मटका तो था ही नहीं कहीं, स्कूल में एक टंकी है, जिससे सभी पानी पीते थे, क्या मास्टर, क्या हैडमास्टर और क्या चपरासी, क्या बड़े बच्चे और क्या छोटे बच्चे, सभी उसी टंकी से पानी पीते थे। एक तरह से रामराज्य आया हुआ था, जहां शेर और बकरी एक घाट से पानी पीते थे। तो जब मटका था ही नहीं, तो उसके भ्रष्ट होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। वो तो हैडमास्टर साहब का भला हो, कि ऐसे में भी मां-बाप को फोन करके माफी मांगी और डेढ़ लाख रुपये में समझौता करने को तैयार थे कि पुलिस में रिपोर्ट ना कराओ तो डेढ़ लाख ले लो, और एक लाख रुपये बच्चे के इलाज के लिए भी ऑफर किए। लेकिन फिर भी इस आरोप में कोई सच्चाई नहीं कि ऐसी कोई घटना हुई है। ये सरासर भारत महान को बदनाम करने की साजिश है। मेरा सुप्रीम कोर्ट से आग्रह है कि इस मामले को उछालने वालों, और सरकार को बदनाम करने की कोशिश करने वालों पर फौरन 5-7 लाख रुपये का जुर्माना लगा दे, उन्हें गिरफ्तार कर ले, ई डी इस मामले में उन पर छापा मार सकती है, उन्हें डिटेन कर सकती है, अब तो उसे इतनी ताकत भी मिल गई है कि वो बिना किसी वजह किसी को भी पकड़ सकती है, अब किस बात का डर और रोकटोक?

मेरा ये मानना है कि ये जो दलित कार्ड खेलने वाली बीमारी है, इसकी वजह से ही मटके की कहानी पैदा की गई, ताकि पूरे देश में मटके की कहानी फैलाई जा सके और पूरी दुनिया में भारत को बदनाम किया जा सके। लेकिन अगर इस की और जांच की जाएगी तो पता चलेगा कि ”सरस्वती विद्या मंदिर” नाम का स्कूल ही नहीं था। जब स्कूल ही नहीं था तो हैडमास्टर का क्या काम, यानी हैडमास्टर भी नहीं था। लेकिन इतने से काम नहीं चलेगा भाइयों, हमें जांच को और नीचे तक ले जाना पड़ेगा, और तब जाकर पता चलेगा कि इंदर मेघवाल नाम का कोई बच्चा नहीं था, चैल सिंह नाम का कोई टीचर नहीं था। जब इंदर मेघवाल नहीं, चैल सिंह मास्टर नहीं, सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल नहीं तो मटका कहां से आ गया? असल में कोई मटका नहीं था। ये मीडिया, जिसमें मैं सुधीर जी, अंजना जी, आदि से अनुरोध करूंगा कि वो इन दलित कार्ड खेलने वालों के मुहं पर इस उपरोक्त सच्चाई वाली रिपोर्ट मारें, ओप इंडिया जैसे पोर्टल को फौरन तामिलनाडू के किसी लेखक की अनुवादित किताब का हवाला देते हुए, दलित कार्ड खेलने की इस छद्म परंपरा का भंडाफोड़ करना चाहिए।

इस पूरी बात का लब्बो-लुबाब ये है कि इन दलित कार्ड खेलने वालों का सारा दारोमदार इस बात पर है कि उस बच्चे की हत्या इसलिए की गई कि उसने उच्च जाति वाले मास्टर के मटके से पानी पी लिया था। लेकिन अब तक पता चल गया है कि ये सब बात झूठ थी, उच्च जातियों को बदनाम करने की साजिष थी, क्योंकि स्कूल में कोई मटका ही नहीं था।

इस मामले में मेरे इस भुक्तभोगी अनुभव का भी सहारा लिया जा सकता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी लाॅ डिपार्टमेंट में अपने नाटक ”उसने कहा था” में भगत सिंह और अम्बेडकर के विचारों से रचा-बसा एक नाटक खेला, नाटक में कहीं हिटलर का जिक्र भी आया, और जाहिर है गैस चैम्बरों का भी जिक्र आया। नुक्कड़ की परंपरा के अनुसार नाटक के बाद दर्शकों को बात करने के लिए आमंत्रित किया गया। और उन दर्शकों में एक बच्चा भी आया, जिसने सीधे आरोप लगाया कि हिटलर और उसके द्वारा यहूदियों के नस्लीय जनसंहार की बातें ना सिर्फ झूठी हैं, बल्कि अमेरिका और कम्यूनिस्टों का प्रोपेगैंडा हैं। उसका कहना था कि जो सबूत दिखाए जा रहे हैं, वो गढ़े हुए हैं, बल्कि कोई सबूत हैं ही नहीं। जब उससे कहा गया कि वो गैस चैम्बर अब भी हैं, जिन लोगों को कैंपों में रखा गया, उनके अपने लिखे हुए अनुभव मौजूद हैं, तो उसने बहुत वजनदार तर्क दिया। उसका कहना था कि किताबें लिखवाई गई हैं, सबूत गढ़े गए हैं, ताकि महान हिटलर को बदनाम किया जा सके। इस तर्क का कोई जवाब किसी के पास हो तो दे।
तो दोस्तों, कुल मिलाकर मामला ये बनता है कि ये एक दलित कार्ड खेलने वालों का षड्यंत्र हैं, क्योंकि मटका नहीं था।