बर्फ़ की तह में : महिलाओं के सर्द प्रतिरोध को कब दर्ज करेगा जलते हुए कश्‍मीर का इतिहास?


मुझे खुर्शीद की बात याद आ रही थी- जब घर में कोई मर्द बचा ही नहीं तो हमारी बेटियां हथियार नहीं उठाएंगी तो क्या करेंगी?


रोहिण कुमार
कश्मीर Published On :

स्‍त्री-प्रतिरोध का एक अदद पत्‍थर, फोटो: जुनैद भट्ट


खुर्शीद ने घाटी में महिलाओं से संबंधित एक महत्वपूर्ण बात बताई थी. यह कि महिलाएं और स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियां भी सेना पर पत्थर फेंकती हैं. और, कुछ किस्से ऐसे भी हैं जहां महिलाओं ने हथियार उठाए हैं.

रात के दस बजे नोहट्टा की सड़कें सुनसान हो चुकी थीं, इसका अंदाज़ा हमें था. सलमान ने मुझे सुरक्षाबलों के नाकों से संबंधित कुछ जरूरी हिदायतें दीं. सबसे जरूरी हिदायत यह कि किसी भी स्थिति में हमें यह नहीं बताना है कि हम किससे मिलकर लौट रहे हैं. जरूरत पड़ने पर ही हमें अपने रिपोर्टर होने का जिक्र करना था.

इत्तेफ़ाक से जामिया मस्जिद के पास ही ऑटो मिल गया. ऑटो वाले यूसुफ़ मुझे ज़ीरो ब्रिज़ स्थित होटल छोड़ने को राज़ी हो गए. सलमान मुझे ऑटो में बिठाकर वापस चले गए. अमूमन यह यूसुफ़ के ऑटो चलाने का समय नहीं था. चूंकि उनका घर जीरो ब्रिज़ के पास ही था और उन्होंने मुझे अकेला टूरिस्ट समझा, तो वह हमें छोड़ने को तैयार हो गए. रास्ते में हमें कोई नाका नहीं मिला.

होटल पहुंचकर मैंने सलमान को सूचित किया. गुड नाइट टेक्स्‍ट के साथ संदेश भेजा कि मैं कुछ ऐसी महिलाओं  से मिलना चाहता हूं जो पत्थरबाजी में शामिल रही हों. जवाब में सलमान ने मुझे सिर्फ़ ‘ओके’ लिखकर भेजा. मंगलवार दोपहर सलमान से मिलकर तय हुआ कि बुधवार को वह हमें दक्षिण कश्मीर के कुछ हिस्सों में ले जाएंगे.

मैं उनसे पूछता रहा कि दक्षिण कश्मीर के किन जिलों में हमें जाना है, पर उन्होंने जिलों का नाम नहीं बताया. “वह कल सुबह देखेंगे, कहां जा सकते हैं”, ऐसा महसूस हुआ जैसे सुरक्षा कारणों से घाटी का हर व्यक्ति सशंकित रहता है. वह सच बोलने के सिवा झूठ बोलने को तैयार रहता है. यहां सौ फीसदी सच बोलना अत्याचार को बुलावा देना हो सकता है. सुरक्षाबलों से झूठ बोलना और अपनी योजना का न पता चलने देना भी एक तरह का प्रतिरोध ही है.

जनमत संग्रह की मांग करती महिलाओं का विरोध मार्च, फोटो: जुनैद भट्ट

बुधवार की सुबह आठ बजे सलमान मेरे होटल आए और हम दोनों श्रीनगर के स्थानीय टैक्सी अड्डे के लिए निकले. यहां सारी बड़ी एसयूवी इनोवा, स्कॉरपियो जैसी  गाड़ियां ही लगी थीं. शोपियां जाने वाली एक ऐसी ही गाड़ी में हम बैठ गए. बताया गया कि शोपियां की श्रीनगर से दूरी करीब साठ किलोमीटर है. सलमान ने गाड़ी में मुझे फिर से दोहराया, “मीडिया से हो, जहां तक संभव हो मत जाहिर होने देना.”  सुबह का वक्त होने के कारण रास्ते में हमें सेना का एक भी नाका नहीं मिला. सलमान ने हंसते हुए कहा, “आज तो हम काफी लकी निकले.”

सवा नौ के आसपास हम शोपियां पहुंचे. टैक्सी अड्डे के पास हमने कहवा पी. यहां सलमान के एक फोटोग्राफर मित्र आदिल (बदला हुआ नाम) हमें रिसीव करने आए थे. सलमान के अनुसार, आदिल शोपियां के सबसे अनुभवी फोटोजर्नलिस्ट रहे हैं. उनकी मारुति 800 से हम शोपियां के गांवों की तरफ निकल गए.

शोपियां टैक्सी अड्डे से ठीक बीस मिनट का रास्ता था, जहां हमारी गाड़ी पहली दफा रुकी. यह एक खूबसूरत दोमंजिला घर था. सलमान ने मेन गेट खोला. गेट खुलने की आवाज़ सुनकर एक महिला घर के दरवाज़े से बाहर निकली. उन्होंने हमारा अभिवादन किया और जूते बाहर उतारकर हम घर में दाखिल हुए. समूचे फर्श पर मखमली कालीन बिछी थी. हम तीनों को गर्माहट के लिए एक-एक कंबल और कांगड़ी दी गई. हम कंबलों में घुसकर कांगड़ी में हाथ सेंकने लगे. यहां कई और महिलाएं पहले से उपस्थित थीं, जैसे हमारे यहां आने की पूर्व सूचना इन्हें रही हो.

नक्काशीदार ट्रे और प्लेट में नून चाय, बिस्कुट और नमकीन के दो आइटम हमारी खातिरदारी में पेश किए गए. अब कमरे में कुल नौ लोग थे. तीन मर्द और छह महिलाएं. बातचीत की शुरुआत ‘सफ़र कैसा रहा’ जैसे किसी सवाल से अपेक्षित थी लेकिन महिला ने सलमान से कश्मीरी में पूछा, “कितने नाके पार कर के पहुंचे?”. यह महिला, उज़्मा डार (बदला हुआ नाम) जम्मू कश्मीर स्टेट एजुकेशन बोर्ड में अधिकारी हैं. सलमान के जवाब, ‘एक भी नहीं’ पर उज़्मा ने उन्हें ‘बड़ा नसीबवाला’ बताया.

दो दिन पहले शोपियां में जैश-ए-मोहम्मद के दो मिलिटेंट्स की सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में हुई मौत से आदिल ने बातचीत शुरू की. मेरी शब्दावली में यह मौत थी, बाकी के लिए वे ‘शहीद’ थे. “हां, मैं गई थी साइट पर. यह पेलेट उसी दिन लगा”, आलिया (बदला हुआ नाम) ने अपनी बाईं हथेली पर पेलेट का निशान  दिखाते हुए कहा. आलिया, 19 वर्ष की मेडिकल स्टूडेंट हैं. उनके पिता को कॉर्डन एंड सर्च ऑपरेशन (कासो) में सुरक्षाबलों ने गिरफ्तार किया था. पिछले दो साल से वे जेल में ही बंद हैं. सुरक्षाबलों के अनुसार, “आलिया के पिता मिलिटेंट्स के लिए इनफॉर्मर का काम करते थे.” परिवार सुरक्षाबलों के आरोपों को सिरे से खारिज करता है.

सोपोर में दीवार पर लिखा संदेश, फोटो: जुनैद भट्ट

“आप मुठभेड़ की साइट पर क्यों गईं थीं”, मैंने जानबूझकर यह सवाल आलिया से पूछा. “हमारे भाई मुश्किल में फंसेंगे तो हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे तो नहीं रहेंगे”, कहते हुए आलिया के चेहरे पर एक किस्म की सख़्ती आ गई, “आखिर वह हमारी आज़ादी के लिए शहादत को गले लगा रहे हैं.” भाई सुनकर मैं थोड़ा चौंका, “भाई?” आदिल ने हस्तक्षेप किया, “उनका मतलब सगे भाई से नहीं है. यहां भाई कहकर ही संबोधित करते हैं.”

आलिया ने बताया कि वह पिछले तीन महीने से पत्थरबाज़ी में शामिल रही हैं और उन्हें इसका कोई अफ़सोस नहीं है. उनके दाईं ओर बैठीं शेहर (बदला हुआ नाम) पूछती हैं, “महिलाओं का पत्थर फेंकना हैरत की बात क्यों है? सेना का बर्ताव हमारे साथ अच्छा होता है और मर्दों के साथ बुरा, ऐसा तो कतई नहीं है.”

उज़्मा के मुताबिक, बुरहान वानी की ‘हत्या’ के बाद महिलाएं पत्थरबाज़ी में सक्रिय हो रही हैं. जुलाई 2016 के बाद से घाटी कभी शांत रही ही नहीं.

मीडिया रिपोर्टों के हवाले से मुझे यह जानकारी थी कि 15 अप्रैल 2017 को पुलवामा डिग्री कॉलेज के बाहर सुरक्षाबलों द्वारा चेक प्वाइंट बनाने का विरोध वह पहला वाकया था जब छात्राओं ने पत्थरबाज़ी में सक्रियता से हिस्सा लिया था. सुरक्षाबल पुलवामा के डिग्री कॉलेज में घुस आए थे. कॉलेज परिसर में आंसू गैस के गोले और पेलेट दागे गए थे. इन विरोध प्रदर्शनों में सौ से ज्यादा छात्र-छात्राएं घायल हुए थे. पुलवामा का यह प्रदर्शन जल्द ही पूरी घाटी में फैल गया था.

उज़्मा ने मेरी जानकारी दुरुस्त करवाई. वे कहती हैं, “यह मीडिया की बनाई छवि है. आजतक, जो भारत का हिंदी चैनल है, उसने पत्थर चलाती बच्चियों को इस्लामिक कट्टरपंथी बताते हुए फुटेज चलाया था. ज़ी न्यूज़ ने तो जैसे कश्मीरि‍यों के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया था. वह चैनल डिग्री कॉलेज की लड़कियों को महिला आतंकी बता रहा था. इसी तरह से अन्य मीडिया चैनलों ने भी पत्‍थर फेंकती महिलाओं को किसी विशिष्ट घटना की तरह बताते हुए पेश किया था.”

इंशा (बदला हुआ नाम), 23 वर्ष, उज़्मा की बात में अपनी राय जोड़ती हैं, “चलो मान लो पत्‍थर फेंकती महिलाएं आपके टीवी के लिए मसाला थीं, लेकिन हम कश्मीरियों का दुर्भाग्य देखो कि मसाले के बावजूद टीवी पर आफ्सपा और सेना के अत्याचार पर बहस शुरू नहीं हुई.”

उज़्मा के अनुसार कश्मीरी महिलाएं अपने-अपने तरीकों से प्रतिरोध करती रही हैं. “पुलवामा की घटना ने डिग्री कॉलेज की लड़कियों को पत्थर फेंकने के लिए उकसाया होगा लेकिन घाटी में ये जख़्म बहुत पुराने हैं,” उन्होंने कहा, “अबतक महिलाएं सिर्फ इंफोर्मर की भूमिका में थीं, अब वे हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी ले  रही हैं.”

लगभग उज़्मा की हमउम्र उनकी मौसेरी बहन निख्ख़त (बदला हुआ नाम) दुखतरण-ए-मिल्लत नाम के अलगाववादी संगठन से पूर्व में जुड़ी रही हैं. नब्बे के दौर में यह संगठन काफी सक्रिय था. उसी दौरान निख्ख़त को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी गई थी. वह उस समय को याद करते हुए बताती हैं, “आप बताओ, भारत ने कश्मीर में फौज़ भर दी है. इतनी फौज के बावजूद बॉर्डर पार से कैसे लोग घुस आते हैं? हथियार कहां से आते हैं?” निख़्खत सुरक्षाबलों पर सवाल उठा रही थीं. उज़्मा निख़्खत को टोककर एक किस्सा सुनाने की इच्छा जताती हैं. शायद उज़्मा नहीं चाहती थी कि कहते-कहते निख्ख़त कुछ और भी कह जाएं जो एक ‘भारतीय’ के सामने नहीं कहा जाना चाहिए.

यह किस्सा है कश्मीरी महिलाओं के प्रतिरोध का. यह मेरी समझ को समृद्ध करने का मौका था. यह किस्सा 1964 का है, जब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु हुई. उज़्मा बताती हैं, “1964 में नेहरू की मृत्यु हुई थी. मेरी बड़ी बहन कॉलेज में थी. स्कूल के मंच से कहा गया कि ‘हमारे प्यारे चाचा नेहरू’ का निधन हुआ है और सभी छात्राओं को शोकसभा के लिए सभागार में पहुंचना है. छात्राओं की राजनीतिक चेतना का विकास इस कदर था कि सभी छात्राओं ने एकमत से शोकसभा का बहिष्कार कर दिया.”

कमरे में बैठी महिलाएं अपने-अपने हिस्से के  संघर्ष का दावा जरूर करती रहीं लेकिन सच यह है कि कश्मीर को महिलाओं के नज़रिये से कम देखा और डॉक्यूमेंट किया गया है. लेखिका एलिसन बेकर अपनी किताब ‘’वॉएसेज़ ऑफ रेसिस्टेंस: ओरल हिस्ट्रीज़ ऑफ मोरक्कन वि‍मन’’ में विद्रोह प्रभावित क्षेत्रों के संबंध में लिखती हैं, “पुरुषों द्वारा बताई गईं आपबीतियां बयान कहे जाते हैं. उनका दस्‍तवेजीकरण किया जाता है. महिलाओं की आपबीतियां सहानुभूति के किस्से बनती हैं. उन्हें शायद ही दस्तावेज के रूप में पेश किया जाता है”.

सुरक्षाबलों को स्कूल में घुसने से रोकती छात्राएं, फोटो: जुनैद भट्ट

यहां यह बताना जरूरी है कि महिलाएं भले ही सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकने को अपने संघर्ष का हिस्सा मानती हों, लेकिन मिलिटेंट्स इसकी अनुमति नहीं देते. हिजबुल मुजाहिदीन ने यह ऑडियो रिकॉर्डेड संदेश देकर महिलाओं से अपील की थी कि वे सड़कों पर न निकलें, “अभी उनके भाई जिंदा हैं और लड़ने के काबिल हैं”.    

इंशा इस तरह की अपील को पितृसत्तात्मक मानती हैं. उनके अनुसार, कश्मीरी महिलाओं को कश्मीरियों के सम्मान का विषय मान लिया गया है. यह महिलाओं के लिए बड़ी चुनौती है क्योंकि सुरक्षाबल भी कश्मीरी महिलाओं के साथ बदसलूकी यही सोचकर करते हैं कि वे पूरी कौम के भीतर भय का संचार कर कहे हैं. दूसरी तरफ, मिलिटेंट भी हमें कश्मीरियों के सम्मान से जोड़कर देखते हैं और घर में रहने की सलाह देते हैं. “कश्मीरी महिलाओं की आजादी की लड़ाई अपने घरों से लेकर बाहर तक की है,” इंशा ने कहा.

जम्मू कश्मीर पुलिस के एक अधिकारी ने महिलाओं के पत्थर फेंकने और हथियार उठाने के सवाल पर बताया, “हमें कई बार सूचना मिलती है कि मिलिटेंट्स हथियारों की सप्लाई में महिलाओं का इस्तेमाल करते हैं. ये ओवरग्राउंड वर्कर्स के रूप में काम करती हैं. जहां सूचना मिलती है, हम कार्रवाई करते हैं.”

आदिल चाहते थे कि शोपियां के अलावा दूसरे जगहों की महिलाओं से भी हमारी मुलाकात हो सके. इसलिए उन्होंने वहां से निकलने की अनुमति मांगी. अब हमें यहां से अनंतनाग निकलना था. उज़्मा को किसी काम से अनंतनाग जाना था, तो वह भी हमारे साथ निकल पड़ीं. घंटे भर से कम समय में हम अनंतनाग पहुंच गए.

रास्ते में उज्मा ने बताया कि महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार बाहर नहीं आ पाते क्योंकि सुरक्षाबलों को राज्य की ओर से बेतहाशा शह मिली हुई है. “न्याय कैसे मिलेगा? सुरक्षाबलों को कोर्ट अगर सजा भी देना चाहे तो सजा देने के लिए उसे एक्जिक्यूटिव ऑडर मिलने चाहिए. और ये ऑडर कभी नहीं मिलते”, उज्मा ने बताया.

फरवरी, 1991 के कुनान पोशपोरा कांड का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि सुरक्षाबलों ने सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया लेकिन उस केस में आज तक एक भी सुरक्षाकर्मी को सज़ा नहीं हुई है. सरकारी रिपोर्टों ने केस को खारिज करने की हरसंभव कोशिश की. 2011 में काफी मशक्कत के बाद स्टेट ह्यूमन राइट कमिशन की पहल के बाद केस दोबारा खोला गया. जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट में न्याय की गुहार लगाते हुए जनहित याचिका दायर की गई. अब भी यह केस किसी ठोस मुकाम पर नहीं पहुंच सका है.

अनंतनाग बाज़ार में हमारी मुलाकात राबिया (बदला हुआ नाम) से हुई. राबिया के पिता की 2001 में पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी. तब वे सिर्फ चार साल की थीं. फिर 2014 में उनका बड़ा भाई लापता हो गया. उनकी मां बेटे के गायब होने का सदमा न झेल सकी और उसी वर्ष दिसंबर में मां का देहांत हो गया. अब घर में बची हैं सिर्फ राबिया और उनका छोटा भाई.

“मेरा भाई हर दूसरे दिन मिलिटेंसी ज्वाइन करने की बात कहता है. मैं उसे बस यही समझाती हूं कि अगर वह भी नहीं रहा, फिर मेरी मेहंदी कौन करेगा. मुझे पता है, यह बहाने मैं सिर्फ उसे रोकनी के लिए करती हूं,” कहते हुए राबिया रोने लगती हैं, “हमने कौन सा गुनाह किया है? हमें भी मार दो या  हम ‘उन्हें’ मारकर मर जाते हैं.”

मुझे यहां खुर्शीद की बात याद आने लगी जब उन्होंने कहा था- घर में कोई मर्द बचा ही नहीं तो हमारी बेटियां हथियार नहीं उठाएंगी तो क्या करेंगी?

राबिया से कुछ भी पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. राबिया को अपने सीने से लगाकर उज़्मा चुप करवा रही थीं. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि सवाल पूछने के अलावा माहौल को हल्का करने के लिए और क्या कहा जा सकता है. सलमान उठकर पास के ठेले पर गए और वहां से सूखे सिंघाड़े ले आए. काले नमक के साथ सिंघाड़े जीभ पर स्वादिष्ट लगे लेकिन गमगीन माहौल ज़ायके  पर भारी पड़ रहा था. राबिया ने खुद को संभाला और किसी तरह बातचीत बर्फबारी में सेब के बगान को हुए नुकसान की ओर मुड़ गई.

दोपहर के दो बज रहे थे. लंच का वक्त हो चला था. आदिल हमें अनंतनाग के सबसे पुराने इस्लामी होटल में ले जाने को तैयार हुए. बाज़ार से होटल की दूरी लगभग चार सौ मीटर रही होगी. हमने पैदल चलने का ही निश्चय किया. हम सड़क किनारे बातचीत करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि हल्के धमाके जैसी कुछ आवाज़ सुनाई पड़ी. सड़क की दूसरी तरफ़ लोहे का एक बोर्ड था जिस पर ‘जम्मू- कश्मीर पुलिस’ लिखा था। आवाज़ उसी बोर्ड पर पत्थर लगने से आई थी जिसे राबिया ने चलाया था।

(रोहिण Newslaundry में काम कर चुके हैं. कई वेबसाइटों के लिए स्वतंत्र लेखन और फिलहाल फ्रीलांस)

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बर्फ़ की तह में : डाउनटाउन श्रीनगर में 27 बरस से रिसता एक ज़ख्‍म


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