मोदी सरकार द्वारा कोरोनाकाल में सफाई कर्मचारियों के लिए 50 लाख रुपए का बीमा निश्चित रूप से एक अच्छा निर्णय है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इस दौरान अगर किसी कर्मचारी की कोरोना वायरस से मृत्यु होती है, तो बीमा की यह राशि उसके परिवार के लिए अवश्य ही एक सुरक्षा कवच होगा।
यह बीमा सरकार के साथ कदमताल करने वाले वाल्मीकी नेताओं के प्रचार के लिए एक आत्ममुग्ध कर देने वाली उपलब्धि हो सकती है।
* क्या इससे सफाई कर्मचारियों की वास्तविक समस्याएं भी हल हो जाएंगी? या यह उनकी वास्तविक समस्याओं पर से ध्यान हटाने के लिए भी ढाल का काम करेगा?
* सफाई कर्मचारियों की समस्याएं क्या हैं, इसे असलियत में तो सफाई कर्मचारी ही जानते हैं या वे लोग जानते हैं, जो उनके साथ सम्बन्ध रखते हैं। इसके सिवा कोई नहीं जानता; दुत्कारे वे सब जगह जाते हैं, वहाँ भी, जहाँ पिछले दिनों थालियां बजाई गई हैं, पर वे उनकी समस्याएं नहीं जानते, यह उनकी संवेदनहीनता न भी हो, पर अनभिज्ञता शतप्रतिशत है। सफाई कर्मचारियों की समस्याएं देश की संसद भी नहीं जानती, क्योंकि जहाँ तक मुझे मालूम है, 1996 से राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की वार्षिक रिपोर्ट सदन के पटल पर नहीं रखी गई है। इसका क्या कारण है? क्या आयोग ने कोई काम नहीं किया, या उसे रिपोर्ट रखने नहीं दी गई? इसका जवाब कौन देगा? सरकार के साथ कदमताल करने वाले वाल्मीकी नेताओं ने क्या यह प्रश्न सरकार से पूछा? अगर आयोग की रिपोर्ट सदन में रखी गई होती, तो उस पर चर्चा होती, और पूरी संसद सफाई कर्मचारियों की समस्याओं से परिचित होती। आज भी ये नेता आयोग की रिपोर्ट को सदन में रखे जाने की मांग कर सकते हैं। उन्हें यह मांग भी करनी चाहिए कि संसद का एक विशेष सत्र सफाई कर्मचारियों की समस्याओं पर चर्चा के लिए रखा जाना चाहिए, ताकि पूरे देश को पता तो चले कि उनकी समस्याएं क्या हैं?
* अधिकांश सफाई कर्मचारी नगरपालिकाओं और नगर निगमों में कार्यरत हैं। शुरुआत में उनकी नियुक्तियाँ पूर्ण वेतनमान पर उन सभी सुविधाओं के साथ होती थीं, जो सभी सरकार कर्मचारियों को देय हैं। बाद में सरकार ने यह व्यवस्था खत्म करके संविदा पर नियुक्तियाँ करने की व्यवस्था लागू कर दी, जिसके अंतर्गत उन्हें मात्र 4000 रुपए, (बिना किसी अतिरिक्त सुविधा के) मासिक वेतन पर रखा गया। यह सरकारी स्तर पर सफाई कर्मचारियों का भयानक शोषण था। उत्तरप्रदेश में इस शोषण के विरुद्ध व्यापक आंदोलन हुए, जिसके फलस्वरूप समाजवादी सरकार ने इसे बढ़ा कर 18000 रुपए कर दिए थे। यह रक़म भी पर्याप्त नहीं थी, पर 2018 में सरकार ने संविदा प्रणाली को भी समाप्त कर दिया, और सफाई कर्मचारियों की नियुक्तियां आउट सोर्सिंग अर्थात ठेकेदारों द्वारा कराने के आदेश जारी कर दिए। हालांकि पहले से नियुक्त संविदा कर्मी अभी भी कार्य कर रहे हैं, पर बहुत बड़ी संख्या अब उन कर्मचारियों की है, जिन्हें ठेकेदारों के मार्फ़त रखा गया है। उनको वेतन ठेकेदार देता है। मेरे जनपद में जहां तक मुझे मालूम है, उन्हें 4000 से 7000 रुपए तक ठेकेदार देता है, जबकि नगरपालिका उसे प्रति कर्मचारी 10,000 रुपए का भुगतान करती है। मतलब यह कि नियमानुसार जिस कर्मचारी को 30 हजार रुपए मासिक पर रखा जाना चाहिए, उसे मात्र चार से सात हजार रुपये देकर सफाई का काम कराया जा रहा है। इससे प्रति कर्मचारी 20 हजार सरकार को और 3 हजार रुपए प्रति कर्मचारी ठेकेदार को लाभ हो रहा है। साथ ही कोई अतिरिक्त सुविधा भी इन कर्मचारियों को देनी नहीं पड़ रही है। क्या यह भयानक शोषण नहीं है? क्या इनकी मृत्यु पर कोई बीमा सरकार ने दिया है? क्या कोई कर्मचारी चार या सात हजार रुपए में, और 18 हजार रुपए पाने वाला संविदा कर्मी भी, अपने परिवार का ठीक से भरण पोषण कर सकता है? क्या वह अपने बच्चों को पढ़ा सकता है? क्या बीमार पड़ने पर इलाज करा सकता है? इसमें भी विद्रूप यह है कि इन्हें कई-कई महीने तक तनख्वाह नहीं मिलती है, जिससे ये सूदखोरों का आसन शिकार बन जाते हैं, जो अधिकांश वाल्मीकी समुदाय के ही होते हैं। यह चौंकाने वाली बात नहीं है, क्योंकि शोषक लोग हर जाति और वर्ग में होते हैं। इन सवालों को लेकर कौन आंदोलन कर रहा है? सरकार के साथ कदमताल करने वाले कितने वाल्मीकी नेता इस क्रूर ठेका प्रथा को खत्म कराने और उन्हें पूर्ण वेतनमान देने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं? मैं समझता हूँ, कोई नहीं।
* मैंने अपनी सरकारी सेवा के दौरान अपने छात्रावास में कुछ दलित कर्मचारियों की नियुक्तियाँ कराई थीं, जो बहुत कम नियत वेतन पर थीं–400 और 450 रुपए महीना।इनमें एक जाटव, एक सैनी, एक धोबी, और तीन वाल्मिकी जाति के थे। ये सारे पद कुक, कहार और सफाई कर्मचारी के थे। तीन वाल्मीकियों में एक को मैंने कहार के पद पर रखा था, बाकी दो सफाई कर्मचारी थे। बाद में सरकार ने इन्हें संविदा आधार पर रखने के आदेश जारी किए। वेतन वही था, पर हर वर्ष संविदा भरी जाती थी और मुख्यालय से अनुमोदन आने पर काम पर रखा जाता था। एक दो कर्मचारी मुख्यालय जाकर रिश्वत के बल पर अनुमोदन भी हाथों हाथ ले आते थे। पर यह अन्याय था। इसी बीच मैंने इन कर्मचारियों की एक रिट हाईकोर्ट में डलवा दी, आधार यह था कि उन पर संविदा लागू नहीं होती थी, क्योंकि वे पहले से नियुक्त थे। उनकी रिट अलाउ हो गई। बाद में पता चला कि इन्हीं पदों पर कुछ विभागों में पूर्ण वेतनमान दिया जा रहा था। तब मैंने भी पूर्ण वेतनमान की एक और रिट दाखिल करवा दी। मैं उनके साथ जाने कितनी बार लखनऊ गया और उनकी पैरवी की। सरकार की ओर से काउंटर भी दाखिल करना मेरे ही जिम्मे था। इसलिए सब उनके पक्ष में होता गया। उनकी जीत हुई और विभाग को पूरे प्रदेश में उनको पूर्ण वेतनमान पर नियमित कर्मचारी के रूप में नियुक्त करना पड़ा। आज वे सभी 30 हज़ार के लगभग वेतन पा रहे हैं।
मैं पूछता हूँ कि कितने वाल्मीकि नेताओं ने ठेके पर काम कर रहे सफाई कर्मचारियों के हित में उनके आर्थिक शोषण और ठेकेदारी प्रथा के खिलाफ कोर्ट में रिट दाखिल की है? कितनों ने इसके खिलाफ जेल भरो आंदोलन चलाया है? जिन्होंने चलाया भी है, तो वे बाद में सरकार से समझौता करके अलग हो गए। कर्मचारी फिर ठगे से रह गए, जैसे वे अक्सर हर नए नेता और आंदोलन के बाद ठगे जाते हैं।
* सफाई कर्मचारी समुदाय स्वयं में बहुत जुझारू और लड़ाकू वर्ग नहीं है। वह स्वभाव से बहुत सीधा सादा और भोला वर्ग है, और नेता इसी का फायदा उठाते हैं। कोई उससे थोड़ी भी हमदर्दी दिखाता है, तो वह पूरा सम्मान उसके लिए उड़ेल देता है, और अपने सारे दुख-दर्द भूल जाता है। यही कारण है कि सफाई कर्म को दिव्य कार्य बताने वाले मोदी भी उस दिव्य कार्य को उनसे मामूली वेतन पर कराते हैं। वह उनके पैर धोने का ड्रामा यूँ ही नहीं करते। वह जानते हैं कि यह भोला समुदाय इससे ही आत्म विभोर हो जाता है, तो अच्छे वेतन और अच्छी सुविधाओं की क्या जरूरत है?
* सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास की बातें दशकों से सुनी जा रही हैं, बल्कि आज़ादी के बाद से ही। पर सच यह है कि आज भी मानव मल उठाने का कार्य इसी समुदाय द्वारा किया जाना पूरी तरह बंद नहीं हुआ है। यह पूरे समाज को जनवा दिया गया है कि गंदे कार्य करने के लिए यही समुदाय अधिकृत है। पुनर्वास का मतलब यही नहीं है कि इस समुदाय को गन्दे पेशों से हटाकर स्वच्छ और सम्मानित पेशों से जोड़ा जाए, बल्कि यह भी है कि सफाई कर्मचारियों को इतना वेतन और सुविधाएं प्रदान की जाएं कि वे इतने सक्षम हो हो जाएं कि अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाकर डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर और अधिकारी बनवा सकें। और इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि सफाई कर्मचारी समुदाय का पुनर्वास और उत्थान डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर और अधिकारी बनकर ही हुआ है। जिन सफाई कर्मचारियों के मातापिताओं ने अपने बच्चों को पढ़ाया लिखाया, वे पूर्ण वेतनमान पर नियुक्त कर्मचारी थे। उन्हीं के बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर और अधिकारी बने। उन्होंने दूसरी पीढ़ी का ही नहीं, बल्कि अगली पीढ़ियों का भी उद्धार हो गया, जो आज वाल्मीकी समुदाय का गौरव बनकर सम्पूर्ण दलित समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं। सरकार ने ठेकेदारी की प्रथा इसीलिए लागू की ताकि सफाई कर्मचारी इतना ना कमा सकें कि उनके बच्चे पढ़ जाएं। और निश्चित रूप से आज उनमें शिक्षा की दर निरन्तर कम हो रही है, बल्कि ना के बराबर है।
* अंत में मैं एक कटु सत्य का उल्लेख करना चाहूंगा कि सरकार के साथ कदमताल करने वाले नेताओं में इतनी हैसियत नहीं कि वे अपने समुदाय की मुक्ति के लिए सरकार पर दबाव बना सकें। उनकी खुद की मुक्ति तो जरूर हो सकती है, पर सरकार ऐसे लोगों की सुनती नहीं है, क्योंकि सरकार जानती है, ये तो उन्हीं के पालतू हैं, कहाँ जाएंगे? असल में तो सरकार पर वही नेता दबाव बना पाते हैं, और उन्हीं नेताओं की सरकार सुनती भी है, जो सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हैं, उसे अपनी ताकत का अहसास कराते हैं। वे अपनी मुक्ति के लिए नहीं, बल्कि समाज की मुक्ति के लिए सरकार से लड़ते हैं।