रामायण के प्रसारण के ख़िलाफ़ क्यों हैं डॉ. आंबेडकर

कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!’

यह वाक्य शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के मशहूर लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ का है. जो सवाल उन्होंने भारत के भीषण औपनिवेश शोषण को सामने रखकर पूछा था, वही आज कोरोना वायरस से धरती पर आये इस अभूतपूर्व संकट को देखते हुए भी पूछा जा सकता है. यानी कहाँ है ईश्वर? अगर यह ‘लीला’ है तो उसमें और किसी चंगेज़ और नीरो में क्या फ़र्क़?

कोरोना संकट की वजह से मंदिर-मस्जिद-चर्च में सन्नाटा गूंज रहा है. काम हो रहा है तो अस्पतालों और प्रयोगशालाओं में. यह मौक़ा है समाज में विज्ञान के महत्व को पुनर्स्थापित करने का. तार्किकता को महत्व देने का. ख़ासतौर पर जब भारत का संविधान वैज्ञानिक चेतना से लैस समाज बनाने को लक्ष्य घोषित करता हो. लेकिन हो वही रहा है जैसा कि हर संकट के समय होता है यानी शासकवर्ग अपनी वैचारिकी को नए सिरे में वैधता दिलाने में जुट गया है. 28 मार्च से दूरदर्शन पर रामायण सीरियल के पुनर्प्रसारण का यही मक़सद है. 80 के दशक में इस सीरियल ने राममंदिर आंदोलन में नयी ताकत भरी थी और 1984 में दो सीटों पर सिमट गयी बीजेपी देखते ही देखते एक ऐसी विजययात्रा पर निकल पड़ी जिसने उसे दिल्ली की गद्दी पर बैठकर ही दम लिया. बीजेपी ने अपने बैनर पर राम की तस्वीर टांग ली और एक धर्मभीरु समाज में यह फैलाने पर क़ामयाब हुई कि वह राम की पार्टी है। उसका विरोध राम का विरोध है (जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिये ताहि कोटि बैरी सम, यद्धपि परम सनेही-तुलसी). संविधान धर्म के आधार पर राजनीति का निषेध करता है, जिसकी उसे कोई परवाह नहीं रही.

लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक के अवसान वर्ष में हुए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के समय इस सीरियल के प्रसारण का कुछ और भी मतलब है. इसकी सूचना देते हुए सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने ‘जनता की बेहद माँग’ का तर्क दिया है. यह कौन सी ‘जनता’ है और यह माँग कब हुई, इसका पता लगाना मुश्किल नहीं है.

 

 

दूरदर्शन पर रामायण

आगे बढ़ने से पहले इस सीरियल का इतिहास जान लेते हैं. दूरदर्शन के पूर्व महानिदेश भास्कर घोष अपनी किताब ‘दूरदर्शन डेज़’ में बताते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी, दूरदर्शन को बिलकुल नया कलेवर देना चाहते थे. बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु के प्रिय आईएएस अफ़सर रहे घोष को राजीव गांधी ने खासतौर पर दूरदर्शन की दशा सुधारने के लिए दिल्ली बुलाया था. वे चाहते थे कि दूरदर्शन में आमूलचूल परिवर्तन हो और आकर्षक और समाज में नया अर्थ पैदा करने वाले कार्यक्रम बनें.  सूचना और प्रसारण मंत्रीलय ने उसी दौर में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ पर ‘टी.वी.सीरियल बनवाने का फैसला लिया. जिम्मेदारी मिली रामानंद सागर को जो पहले इसे रामलीला का टीवी संस्करण टाइप ही रखना चाहते थे, लेकिन भास्कर घोष इसे ऐसे भव्य रूप में बनवाने में कामयाब रहे जिसे देखकर पूरा भारत ठिठक गया. भारत ही क्यों लाहौर की सड़कों पर भी इसके प्रसारण समय सन्नाटा पसर जाता था. राम का चरित्र निभाने वाले अरूण गोविल साक्षात राम की तरह पूजे जाने लगे. 25 जनवरी 1987 को रामानंद सागर के रामायण का पहला एपीसोड प्रसारित हुआ और आखिरी 31 जुलाई 1988 को. ये लगभग डेढ़ साल पूरा भारत राममय हुआ पड़ा था. इस सीरियल ने विश्व हिंदू परिषद, और बीजेपी को नई स्वीकृति दिलवायी. यह संयोग नहीं कि राम, (अरुण गोविल) सीता (दीपिका चिखलिया) और रावण (अरविंद त्रिवेदी), तीनो ही बीजेपी के टिकट पर लोकसभा पहुँचे।

 कबीर, रैदास नहीं तुलसी के राम

इसमें कोई शक़ नहीं कि रामायण महाकाव्य के रूप में हमें प्राचीन भारत के एक काल विशेष की राजनीतिक-सांस्कृतिक झलक देता है. यह अयोध्या के राजकुमार राम की कथा है जिनका जीवन दुखों और कष्टों से भरपूर है. लेकिन उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया (क्योंकि उन्होंने ‘युग की मर्यादा’ नहीं लांघी चाहे गर्भवती पत्नी का परित्याग करना पड़ा हो या फिर वेद अध्ययन करने का ‘दुस्साहस’ कर रहे शूद्र शंबूक की गला काटना पड़ा हो.) इस ‘ट्रेजडी’ पर कई भाषाओं में  कथा रची गयी. कहते हैं कि करीब 300 रामायण लिखी गयी हैं जिनमें राम, सीता, रावण जैसे मूल चरित्र के रिश्तों में भी उलटफेर मिलता है. इसी वाल्मीकि रामायण के आधार पर तुलसीदास ने अवधी में ‘रामचरित मानस’ रचकर (और रामलीला का आयोजन शुरू कर) इस कथा को घर-घर पहुँचा दिया. इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि यह ग्रंथ ‘वर्णव्यवस्था’ को ही ‘धर्म’ बताता है जो मध्ययुगीन शासकवर्गों के हित की बात थी. मुगलों ने हिंदुओं की सामाजिक व्यवस्था को चुनौती नहीं दी बल्कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों को वैसा ही सम्मान दिया जैसा कि वर्णव्यवस्था बताती है.

तुलसी दास ने कबीर और रैदास जैसे अपने पूर्ववर्ती भक्त कवियों के चिंतन और संदेश को उलटने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कबीर और रैदास के लिए राम ‘निराकार ब्रह्म’ समान हैं जबकि तुलसी के अयोध्यापति राम, विष्णु के अवतार हैं जो धर्म (वर्णव्यवस्था) की पुनर्स्थापना के लिए हुआ. जिस काशी में रैदास वर्णव्यवस्था पर कड़ा प्रहार करते हुए लिख गये थे -‘ रैदास बांभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन. पूजिए चरन चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन,’ उसी काशी में तुलसी ने जवाब रचा। मानस के अरण्यकांड में राम के मुंह से तुलसी ने कहलवाया – ‘पूजिए विप्र शील गुण हीना, शूद्र ना गुण गण ग्यान प्रवीना.’ कबीर और रैदास की वाणी से आहत सनातनधर्मी प्रभुवर्गों ने, संस्कृत में रचना न करने की वजह से शुरुआत में चाहे तुलसी को बहुत महत्व नहीं दिया, बाद में उन्हें हाथो-हाथ लिया. हिंदी पट्टी में ‘स्त्री और शूद्र विरोधी मानस’ रचने में जितना तुलसी की चौपाइयों की भूमिका रही, उतनी शायद ही किसी की रही हो. घरों में ‘मानसपाठ’ कराना एक धार्मिक कर्मकांड यूँ ही नहीं बना. लेकिन राम को देवता बनाने वाले कवि तुलसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि राम के राज्याभिषेक के बाद रामायण में वर्णित घटनाओं पर क़लम चला सकते. निर्दोष गर्भवती सीता के परित्याग और शंबूक के गला काटने का प्रसंग अवधी में प्रचारित करने के ख़तरे वे समझते थे. इसलिए मानस की कथा में राम के राजा बनते ही ‘रामराज्य’ आ गया. कहानी ख़त्म.

रामायण और राष्ट्र

यह ध्यान देने की बात है कि जिस संविधान पर भारतीय राष्ट्र-राज्य की बुनियाद पड़ी, उसके मूल्य और रामकथा की मर्यादाएं और मूल्य बिलकुल जुदा हैं. जिस समता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व के आधार पर एक एक स्वतंत्र भारत की बुनियाद रखी गयी, उसका रामकथा और उसके संदेश में कोई गुंजाइश नहीं है. संविधान भारत भूमि पर लिखी गयी वह पहली किताब है जिसके आधार पर ‘बराबरी’ किसी विधि संहिता का अनिवार्य अंग बनी. स्त्रियों और शूद्रों को मनुष्य होने और आज़ाद होने का अहसास इसी किताब ने संभव कराया. रामायण पर आस्था रखने वाले संविधान पर आस्था रखने का नाटक तो कर सकते हैं, रख नहीं सकते.

संविधान निर्माता डा.भीमराव आंबेडकर ‘राम और कृष्ण की पहेली’ में साफ़ लिखते हैं कि ‘राम ने कभी राजा के रूप में काम नहीं किया.प्राचीन राजाओं की तरह उन्होंने न तो कभी प्रजा की शिकायतों को सुना और न कभी उनके निवारण का प्रयास किया केवल एक ही घटना का वर्णन वाल्मीकि ने किया है, जब राम ने प्रजा की शिकायत को गंभीरता से सुना पर खेद है कि यह अवसर अत्यंत दुखद सिद्ध ‘हुआ.उन्होंने शिकायत के निवारण में तत्परता दिखाते हुए एक जघन्य अपराध कर डाला, जिसकी कोई मिसाल इतिहास में नहीं मिलती. यह घटना ‘शूद्र शम्बूक की हत्या’के नाम से कुख्यात है.’ (डा.आंबेडकर, संपूर्ण वांगमय, खंड, पेज 332)

डा.आंबेडकर नहीं मानते कि राम ईश्वर का अवतार हैं. वे रामकथा को ‘ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना’ के प्रयास के तहत प्रचारित की गयी मानते हैं. यही वजह है कि उनकी 22 प्रतिज्ञाओं में दूसरी है- ‘मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा.’

तो जो लोग ‘राम’ और ‘राष्ट्र’ को एक बताते हैं उन्हें यह भी बताना चाहिए कि फिर डा.आंबेडकर का राष्ट्र क्या है? और क्या राष्ट्र सिर्फ गंगा-यमुना के मैदान भर हैं. क्या इस राष्ट्र में तमिलनाडु नहीं है जहाँ द्रविड़ आंदोलन को नई ऊंचाई देने वाले पेरियार आज भी पूजे जाते हैं. पेरियार ने सच्ची रामायण लिखकर राम के नायकत्व पर जैसा प्रहार किया था, वैसा शायद किसी ने नहीं किया. ललई सिंह यादव ने इसका हिंदी अनुवाद किया तो उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था. वे सुप्रीम कोर्ट तक लड़े और जीते. आखिर ललई सिंह यादव किस राष्ट्र के नागरिक थे?

रामायण ही क्यों

अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर तमाम ऐसे धारावाहिक आये जिनकी याद आज भी ताज़ा है. देश-दुनिया के महान लेखकों की कहानियों पर आधारित रहे हों या भारत एक खोज जैसे इतिहासदृष्टि संपन्न धारावाहिक.लेकिन सरकार को लगता है कि जनता की मांग रामायण (महाभारत भी हो तो क्या) ही है. दरअसल, अस्सी के दशक में राममंदिर के जरिये राजनीतिक ताकत पाने वाली बीजेपी (और उसके पीछे खड़े आरएसएस) को सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए रामकथा की ज़रूरत है. यह बात यूँ ही नहीं कही जाती कि आरएसएस जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति का गुणगान करता है, वह और कुछ नहीं ‘ब्राह्मणवाद का वर्चस्व’ है जिसे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विकसित हुए मूल्यो पर आधारित संविधान ने कमज़ोर किया. बीजेपी के लिए सुविधा यह है कि कभी हिंदी क्षेत्र में ‘पेरियार मेला’ लगाने वाली बीएसपी जैसी उसकी प्रतिरोधी सांस्कृतिक शक्ति अब सत्ता के लिए ‘हाथी नहीं गणेश है’ का नारा लगाकर अपना सारा तेज गंवा चुकी है. मुस्लिम समाज के ‘दानवीकरण’ के अभियान का असल मकसद भी यही है कि एक ‘शत्रु’ के सामने एकजुट होने की ज़रूरत बताकर हिंदुओं के बीच सामाजिक गैरबराबरी के मसले को दफ़्न किया जा सके.

इसलिए जब प्रकाश जावडेकर जब कहते हैं कि ‘जनता की मांग’ पर रामायण का प्रसारण होगा तो वे ‘जनमानस के निर्माण’ के अपने सुचिंतित प्रोजेक्ट का संकेत देते हैं. एक ऐसा समाज उन्हें रचना है जहाँ प्रश्न के लिए जगह न हो, और प्रश्नाकुलता या संशय को धर्म से विमुख होना कहा जा सके ( विरोधियों को देशद्रोही बताने का अभियान इसी की झलक है). रामायण धारावाहिक घरों में क़ैद लोगों को बार-बार बतायेगा कि राम ‘कर्ता’ है, जिसकी इच्छा से ही दुनिया चलती है. मोदीराज भी राम की इच्छा है और कोरोना भी. इस मोर्चे पर हुई तमाम गड़बड़ियों को लेकर कोई सरकार ज़िम्मेदार नहीं. यह हरिइच्छा है। ताली और शंख बजाकर कोरोना भगाने वालों का मनमयूर इस व्याख्या से नाच ही उठेगा.

वैसे, भगत सिंह और डॉ.आंबेडकर देख रहे हैं कि इस ‘प्रोजेक्ट’ पर वह जनता कैसी प्रतिक्रिया देती है जिसके लिए वे भी कोई प्रोजेक्ट छोड़ गये हैं. ‘इतिहास’ बनने की प्रक्रिया अंतहीन है.

पुनश्च: यह ख़बर 27 मार्च को लिखी गयी और जो आशंका जताई गयी थी, वह सही साबित हुई. 28 मार्च को प्रकाश जावडेकर ने रामायण देखते हुए अपनी तस्वीर ट्वीट की और लोगों से भी पूछा कि वे देख रहे हैं कि नहीं? इस बीच महाभारत का प्रसारण भी शुरू कर दिया गया. प्रेस इन्फारमेशन ब्यूरो ने तो खेल ही शुरू कर दिया.लोगों से कहा कि रामायण देखते हुए अपनी तस्वीर शेयर करें.यह सब उसी समय हुआ जब लाखों गरीब सैकड़ों मील दूर अपने घरों की ओर पैदल जाने को मजबूर हैं. न भूलने वाली यह तस्वीर संजोंकर रख लें–


लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।

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