रवीश ने हार्वर्ड में कहा कि ‘जाति-गौरव’ संविधान से धोखा है! आरक्षण के जवाब पर बजी ताली!

कल हमने मशहूर टीवी पत्रकार रवीश कुमार का हार्वर्ड युनिवर्सिटी में दिए गए भाषण का वह हिस्सा लिखित रूप में पेश किया था जिसका रिश्ता मूल रूप से भारत में मीडिया की स्थिति से था। आज पढ़िए, वह हिस्सा जिसका संबंध भारत की सामाजिक बनावट और जाति गौरव के प्रतीकों को मिल रही नवमान्यता से है जो भारत के संविधान और स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान विकसित हुए मूल्यो को बेमानी बताता है। इस भाषण के अंत में एक वीडियो क्लिप है जिसके पाँचवें मिनट पर रवीश आरक्षण को लेकर पूछे एक एक सवाल का जवाब देते हैं। ऐसा लगता है कि यह सवाल पूछा तो गया था रवीश को घेरने के लिए लेकिन जवाब पर तालियाँ बज उठीं। पढ़िए और देखिए–संपादक


हार्वर्ड में रवीश-2


इस समय भारत में दो तरह के पोलिटिकल आइडेंटिटी हैं. एक जो धार्मिक आक्रामकता से लैस है और दूसरा तो धार्मिक आत्मविश्वास खो चुका है. एक डराने वाला है और डरा हुआ है. यह असंतुलन आने वाले समय में हमारे सामने कई चुनौतियां लाने वाला हैं जिन्हें हम ख़ूब पहचानते हैं. हमने इसके नतीजे देखे हैं, भुगते भी हैं. अलग-अलग समय पर अलग-अलग समुदायों ने भुगते हैं. हमारी स्मृतियों से पुराने ज़ख़्म मिटते भी नहीं कि हम नए ज़ख़्म ले आते हैं.
जैसे हिन्दुस्तान एक टू इन वन देश है. जिसे हमारी सरकारी ज़ुबान में इंडिया और भारत के रूप में पहचान मिल चुकी है. उसी तरह हमारी पहचान धर्म और जाति के टू इन वन पर आधारित है. आप इन जाति संगठनों की तरफ से भारत को देखिए, आप उसका चेहरा सबके सामने देख नहीं पाएंगे. आप जाति का चेहरा चुपके से घर जाकर देखते हैं. हमने जाति को ख़त्म नहीं किया. हमने आज़ाद भारत में नई नई CAST COLONIES बनाई हैं. ये CAST COLONIES CONCRETE की हैं. इसके मुखिया उस आधुनिक भारत में पैदा हुए लोग हैं. पूछिए खुद से कि आज क्यों समाज में ये जाति कोलोनी बन रही हैं.आज का मतलब 2018 नहीं और न ही 2014 है. हम भारत का गौरव करते हैं, धर्म का गौरव करते हैं, जाति का गौरव करते हैं. हम अपने भीतर हर तरह की क्रूरता को बचाते रहना चाहते हैं. क्या जाति वाकई गौरव करने की चीज़ है? इस सवाल का जवाब अगर हां है तो हम संविधान के साथ धोखा कर रहे हैं, अपने राष्ट्रीय आंदोलन की भावना के साथ धोखा कर रहे हैं. टीम इंडिया का राजनीतिक स्लोगन कास्ट इंडिया, रीलीजन इंडिया में बदल चुका है.आंध्र प्रदेश में ब्राह्मण जाति की एक कोऑपरेटिव सोसायटी बनी है. इसका मिशन है ब्राह्मणों की विरासत को दोबारा से जीवित करना और उसे आगे बढ़ाना. ब्राह्मणों की विरासत क्या है, राजपूतों की विरासत क्या है? तो फिर दलितों की विरासत भीमा कोरेगांव से क्या दिक्कत है? फिर मुग़लों की विरासत से क्या दिक्कत है जहां इज़राइल के राष्ट्र प्रमुख भी अपनी पत्नी के साथ दो पल गुज़ारना चाहते हैं. आप इस सोसायटी की वेबसाइट http://www.apbrahmincoop.com पर जाइये. मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू इसकी पत्रिका लांच कर रहे हैं क्योंकि इस सोसायटी का मुखिया उनकी पार्टी का सदस्य है.

इस सोसायटी के लक्ष्य वहीं हैं जो एक सरकार के होने चाहिए. जो हमारी आर्थिक नीतियों के होने चाहिए. क्या हमारी नीतियां इस कदर फेल रही हैं कि अब हम अपनी अपनी जातियों का कोपरेटिव बनाने लगे हैं. इसका लक्ष्य है ग़रीब ब्राह्मण जातियों का सेल्फ हेल्फ ग्रुप बनाना, उन्हें बिजनेस करने, गाड़ी खरीदने का लोन देना. इसके सदस्य सिर्फ ब्राह्मण समुदाय से हो सकते हैं. आईएएस हैं, पेशेवर लोग हैं. इसके चेयमैन आनंद सूर्या भी ब्राह्मण हैं. अपना परिचय में खुद को ट्रेड यूनियन नेता और बिजनेसमैन लिखते हैं. दुनिया में बिजनैस मैन शायद ही ट्रेड यूनियन नेता बनते हैं. वे बीजेपी, भारतीय मज़दूर संघ, जनता दल, समाजवादी जनता पार्टी, जनता दल सेकुलर में रह चुके हैं. जहां उन्होंने सीखा है कि ब्राह्मण समुदाय को नैतिक और राजनीतिक समर्थन कैसे देना है. हमें पता ही नहीं था समाजवादी पार्टी में लोग ये सब भी सीखते हैं. 2003 से वे टीडीपी में हैं.

यह अकेला ऐसा संस्थान नहीं है. विदेशों में भी और भारत में भी ऐसे अनेक जातिगत संगठन कायम हैं. इनके अध्यक्षों की राजनीतिक हैसियत किसी नेता से अधिक है. इस स्पेस के बाहर बिना इस तरह की पहचान के लिए नेता बनना असंभव है. बंगलुरू में तो 2013 में सिर्फ ब्राह्मणों के लिए वैदिक सोसायटी बननी शुरू हो गई थी. सोचिए एक टाउनशिप है सिर्फ ब्राह्मणों का. ये एक्सक्लूज़न हमें कहां ले जाएगा, क्या यह एक तरह का घेटो नहीं है. 2700 घर ब्राहमणों के अलग से होंगे. ये तो फिर से गांवों वाला सिस्टम हो जाएगा. ब्राह्मणों का अलग से. क्या यह घेटो नहीं है?

आज़ाद भारत में यह क्यों हुआ ? अस्सी के दशक में जब हाउसिंग सोसायटी का विस्तार हुआ तो उसे जाति और खास पेशे के आधार पर बसाया गया. दिल्ली में पटपड़गंज है, वहां पर जाति, पेशा, इलाका और राज्य के हिसाब से कई हाउसिंग सोसायटी आपको मिलेगी. तो फिर हम संविधान के आधार पर भारतीय कैसे बन रहे थे. क्या बिना जाति के समर्थन के हम भारतीय नहीं हो सकते.

जयपुर के विद्यानगर में जातियों के अलग अलग हॉस्टल बने हैं. श्री राजपूत सभा ने अपनी जाति के लड़कों के लिए हॉस्टल बनाए हैं. लड़कियों के भी हैं. यादवों के भी अलग हॉस्टल हैं. मीणा जाति के भी अलग छात्रावास हैं. ब्राह्मण जाति के भी अलग हॉस्टल हैं. अब आप बतायें, इन हॉस्टल से निकल जो भी आगे जाएगा वो अपने भीतर किसकी पहचान को आगे रखेगा. क्या उसकी पहचान का संविधान आधारित भारतीयता से टकराव नहीं होगा? खटिक छात्रावस भी है जो सरकार ने बनाए हैं. क्यों राज्य सरकारों को दलितों के लिए अलग से हॉस्टल बनाने की ज़रूरत पड़ी? क्या हमारी जातियों के ऊंचे तबके ने संविधान के आधार पर भारत को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, क्या वह संविधान आधारित नागरिकता को पसंद नहीं करता है? क्या जातियों को कोई ऐसा समूह है जो धर्म के सहारे अपना वर्चस्व फिर से हासिल करना चाहता है? क्या कोई ऐसा भी समूह है जो अब पहले से कई गुना ज़्यादा ताकत से इस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है?

भारत की राजनीति की तरह मीडिया भी इन्हीं कास्ट कॉलोनी से आता है. उसके संपादक भी इसी कास्ट कालोनी से आते हैं. उन्हें पब्लिक में जाति की पहचान ठीक नहीं लगती मगर उन्हें धर्म की पहचान ठीक लगती है. इसलिए वे धर्म की पहचान के ज़रिए जाति की पहचान ठेल रहे हैं. यह काम वही कर सकता है जो लोकतंत्र में यकीन नहीं रखता हो क्योंकि जाति लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया में सब कुछ ठीक नहीं है. पोज़िटिव यही है कि लोकतंत्र के ख़िलाफ़ यह पूरी आज़ादी से बोल रहा है. भाईचारे के ख़िलाफ़ पूरी आज़ादी से बोल रहा है. हमारी गर्वनमेंट ऑफ मीडिया आज़ाद है. पहले से कहीं आज़ाद है. इसी पोज़िटिव नोट पर मैं अपना भाषण समाप्त कर रहा हूं.

https://youtu.be/UQ5Ad6Qzd2c



First Published on:
Exit mobile version