मुख्यधारा की पत्रकारिता और संबद्ध क्षेत्रों में दो दशक का अनुभव रखने वाली प्रीति नागराज मैसूर में रहती हैं। राजनीति, संस्कृति, साहित्य और थिएटर इनके प्रिय विषय हैं। प्रीति कई चुनाव कवर कर चुकी हैं और कर्नाटक के सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास में दक्ष हैं। इन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स, दि न्यूज़ मिनट और स्क्रोल के लिए स्वतंत्र लेखन किया है और दि न्यू इंडियन एक्सप्रेस, सीएनबीसी टीवी 18, इंटेल इंडिया और डेकन हेराल्ड में काम कर चुकी हैं। वे कन्नड़ में भी लिखती हैं और प्रजावाणी की लोकप्रिय स्तंभकार हैं। मीडियाविजिल के लिए ”ग्राउंड ज़ीरो कर्नाटक” नाम के इस विशेष कॉलम में वे कर्नाटक चुनाव की विविध नज़रिये से कवरेज करेंगी और नई सरकार बनने तक पाठकों को चुनावी घटनाक्रम से अवगत कराती रहेंगी। आज प्रस्तुत है इस कड़ी की दूसरी स्टोरी- संपादक
प्रीति नागराज
कर्नाटक में चुनाव प्रचार अपने पूरे शबाब पर है। इसका अंत होने में केवल दो दिन बचे हैं। उसके बाद यह राज्य अपने इतिहास में शायद सबसे हाइ-प्रोफाइल चुनाव का गवाह बनेगा, जैसा कि आज तक नहीं देखा गया। यहां विधानसभा की कुल 223 सीटों के लिए चुनाव होने हैं और पूरे देश में अकेले यही राज्य कांग्रेस का बड़ा गढ़ बचा है। वैसे तो यहां कुल 224 विधानसभा सीटें हैं, लेकिन बंगलुरु क्षेत्र की एक सीट पर भाजपा के एक प्रत्याशी की मौत होने के कारण वहां अगले नोटिस तक चुनाव रद्द कर दिया गया है। पिछले चुनाव में कर्नाटक में औसतन 70.23 फीसदी मतदान हुआ था। शहरी मतदाताओं के मुकाबले ग्रामीण मतदाताओं ने ज्यादा मतदान किया। यह संख्या इस चुनाव में सुधरेगी या नहीं, इसका पता तो 12 मई को मतदान के बाद ही लग सकेगा।
मुख्यमंत्री सिद्धरामैया दो सीटों से लड़ रहे हैं। एक उनकी परंपरागत सीट है चामुंडेश्वरी और दूसरी उत्तर कर्नाटक में बदामी की दो में से एक सीट है जहां उन्हें बीजेपी के श्रीरामुलु से कड़ी टक्कर मिल रही है जो उम्र में उनसे काफी छोटे हैं। बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी येदियुरप्पा अपनी शिकारीपुर सीट से ही लड़ रहे हैं जहां से वे पिछले सात बार से चुनकर आते रहे हैं। सोशल मीडिया पर जंग छिड़ी हुई है लेकिन ज़मीन पर हालात कुछ अलग हैं। इस बीच यह भी जानना ज़रूरी है कि मुख्यमंत्री सिद्धरामैया ने प्रधानमंत्री मोदी के ऊपर 100 करोड़ की मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया है और उन्हें कानूनी नोटिस भिजवा दिया है। यह अपने किस्म की पहली घटना है।
सीधे तौर पर देखें तो यह चुनाव कर्नाटक की सरकार और महत्वाकांक्षी बीजेपी के बीच लड़ा जा रहा है। बीजेपी को यहां सत्ता में वापसी की उम्मीद है जो उसने भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते गंवा दी थी। इस पार्टी ने पांच साल के कार्यकाल में राज्य को तीन मुख्यमंत्री दिए। कांग्रेस ज़रूर चाहेगी कि लोग इस बात को समझें और सराहें कि उसने राज्य में सर्वाधिक स्थिर और ईमानदार सरकार चलाई है और उसकी सामाजिक पहले ऐसी प्रशंसनीय रही हैं कि जनता उनका समर्थन जारी रखेगी। इन दोनों के बीच दौड़ में शामिल इकलौती अहम पार्टी है जेडी(एस), जो सुशान के अपने वादों के साथ जनता के मानस को पकड़ने की कोशिश में लगी है। इसके बावजूद बहुत संभव है कि पार्टी मंड्या-मैसूर इलाके की कुछ सीटों तक ही सीमित रह जाए जहां तमिलनाडु के साथ कावेरी जल बंटवारे का मुद्दा हमेशा धधकता रहता है। इसके अलावा जेडी(एस) के अधिकतर वोटर जो उसी के समुदाय से आते हैं, इसी इलाके में पाए जाते हैं और वे केवल एक कारण से पार्टी को समर्थन देंगे कि यह वोक्कलिगाओं की पार्टी है, भले ही इसे केवल एक परिवार चलाता है और पूरे देश में इसकी कोई छाप नहीं है।
मामला हालांकि इतना सरल नहीं है क्योंकि जेडी(एस) ने ओवेसी, मायावती और ऐसे कई अन्य छोटे धड़ों के साथ हाथ मिला लिया है जो कर्नाटक में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने को बेचैन हैं। इसके अलावा नौहेरा शेख नाम के सियासी उद्मी का पहली बार सूबे की राजनीति में प्रवेश हो रहा है। दुबई के पैसे से मालामाल यह पार्टी महिला सशक्तीकरण के एजेंडे पर खेल रही है और इसने पूरी 224 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं।
चुनाव प्रचार खत्म होने में अब बमुश्किल 48 घंटे रह गए हैं। इस बीच राज्य जबरदस्त प्रचार का गवाह रहा है। सैकड़ों पत्रकार इस बात को समझने के लिए राज्य का एक से दूसरा सिरा नाप रहे हैं कि फतह किसकी होगी। कांग्रेस को देखें तो राहुल गांधी पिछले कुछ हफ्तों में 3000 मील से ज्यादा लंबी यात्रा कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने 21 रैलियों की योजना बनाई है (शुरुआती योजना 15 रैलियों की थी)। योगी आदित्यनाथ के लिए 15 रैलियों की योजना थी लेकिन उत्तर प्रदेश में आए धूल भरे तूफान के कारण उन्हें बीच में ही चुनाव प्रचार छोड़कर राहत कार्य के लिए लौटना पडा है।
कई पोल सर्वे हो चुके हैं। कुछ असली, कुछ फर्जी। कुछ में कांग्रेस की बढ़त दिखाई गई है तो कुछ में बीजेपी को पूर्ण बहुमत पाता दिखाया गया है। फिर भी इतना तो साफ़ दिख रहा है कि यहां कोई चमत्कार होने नहीं जा रहा। किसी भी दल के लिए यह चुनाव इतना आसान नहीं है जहां हर प्रत्याशी आगे बढ़कर खेल रहा है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए यह करो या मरो की स्थिति है।
कोई पूछ सकता है कि जब देश भर में कांग्रेस की हालत इतनी पतली है तो इस चुनाव से बीजेपी कैसे प्रभावित हो रही है। इसका जवाब इस तथ्य में है: दक्षिण भारत में कर्नाटक इकलौता राज्य था जहां बीजेपी की अतीत में सरकार बनी थी और ऐसा तब हुआ था जब पार्टी हाइकमान से स्वतंत्र होकर चुनाव लड़ा गया था। तब बस एक गलत फैसला हुआ था कि पार्टी ने जेडी(एस) का दामन थाम लिया था। उस कार्यकाल में भ्रष्टाचार के ऐसे आरोप लगे कि पार्टी को लोगों ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उस दौरान पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदलते हुए बीजेपी को देखा गया। एक मुख्यमंत्री को तो इसलिए पद छोड़ना पड़ा क्योंकि रिश्वतखोरी के एक मामले में उसे जेल जाना पड़ा।
वही मुख्यमंत्री आज बीजेपी की ओर से एक बार फिर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार है और यही बात कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित होने जा रही है। चूंकि बीएस येदियुरप्पा ताकतपर लिंगायत समुदाय से आते हैं लिहाजा बीजेपी किसी और पर दांव नहीं खेल सकती। इसकी खास वजह यह भी है कि सीएम सिद्धरामैया ने लिंगायतों को विशेष अल्पसंख्यक धार्मिक दरजा देने की पहल की है जबकि राज्य में उनकी अच्छी-खासी संख्या है।
पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र सार्वजनिक किए जा चुके हैं और इन पर बहसें भी हो चुकी हैं। कांग्रेस ने बीजेपी से पहले अपना घोषणापत्र जारी किया था। पीएम मोदी ने अपने विरोधियों पर ऐसी टिप्पणियां की हैं कि या तो वे अवाक रह गए हैं या वे चुप हो गए हैं। राहुल गांधी ने इसकी प्रतिक्रिया में चुनी अपनी खामोशी को किसी सदमे के बजाय एक गरिमापूर्ण प्रतिक्रिया के रूप में प्रदर्शित किया है कि वे बीजेपी की अशोभनीय रणनीतियों पर ऐसे ही जवाब देंगे।
हर पार्टी के पक्ष में किस चीज़ ने काम किया है यह तो हफ्ते भर में साफ हो जाएगा। वोटिंग 12 मई को है और नतीजे 15 मई को आने हैं। जिस दिन नतीजे सामने आएंगे, प्रधानमंत्री मोदी के मौजूदा कार्यकाल में केवल 364 दिन शेष रह जाएंगे। इसलिए कर्नाटक का नतीजा चाहे जो रहे, मानकर चलिए कि मोदी उसके बाद भी चुनाव प्रचार मोड में ही दिखेंगे क्योंकि आगे राजस्थान, मिज़ोरम, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के चुनाव आसन्न हैं। उसके बाद तो मध्य मई के पहले 2019 के आम चुनाव सर पर ही होंगे। मतलब यह कि लगातार हमलावर बने रहना और दिखना उनकी एक बाध्यता भी है।
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