श्रीनगर के सचिवालय से जम्मू और कश्मीर का जो राजकीय झंडा हटाया गया, उस पर हल बना हुआ था। जवाहरलाल नेहरू के दौर में 1952 से कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न था दो बैलों की जोड़ी।
मानसून पर निर्भर एक कृषि अर्थव्यवस्था में ये दोनों चिह्न किसानों की उत्पादक और सियासी ताकत का प्रतीक थे। नेहरू ने 1958 में अमरीकी पत्रकार आरनॉल्ड मिशेलिस को दिए एक इंटरव्यू में भूमि सुधार के मसले पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मतभेदों की बात कही थी। आज़ाद भारत में कांग्रेस भूमि सुधार के प्रति वचनबद्ध थी।
जनवरी 1946 में नेहरू जब उदयपुर में ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (एआइएसपीसी) के अध्यक्ष बनाये गये, तो उन्होंने शेख अब्दुल्ला को उसका उपाध्यक्ष निर्वाचित करवाया। ये दोनों भूमि सुधार के प्रति वचनबद्ध थे। एआइएसपीसी कांग्रेस समर्थित इकाई थी। इसका काम था तत्कालीन रियासतों को आज़ाद भारत में मिलाना। आज़ादी के बाद सामंतवाद को जड़ से उखाड़ने के प्रति कॉन्फ्रेंस भी बराबर वचनबद्ध थी।
जम्मू और कश्मीर के राजा हरि सिंह के सामने यही उलझन थी। नेहरू और अब्दुल्ला को वे समाजवादी जानते हुए पसंद नहीं करते थे लेकिन मुस्लिम पाकिस्तान में भी उन्हें अपना भविष्य कोई खास नहीं दिख रहा था। इसके अलावा, जिस विवादित विलय-संधि (इंस्ट्रुमेंट ऑफ ऐक्सेशन) पर उन्होंने दस्तखत किए थे, उसमें उन्हें ‘कश्मीर नरेश और तिब्बत देश अधिपति” बताया गया था।
शेख अब्दुल्ला ने 1965 में अलजियर्स में चीन के प्रीमियर झाउ एन लाइ से मुलाकात की। इस कथित असावधानी के चलते वे संकट में फंस गये और लौटते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। गांधीवादी कार्यकर्ता होरेस अलेक्जेडर ने तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी से उनकी पैरवी की। इंदिरा गांधी को शेख से सहानुभूति थी, लेकिन उन्होंने अलेक्जेंडर से अपनी आशंका भी जतायी:
”शेख साहब को इस बात का अहसास नहीं है कि चीन के हमले (1962) और कश्मीर के हालिया दांवपेंच के चलते कश्मीर की स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। कश्मीर की सरहद चीन, रूस, पाकिस्तान और भारत को छूती है। दुनिया के मौजूदा हालात में एक आज़ाद कश्मीर चौतरफा साजिशों का अखाड़ा बन जाएगा। ऊपर गिनाये देशों के अलावा फिर अमेरिका और ब्रिटेन भी वहां अपनी जासूसी और हरकतें शुरू कर देंगे।”
सरदार पटेल ने 560 से ज्यादा रियासतों को भारत में विलय के लिए बाध्य किया, यह बात हिंदुत्व वालों की फैलायी अफ़वाह है। रियासतों पर दबाव बनना तो तभी चालू हो गया था जब नेहरू ने 1946 में एआइएसपीसी में दिए अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि जो कोई भारत के साथ विलय करने और संविधान सभा का हिस्सा बनने से इनकार करेगा, उसे शत्रु मान लिया जाएगा। यही वह पृष्ठभूमि थी जिसमें सुखी लाला को नए भारत में अपना धंधा करना था। सुखी लाला कौन?
सुखी लाला पचास के दशक में आयी फिल्म ‘मदर इंडिया’ का सूदखोर था। बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’ का ज़मींदार यही शख्स है। ‘गंगा जमुना’ का पतित किरदार हरि बाबू भी यही है। राजकपूर की ‘श्री 420’ में शेयर बाज़ार का सट्टेबाज़ यही आदमी है। नूतन की ‘अनाड़ी’ में यह आदमी मिलावटी दवा बेचता है।
नेहरू के भारत में शेयर मार्केट को सट्टा बाज़ार कहते थे। जि़या सरहदी की ‘फुटपाथ’ में दिलीप कुमार का किरदार सट्टा बाज़ार की बुराइयों को सामने लाता है। भारत के खेतिहर किसान हमेशा सुखी लाला की लालच का शिकार होते रहे और गाहे-बगाहे उन्होंने उसकी ज्यादतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठायी। दिलीप कुमार का किरदार गंगा और सुनील दत्त का किरदार बिरजू आज अगर होते, तो उन्हें माओवादी कह कर जेल में डाल दिया जाता या मार दिया जाता।
मनमोहन सिंह ने माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था, लेकिन यह कभी नहीं बताया कि 1991 में सुखी लाला के हित बनायी उनकी नीतियों के बाद से हज़ारों किसानों ने खुदकुशी क्यों की। अभी हाल में भारत की वित्त मंत्री ने बजट पेश करने जाते वक्त बही-खाते का प्रदर्शन किया, वरना उनसे पहले हर साल ब्रीफकेस दिखाने का चलन था। वे शायद बताना चाह रही हों कि भारत पर आज किसका राज है।
गांधीजी के दोस्तों में कई सुखी लाला थे जो कांग्रेस को पैसे देते थे। गांधीजी को उनमें भविष्य के भारत के सरपरस्त दिखायी देते थे। नेहरू इतिहास के विद्यार्थी थे। अपने राजनीतिक गुरु से उलट कारोबारी तबके को देखने का उनका नज़रिया अलहदा था। उनका चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी किसानों के निकट था, जो सनातन काल से सुखी लाला का ग्रास बनते आ रहे थे।
विडम्बना देखिये कि उत्तर प्रदेश के गांवों में राजनीतिक अनुभव लेने के लिए नेहरू को भेजने वाले गांधी ही थे। भविष्य के प्रधानमंत्री ने रायबरेली में सई नदी के पार देखा कि एक स्थानीय सुखी लाला की शह पर पुलिस निहत्थे किसानों पर गोली दाग रही है।
राहुल गांधी कश्मीर में नरेंद्र मोदी के कपटी खेल की जिस तरह से तीखी निंदा कर रहे हैं, इससे उनकी राजनीति का आकलन किया जाना चाहिए। उनकी राजनीति उन्हें विरासत में मिली नेहरू-गांधी की राजनीति से एकदम कटी हुई नहीं हो सकती।
यह विरासत दरअसल सुखी लाला को चुनौती देने की है। नेहरू ने बड़े कारोबारियों को जेल में भेजा था। इंदिरा गांधी ने उनके बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर डाला। राजीव गांधी ने उन्हें हड़काया कि कांग्रेस जनों पर वे डोरे डालना बंद करें। कांग्रेस के बड़े-बड़े लाला कश्मीर के मसले पर जिस तरह से पाला डाक गये, उससे शायद राहुल की स्लेट और साफ़ हो गयी है। इसे इस तरह से देखें। मोदी ने कांग्रेसमुक्त भारत बनाने की कसम ऐसे ही नहीं खायी है।
दिक्कत यह है कि हाल के दिनों में हुए घटनाक्रम ने दिखा दिया है कि आप चाहें या न चाहें, गांधी परिवार के नेतृत्व के बगैर कांग्रेस पार्टी का कोई वजूद नहीं है। जैसे भुट्टो परिवार के बगैर पीपीपी और मुजीब परिवार के बगैर अवामी लीग का वजूद नहीं है। भंडारनायके और केनेडी खानदान का मामला दूसरा है। वहां अपने दलों पर उनका नियंत्रण सीमित है।
अब बदले की एक संभावना पर विचार करें। राजीव गांधी की हत्या के बाद संसद से पारित एक कानून के अंतर्गत उनके परिवार की सुरक्षा का जिम्मा एसपीजी (स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप) को दे दिया गया था। मीडिया के साथ मिलकर भारत के नये मालिकान इस परिवार के खिलाफ़ जिस कदर नफ़रत फैला रहे हैं, बहुत बड़ी बात नहीं है कि कमखर्ची के नाम पर वे इस सुरक्षा कवच को हटा लें और उन्हें पंगु बना दें। ऐसा एक कदम पहले उठाया जा चुका है। द हिंदू में मनमोहन सिंह का सुरक्षा कवर हटाए जाने के बारे में खबर छप चुकी है।
यह भी मुमकिन है कि इस नए शुद्धिकरण के बाद कांग्रेस पार्टी अपने पैरों पर खड़ी हो जाए। फिलहाल दोनों ओर से नापा जा रहा है कि कौन कितने गहरे पानी में पैठा है। उधर सुखी लाला है कि लगातार लार टपकाये जा रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार जावेद नक़वी पाकिस्तान के अखबार डॉन के नई दिल्ली प्रतिनिधि हैं। यह लेख मंगलवार, 27 अगस्त को डॉन में प्रकाशित हुआ था। वहीं से साभार यहां लिया गया है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।