हिंदी पट्टी में बिहार एकमात्र राज्य है जहाँ 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के बाद से कभी अपनी सरकार नहीं रही है. भाजपा की दक्षिण में पहली बार कर्नाटक में चुनाव बाद सरकार बनी. दक्षिण और उत्तर भारत की भौगोलिक विभाजनकारी विंध्य पर्वतमाला से आगे गैर-हिंदी भाषी गुजरात, महाराष्ट्र और गोआ से लेकर हिंदी भाषी दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में भी बनी. पूर्वी भारत में पश्चिम बंगाल और ऑडीसा अपवाद रहे लेकिन पूर्वोत्तर के नौ राज्यो में से नगालैंड और सिक्किम जैसे कुछेक को छोड़, अन्य राज्यो में भाजपा की सरकार बनती-बिगड्ती रही है. खुद बिहार की कोख से बने नये राज्य झारखंड तक में भाजपा को अपनी सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन भाजपा के सिर पर बिहार का सियासी ताज़ कभी नहीं रहा. ये अकाट्य तथ्य ही इसे साबित करने के लिये काफी है कि मतदाताओ के बीच साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर चुनावी जीत हासिल करने वाली भाजपा और उसके पूर्ववर्ती संस्करण, भारतीय जनसंघ को भी बिहार ने राजनीतिक रूप से हमेशा दुत्कारा है.
1960 के दशक में गैर-कांग्रेसवाद का सियासी चक्र शुरु होने पर कई राज्यों की तरह बिहार में भी संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) की गठित मिली-जुली सरकारों के दौर रहा, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के इस राजनीतिक अंग को स्वरूप को सरकार चलाने का मौका आज तक नहीं मिला है. हमारे लगभग सभी सियासी पंडित और चुनाव सर्वेक्षणकर्ता, विश्लेषण, एग्जिट-पोल आदि के लिये बुद्धु बक्सा (टीवी) पर पूंजीपतियो के धन से प्रायोजित कार्यक्रमो में महँगे कम्यूटर-सर्वर आदि की धौंस दिखाकर ‘गार्बेज इन गार्बेज आउट‘ के कागजी फार्मूले से चलते हैं और यही कचरा मतदाताओं के दिमाग में भरते रहते हैं। वो यह समझ ही नहीं पाते कि बिहार हिंदुस्तान का अलहदा सूबा है, जिसकी मिट्टी से राजनीतिक प्रतिरोध पैदा होते रहे हैं.
जो इतिहास नहीं पढते उनको कैसे पता हो कि यूनानी दार्शनिक प्लेटो के ‘द रिपब्लिक’ लिखने से पहले ही बिहार के वैशाली में विश्व का प्रथम गणराज्य बन चुका था. वैशाली गणराज्य, राजशाही के खिलाफ चले लम्बे राजनीतिक जन-प्रतिरोध का ही परिणाम था. यह पौराणिक आख्यान में जम्बू द्वीप नाम से निरुपित भारत के अनेक सम्राटों के बीच होने वाले भीषण युद्धों में लाखों की जान जाने के बाद, अहिंसा और शांति की खोज में राजकुमार सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध बन जाने की महान गाथा में भी परिलक्षित है. बिहार में राजनीतिक प्रतिरोध का इतिहास, 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में पटना को पश्चिम से घेरे दानापुर सैनिक छावनी से आगे बढ़े हथियारबंद संघर्ष की अनगिनत गाथाओ में भी दर्ज है.
ये गाथा अगली ही सदी में देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में पह्ली बार सत्याग्रह के रूप में चम्पारण की धरती पर दर्ज हुई. तब महात्मा गांधी ने शासकों के खिलाफ शासित अवाम को लड़ने के लिये बिल्कुल अलग अहिंसात्मक राजनीतिक संघर्ष के लिये सत्याग्रह का बिल्कुल नया हथियार सौंपां था.
बिहारियों के राजनीतिक प्रतिरोध की गाथा से भाजपा का पहला सीधा सामना 1990 के दशक में हुआ जब अयोध्या में राममंदिर निर्माण को चुनावी मुद्दा बनाने के लिये भाजपा के तत्कालीन शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी गुजरात के सोमनाथ मंदिर से एक मोटर वाहन की चेसिस को रथ का ‘स्वांग रूप’ देकर आगे बढे. हिंदुस्तान की सियासत के ‘आदि रथयात्री’ ने ये रथयात्रा अयोध्या तक के लिये ही निकाली थी. ज्यादातर लोग जल्द भूल जाते हैं पर इतिहास नहीं भूलता कि हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उस रथ के सारथी के रूप में ‘उत्तर-महाभारतीय’ झलकी भी दे दी गई थी. उस रथयात्रा को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के मौजूदा अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के सीधे आदेश पर बिहार के ही समस्तीपुर में रोक कर भाजपा के आदि रथयात्री को गिरफ्तार कर लिया गया था. बिहार में भाजपा की ‘चुनावी गिरफ्तारी’ तभी से है.
यही कारण है कि भाजपा बिहार का चुनावी पहाड़ खुद के दम पर कभी पार नहीं कर पाई. ये दीगर बात है कि भाजपा को राज्य में सत्ता में सांझीदार बनने का ‘राजयोग’ मिला है. लेकिन भाजपा को यह राजयोग उसके अपने दम पर नहीं मिला है. भाजपा को पिछले 15 बरस से बीच की अवधि के कुछ छोटे अंतराल को छोड किसी और के कंधे पर बैठ कर ही आंशिक सत्ता सुख मिला है. ये कंधा राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री एव जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के अध्यक्ष नीतिश कुमार का है. भाजपा को अपने कंधे पर ढोते रहने से नीतीश कुमार का कंधा इन 15 बरस में कितनी बार कितना दुखा है इसके बारे में उनकी दर्द्नाक ‘गाथ’ हम चुनाव-चर्चा के पिछले अंको में लिख चुके हैं. जरुरत पडी तो हम देखेंगे. लाज़िम है हम आगे और भी लिखेंगे.
‘सीपी नाम से चर्चित चंद्र प्रकाश झा ,यूनाईटेड न्यूज औफ इंडिया के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से रिटायर होने के बाद तीन बरस से अपने गांव में खेतीबाडी करने और स्कूल चलाने के साथ ही स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन भी कर रहे हैं. उन्होने भारत की आज़ादी , चुनाव , अर्थनीति , यूएनआई का इतिहास आदि विषय पर कई ई किताबे लिखी हैं.वह मीडिया विजिल के अलहदा ‘चुनाव चर्चा’ के स्तम्भकार हैं. वह क्रांतिकारी कामरेड शिव वर्मा मीडिया पुरस्कार की संस्थापक कम्पनी पीपुल्स मिशन के अवैतनिक प्रबंध निदेशक भी हैं, जिसकी कोरोना- कोविड 19 पर अंग्रेजी–हिंदी में पांच किताबो का सेट शीघ्र प्रकाश्य है.
मीडिया विजिल के लिये उनकी यदा-कदा सीपी कमेंट्री विभिन्न मुद्दो की उन बातो पर है जो गोदी मीडिया नहीं बताती है. उनका ‘चुनाव चर्चा’ कॉलम भी अलग से बरकरार रहेगा . बिहार विधान सभा चुनाव के लिये एक अक्टूबर से शुरु हो रहे नामांकन की पूर्व संध्या पर इस कमेंट्री में व्यक्त उनकी राय पर बहस आमंत्रित है .(सम्पादक)