देश का समूचा राष्ट्रीय मीडिया जिस नोएडा शहर में स्थित है, वहां बीते पांच दिनों से करीब 800 लोग एक कंपनी परिसर के भीतर भूखे-प्यासे अपनी मांगों को लेकर बैठे हुए हैं लेकिन हज़ारों कैमरों में से किसी की भी निगाह वहां अब तक नहीं पहुंची है। कारण सीधा सा यह है कि मीडिया को ऐसी कंपनियों से विज्ञापन मिलते हैं और इनके खिलाफ़ ख़बर दिखाना उसके वश में नहीं है।
बात नोएडा स्थित दक्षिणी कोरियाई कंपनी एलजी की है जिसके टीवी, फ्रिज़, मोबाइल, वाशिंग मशीन आदि उपकरण आ घर-घर का हिस्सा हैं। इस कंपनी में W श्रेणी के करीब 800 कामगार सोमवार सुबह से ही परिसर के भीतर तकरीबन कैद की स्थिति में हैं। शनिवार को कंपनी ने 11 कामगारों को ट्रांसफर ऑर्डर पकड़ा दिया था और उन्हें गेट के बाहर बेइज्जत कर के निकाल दिया। इन कर्मचारियों ने ट्रांसफर लेटर लेने से इनकार कर दिया था। इन्हीं की बहाली की मांग को लेकर बाकी कर्मचारियों ने काम बंद कर दिया और परिसर में बैठ गए।
शुरुआती एकाध दिन उन्हें कंपनी की ओर से खाने-पीने को दिया गया लेकिन कल यानी गुरुवार सुबह से उन्हें कुछ भी खाने को नहीं मिला है। कंपनी की कर्मचारी संगीता शुक्ला ने फोन पर बताया कि प्रबंधन ट्रांसफर किए गए 11 कर्मचारियों को वापस नहीं लेने पर अड़ा हुआ है। तीन बार उपश्रमायुक्त और जिलाधिकारी की मौजूदगी में वार्ता हो चुकी है लेकिन नाकाम रही है।
विवाद की शुरुआत जनवरी में हुई जब यहां के 820 कर्मचारियों ने एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स कर्मचारी यूनियन बनाने के लिए कानपुर में आवेदन किया और उसके बाद एक मांगपत्र प्रबंधन को सौंपा। उनकी मांगें बहुत मामूली थीं, जैसे वेतन में बढ़ोतरी किया जाना और काम के घंटे आठ किया जाना। ज़ाहिर है, नोएडा जैसे औद्योगिक केंद्रों में काम कर रहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने यहां यूनियनों को पनपने नहीं देती हैं। आज से करीब दस साल पहले डेवू मोटर्स में कर्मचारियों के दमन का एक बड़ा उदाहरण हमारे सामने है जिसके यूनियन नेता आज भी मुकदमे झेल रहे हैं और बेरोज़गार हैं।
इन कंपनियों को निवेश के नाम पर प्रशासन की भी छूट मिली होती है और खुलेआम श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। इसमें श्रम विभाग की भी मिलीभगत होती है। यूनियन के अध्यक्ष मनोज चौबे बताते हैं कि जब पांच कर्मचारियों की ओर से मांगपत्र उपश्रमायुक्त कार्यालय भेजा गया, तो वहां से जवाब आया कि इनमें तीन कर्मचारी S यानी सुपरवाइज़र श्रेणी के हैं इसलिए यह मांगपत्र नाजायज़ है। वही रिपोर्ट कानपुर नत्थी कर के भेज दी गई।
कंपनी में कर्मचारियों को कानूनी सलाह देने वाले नीरज चिकारा बताते हैं कि इस मामले में सीधे तौर पर श्रम विभाग ने गैरकानूनी काम किया है। दरअसल, यूनियन पंजीकरण के आवेदन के वक्त से ही कंपनी ने दांव खेलना शुरू कर दिया था। इस क्रम में उसने 150 कामगारों को जनवरी में बस भत्ते के नाम पर अतिरिक्त 2000 रुपये देने शुरू कर दिए और श्रम विभाग को सूचित कर दिया कि ये कर्मचारी सुपरवाइज़री ग्रेड के हैं, जबकि उनका वेतनमान आदि सब कुछ वर्कर ग्रेड का ही था।
नीरज कहते हैं, ”उपश्रमायुक्त का दो काम होता है- एक समझौता करवाना और दूसरा कोर्ट को अपनी अनुशंसा भेजना। उसने दोनों काम नहीं किया, बल्कि सीधे तीन कर्मचारियों को सुपरवाइज़री ग्रेड का करार देकर अपनी ओर से फैसला सुना दिया।” कुछ यूनियन नेता इशारा करते हैं कि डीएलसी ने कंपनी से पैसे खाए हैं।
फिलहाल, एलजी कंपनी के भीतर और बाहर लगातार तनाव की स्थिति है। सोमवार से आज पांच दिन हो गए हैं और मामले का निपटारा नहीं हुआ है। कर्मचारियों का कहना है कि अगर दो-चार दिन यह धरना और चल गया तो आसपास की औद्योगिक इकाइयों के भीतर खदबदा रहा श्रमिक असंतोष भी फूट पड़ेगा और प्रशासन के लिए इसे संभालना मुश्किल हो जाएगा।
सोमवार से ही यूनियन के नेता कई मीडिया संस्थानों को फोन कर चुके हैं और कवर करने के लिए गुज़ारिश कर चुके हैं लेकिन एक भी मीडिया संस्थान का कैमरा कंपनी तक नहीं पहुंचा है। इस बारे में केवल दो संक्षिप्त खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया, बिज़नेस स्टैंडर्ड और मनीकंट्रोल पर प्रकाशित हुई हैं। ज़ाहिर है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में श्रमिकों के दमन पर मीडिया का यह रुख़ पुराना है क्योंकि उनसे इन्हें विज्ञापन के बतौर भारी आय होती है।
ध्यान रहे कि 2013 में एलजी कंपनी ने मीडिया में विज्ञापनों पर इतना पैसा फूंक दिया था कि उसका विज्ञापन व्यय कर के दायरे में आ गया था।