जेल का खेल – जी 7 की सुपर फास्ट मेल



ल्यो जी, इधर छप्पन इंची छाती वाले नेता जी दुनिया भर में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए जी 7 में पहुंचे हुए हैं, अभिव्यक्ति की आज़ादी “ऑनलाइन” और “ऑफलाइन” की सुरक्षा के लिए पूरी दुिनया के नेताओं के साथ खड़े हुए हैं, और दूसरी तरफ खुद हिंदुस्तान में लोकतंत्र समर्थकों ने, मानवाधिकार कार्यकर्ता, तीस्ता सीतलवाड, आर बी सिवकुमार, और उसके बाद मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी को खुद लोकतंत्र पर हमला बताते हुए देशभर में प्रदर्शन शुरु कर दिए। अजीब विडंबना है, एक तरफ मोदी जी कह रहे हैं कि भारत का लोकतंत्र मजबूत है, दूसरी तरफ भारत कह रहा है कि मोदी जी ने लोकतंत्र की ईंट से ईंट बजा रखी है। इन मूरख बुद्धिजीवियों को ये समझ में नहीं आता कि जिस तरह संसद को तोड़कर मोदी जी सैंट्रल विस्टा बना रहे हैं, उसी तरह नए लोकतंत्र के लिए वर्तमान लोकतंत्र को तो ध्वस्त करना ही होगा। अब सीतलवाड या उस जैसे, तथाकथित लोकतंत्र की दुहाई देने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता अगर मोदी जी के रास्ते में अड़ंगा लगाएंगे तो भैया उसकी कीमत तो चुकानी ही ठहरी।
ये लोग जो सीतलवाड और सिवकुमार और ज़ुबैर के समर्थन में और उनकी ग़ैरकानूनी गिरफ्तारी के खिलाफ खड़े हुए, बहुत ही बेकार के लोग हैं। इन्हें असल में पता ही नहीं है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी किसे कहा जाता है। अब बताओ ज़रा नुपुर शर्मा के टी वी पर हालिया बयान से पूरी दुनिया में हंगामा मच गया, राष्ट्रीय प्रवक्ता तक को ऐरा-गैरा नत्थू खैरा कहा गया, लेकिन उसे गिरफ्तार नहीं किया गया, गिरफ्तार तो छोड़िए, उसके बयान की निंदा करने वाला बयान तक नहीं आया, जबकि उसके समर्थन में खड़े आई टी सेल वालों ने बार – बार यही कहा कि ये तो अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामला है, इसमें अगर किसी की भावनाओं को चोट पहुंचती है तो पहुंचती रहे। इसी सरकार ने पूरा दम लगा दिया कि नुपुर शर्मा पर आंच तक ना आए। इससे ज्यादा अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा किसी और देश में मिल सकती है भला? पर सीतलवाड, और सिवकुमार को क्या जरूरत थी ज़किया जाफरी के साथ अपील दायर करने की, कि मोदी के खिलाफ जो एस आई टी जांच हो रही है, वो ठीक नहीं है। अब कोई मोदी जी के खिलाफ बोलेगा तो वो कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। हमारे ज्यादातर मित्र कहते हैं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी एक सीमा तक होती है, उसके बाद वो आज़ादी खत्म हो जाती है। तो यहां उन्हीं मित्रों का द्वारा विचारित कानून चलता है। बल्कि मैं तो कहूं कि इस देश में एक ईशनिंदा कानून की तर्ज़ पे मोदीनिंदा कानून लाया जाना चाहिए। जिसमें ये हो कि अगर कोई मोदी के खिलाफ सोचता है, बोलता है, उसे तो फांसी दे दी जाएगी, लेकिन साथ ही अगर किसी ने ”जी” लगाए बिना मोदी का नाम लिया, उसे देश निकाला दे दिया जाएगा, उसकी संपत्ति कुर्क कर ली जाएगी, या उस पर बुलडोजर चलवा दिया जाएगा। क्या कहा, बुलडोजर अभी भी चल रहा है। चलिए कोई तो काम हो रहा है।
भई ये अभिव्यक्ति की आज़ादी दरअसल उन लोगों के लिए है, जो 
1. सरकार में हों,
2. सरकार के दोस्त हों,
3. सरकार से जिनको काम हों,
4. जिनसे सरकार को कोई राजनीतिक लाभ मिल सकता हो,
5. ब्राहम्ण हों,
6. आर एस एस के किसी पद पर हों
7. बहुत पैसे वाले हों, 
आदि, आदि….
इनके अलावा बाकी जो भी हैं, अगर उन्हें लगता कि अभिव्यक्ति की आज़ादी है ! तो वो ग़लतफहमी का शिकार हैं, पहले तो उन्हें अपनी ग़लतफहमी दूर करनी चाहिए। दूसरे अल्पसंख्यकों के पक्ष में अपने विचार रखने से पहले सोच लें, वो तो मरेंगे, तुम भी साथ जाओगे। वैसे भी अल्पसंख्यक, अपना सामान और सम्मान बचा लें, फिर अभिव्यक्ति जैसे फालतू मामलों पर सोचें। अभी तो यही समझ नहीं आ रहा है कि जिंदा रहने की कौन सी जुगत लगाएं….
बताइए, बात कहां से शुरु हुई थी, कहां पहुंच गई। मामला ये है जनाब कि हाई कोर्ट का मानना है, और उससे भी उपर वाले कोर्ट का भी यही मानना है कि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सिर्फ कुछ लोगों को सुशोभित होती है, हर ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार नहीं दिया जा सकता। ये जो एक अरब छत्तीस करोड़ हैं, (माइनस, सरकार, सरकार के दोस्त-रिश्तेदार, आधे-औने-पौने, नेता-नेतानी), इन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं दी जा सकती, क्योंकि ये उस अधिकार की खूबसूरती को नहीं समझते, जैसे ही आज़ादी मिलती है, सीधे प्रधानमंत्री तक पर आरोप लगाने लगते हैं। कोर्ट क्लीन चिट पर क्लीन चिट थमा रहा है, और ये लोग बाज ही नहीं आते आरोप लगाने से। अब भला बताइए, कि जिस एस आई टी के मुखिया को खुद सरकार अपने खर्चे पर बड़े वाला, महंगा वाला वकील मुहैया करवाए, उसके आने – जाने का हवाई जहाज़ का फर्स्ट क्लास का किराया भरे, उसी एस आई टी पर आप आरोप लगा दें कि उसने ठीक से काम नहीं किया। ऐसे तो आप मान लीजिए, ऐसे जजों पर भी आरोप लगा सकते हैं, जिन्हें सरकारी सरपरस्ती से जजशिप मिले, और आउट ऑफ़ द वे प्रमोशन देकर सुप्रीम जज बना दिया जाए, ऐसे तो उन जजों पर भी आप शंका करने लगेंगे, जो सरकार के पक्ष में इसलिए फैसले दें कि उन्हें राज्य सभा की सीट मिल जाएगी। ये जो अभिव्यक्ति की आजादी से शंका और फिर शंका के विरोध में बड़े लोगों के खिलाफ बोलने और आरोप लगाने का चलन है, ये अभिव्यक्ति की आज़ादी की खूबसूरती को मार देता है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब है, कि आप बसंत में फूल का बहार का, बरसात में फुहार का, और सर्दी में प्यार का इज़हार करें…..इसमें से आखिरी वाला काट दें, प्यार की अभिव्यक्ति भी संस्कृति और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहंचा सकती हैं। खैर मामला कुल मिलाकर ये है कि तीस्ता सीतलवाड जैसे लोग जो अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ये समझ लेते हैं कि वो प्रधानमंत्री जैसे पदों पर बैठे लोगों पर कोई आरोप लगा सकते हैं, जिनकी वजह से लोकतंत्र में दिखावे के लिए कई दिनों तक सबको दिखावे के लिए ही सही, परेशान होना पड़ता है, ऐसी परेशानी की सज़ा यही हो सकती है कि उन्हें फौरन गिरफ्तार किया जाए ओर फिर उनके खिलाफ एस आई टी गठित की जाए। खैर साहब, मैं एस आई टी के समर्थन में हूं, और गिरफ्तारी के भी…..देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए ऐसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को, अफवाहों और सच के बीच फर्क बताने वालों को, और सच बोलने, समझने, सोचने और समझाने जैसे खतरनाक काम करने वालों को फौरन, फौरन से पेश्तर जेल भेज दिया जाना चाहिए, और जो भी कड़ी से कड़ी सज़ा है उन्हें मिलनी चाहिए। बताइए बेकार अदालत का कीमती समय ज़ाया किया….
इसी माहौल पर ग़ालिब ने बहुत बढ़िया एक शेर कहा है, कहना वो पूरी नज्म चाहते थे, लेकिन चाय पीते हुए ज़बान जल गई थी, और नाराज़ होकर उन्होंने गज़ल के एक ही शेर पर तौबा कर ली….
उनके कहने से जो कज़ा आती है
वो कहते क्यूं हैं कुछ भी कहने वाले
व्यक्तिगत नोट: ये वाले ग़ालिब चाय बहुत पीते थे सुना….