बिहार चुनाव 2020: इस चुनाव में महिलाओं के मुद्दे और उनकी भागीदारी
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक दल प्रचार अभियान में जुटे हुए हैं। मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए नए-नए चुनावी वादों की बौछार हो रही है। सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव को लेकर घोषणा पत्र भी जारी किया है। इसमें सभी दलों की ओर से वोटरों को लुभाने के लिए बड़े-बड़े एलान हैं। लेकिन बिहार की राजनीति में जीत-हार का निर्णायक फैसला देने वाली महिलाओं के मुद्दे हमेशा की तरह इतने गौण क्यूँ है? राजनीतिक दल उन्हें आबादी के हिसाब से उम्मीदवारों की सूची में यथोचित हिस्सेदारी क्यूँ नहीं दे रहे? बावजूद इसके की महिला मतदाताओं ने पिछले विधानसभा चुनावों में सरकार बनाने में मुख्य भूमिका निभाई है। यह हमारे लोकतंत्र की विडंबना ही है कि आजादी के 73 साल बाद भी हम महिलाओं को लोकतंत्र में उनका हक नहीं दे पाए हैं। यह हमारे लोकतंत्र पर धब्बा भी है और सवाल भी है।
बिहार चुनाव में कुल मतदाता लगभग 7 करोड़ 79 लाख हैं, इनमें से 3.4 करोड़ महिला मतदाता है। फिर भी हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दे उपेक्षित ही हैं। कारण, राजनीतिक दलों में महिला उम्मीदवार को जीत-हार की गणित में कमजोर आंकना है। इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली की 2011 की रिपोर्ट भी इस विषय पर चिंता जता चुकी थी। इसमें कहा गया था कि भारतीय राजनीति का पुरुषवादी होना, संसद व विधानसभा में महिलाओं के लिए सीटें निश्चित न होना, फैमिली सपोर्ट का अभाव और पार्टियों का महिलाओं की काबिलियत को कम आंकना, राजनीति में महिलाओं की कमज़ोर स्थिति के प्रमुख कारण रहे हैं। इसलिए सभी राजनीतिक दल महिलाओं को प्रत्याशी बनाने से हिचकते हैं।
बिहार में महिलाओं की स्थिति को लेकर वरिष्ठ एक्टिविस्ट कंचनबाला( वर्तमान में लोजपा ने इनको प्रत्याशी भी बनाया है ) के हवाले से एक रिपोर्ट में कहा गया : ” ज्यादा महिला उम्मीदवार वो हैं, या तो अशिक्षित हैं या फिर बाहुबलियों या अपराधियों की पत्नी या विधवा हैं। ऐसी महिलाओं की कमी नहीं है, काबिल हैं और राजनीति में अंतर लाने की सम्भावना रखती हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टियां सिर्फ अशिक्षित या बाहुबलियों के घरानों की महिलाओं को ही तरजीह देती हैं”।
महिला भागीदारी की स्थिति क्या है?-
इस बार के विधानसभा चुनाव को देखें तो साफ है कि राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को 30 प्रतिशत उम्मीदवारी भी नहीं दि गई। 243 सीटों पर होने वाले चुनाव में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वाली पार्टी भाजपा ने 110 सीटों में से मात्र 13 सीटों पर महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है जबकि भाजपा के साथ ही गठबंधन में चुनाव लड़ रही जेडीयू ने 115 सीटों में से महज 22 सीटों पर महिलाओं को टिकट दिया है।
वहीं प्रमुख विपक्षी दल आरजेडी ने 144 सीटों में से 16 सीटों पर तथा महागठबंधन के सहयोगी दल कांग्रेस ने 70 में से मात्र 7 सीट और वामपंथी पार्टियों ने 29 में से सिर्फ़ 1 महिला उम्मीदवार को टिकट दिया है। लोजपा ने 134 सीटों में से 23 महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है।
जबकि महिलाओं को मौका मिला है तो अच्छा प्रदर्शन किया है।हम पिछले विधानसभा चुनावों को देखें तो 2015 के विधानसभा चुनाव में 28, 2010 के चुनाव में 34 और 2005 के चुनावों में 25 महिलाओं ने जीत दर्ज की थी।
महिला वोटरों की उपस्थिति पुरुषों से अधिक-
वाकई, ये आंकड़े चिंताजनक हैं। वह भी उस परिस्थिति में जब राज्य में महिला वोटरों की उपस्थिति पुरुषों की तुलना में अधिक है. 2010 में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 54.49 था जबकि पुरुषों का 51.12 रहा। इसी तरह 2015 में 60 फीसदी से ज्यादा महिलाओं ने वोटिंग में भाग लिया जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत सिर्फ 53 रहा। जबकि 2010 में मतदान का प्रतिशत 52.67 तथा 2015 में 56.66 था। इसके बावजूद राजनीतिक पार्टियां महिला मतदाताओं के प्रति उदासीन रवैया रखती है।
महिलाएं अब शासन में हिस्सेदारी मांगने लगी हैं-
महिलाओं में अब जागृति आ रही। जागरूकता का आलम यह है कि शक्ति नामक एक स्वयंसेवी संगठन के बैनर तले महिलाओं ने पंचायत चुनाव के बाद अब राजनीतिक दलों से विधानसभा चुनाव में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी की मांग शुरू कर दी है। इनका कहना है कि जब 50 फीसद महिला वोटर हैं तो 11 प्रतिशत महिला विधायक क्यों? इसी कड़ी में बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बीते सितंबर माह में सेल्फी विद अस कैंपेन के तहत 25 पार्टियों को आंकड़ों के साथ मांग पत्र भेजा गया। दावा है कि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े करीब 35 लाख लोगों ने इस अभियान को अपना समर्थन दिया है।
इस बार के विधानसभा चुनाव में महिलाओं के मन की बात और उनके मुद्दे-
बिहार विधानसभा चुनाव में महिलाएं मतदाता के रूप में प्रमुख और मजबूती से जब अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती हैं तो इनके मुद्दों को और प्राथमिकताओं को इस चुनाव में किसी भी अन्य मुद्दों से आगे रखना जरुरी है। खासकर महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़े हुए मुद्दों को।
पिछले कुछ वर्षों से बिहार में आर्थिक विकास व सामाजिक परिवर्तन हुआ है लेकिन महिलाओं की स्थिति में कुछ ज्यादा सुधार नजर नहीं आया।
महिला सुरक्षा बिहार में बहुत बड़ी समस्या है इसका बड़ा कारण तो कानून का सख्ती से पालन नहीं होना, अपराधी को राजनीतिक संरक्षण और रोजगार के लिए पुरुषों का पलायन है।
बिहार में साक्षरता दर तुलनात्मक रूप से अन्य राज्यों से कमतर ही है, उसमें भी महिला शिक्षा की हालात तो बदतर है। केवल 48 प्रतिशत लड़कियां ही स्कूल में पंजीकृत हैं। गरीबी, बाल विवाह, स्कूलों में शौचालय का न होना, पितृसत्तात्मक मानसिकता आदि कारणों से लड़कियों का कम नामांकन व स्कूल से ड्रॉपआउट जल्दी हो जाता है।
एक महिला का स्वास्थ्य- शिक्षा, रोजगार और गरीबी जैसे अन्य वृहद आर्थिक कारकों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। बाल विवाह, विशेष रूप से व्यापक रूप से प्रचलित है। और वास्तव में, हाल ही में एनएफएचएस डेटा ने पाया है कि बिहार में 20-24 वर्ष की आयु की 42% महिलाओं की शादी कानूनी उम्र तक पहुंचने से पहले ही हो गई थी। बाल विवाह के विनाशकारी परिणाम न केवल स्वास्थ्य की खराब स्थितियों, बल्कि उनकी शैक्षिक आकांक्षाओं और रोजगार की संभावनाओं पर भी अंकुश लगाते हैं।
महिलाओं को मिले रोजगार के समान अवसर। महिलाओं की बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। उन्हें समान अवसर नहीं मिलते। महिलाएं चाहती हैं कि उनके काम को गंभीरता से लिया जाए, समान मौके मिलें। महिला रोजगार के नाम पर महिलाओं की भागीदारी मुख्य रूप से घरेलू कार्य, कृषि व पशुपालन तक सीमित है।
इसके अलावा भी बिहार में महिलाओं से जुड़े मुद्दे हैं जिनपर गौर करने की जरूरत है, खुले में शौच से मुक्ति, ट्रांस कम्युनिटी को मुफ्त आवास, प्राइवेट महिला कर्मचारियों को पीरियड लीव, महिला हिंसा से मुक्ति, अंतरजातीय विवाह की स्वतंत्रता, जातीय उत्पीड़न, समाज मे लैंगिक भेदभाव से मुक्ति आदि मुद्दे भी महिलाओं के जीवन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं।
इन सभी संवेदनशील मुद्दों को सभी राजनीतिक दलों द्वारा प्रमुख शासन के एजेंडे के रूप में रखना चाहिए और सत्ता में आने पर इन मुद्दों पर प्राथमिकता से काम करना चाहिए। तब ही हम सामाजिक न्याय के तराजू में न्याय का पलड़ा मजबूत कर पाएंगे। अन्यथा सारी बातें फौरी साबित होती रहेंगी!
सभी प्रमुख पार्टियों के घोषणापत्रों में महिलाओं से जुड़ी घोषणाएं-
घोषणापत्र में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर बिहार राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष दिलमणि मिश्रा का कहना है कि, ” में आयोग में अध्यक्ष बनने से पहले साल 2010-15 में विधायक थी। उस वक़्त भी महिलाओं के मुद्दे घोषणापत्र में शामिल नहीं थे और आज भी न के बराबर हैं। महिला सशक्त तभी होगी, जब उन्हें निर्णय लेने की आजादी होगी। जब महिला सशक्त नहीं होगी, उनके साथ हो रही हिंसा में कमी नहीं आएगी”.
इसलिए हम एक नज़र डालते हैं सभी पार्टियों के घोषणापत्रों पर
भाजपा- संकल्प पत्र
- एनडीए सरकार ने बिहार में 10 लाख समूहों के माध्यम से 1.20 करोड़ महिलाओं के जीवन में रौशनी पहुंचायी है। अब हमने संकल्प लिया है कि स्वयं सहायता समूहों और माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं के माध्यम एक करोड़ महिलाओं को स्वावलंबी बनाएंगें।
जदयू- सात निश्चिय-2
- सात निश्चिय-2 के सशक्त महिला-सक्षम महिला कार्यक्रम के तहत महिलाओं में उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए विशेष योजना लाई जाएगी। इसके तहत उनकी ओर से लगाए जा रहे उद्यमों में परियोजना लागत का 50 फीसदी या अधिकतम 5 लाख रुपये तक का अनुदान और अधिकतम 5 लाख रुपये तक ब्याज मुक्त लोन दिया जायेगा।
- उच्चतर शिक्षा हेतु प्रेरित करने के लिए इंटर पास होने पर अविवाहित युवतियों को 25,000 रुपये और स्नातक होने पर महिलाओं को 50,000 रुपये की आर्थिक सहायता दी जाएगी। क्षेत्रीय प्रशासन में आरक्षण के अनुरूप महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जाएगी।
आरजेडी- प्रण हमारा संकल्प बदलाव का
- आंगनबाड़ी सेविका एवं सहायिका, आशा कर्मी, ग्रामीण चिकित्सकों, जीविका दीदियों की मांगों को पूरा किया जाएगा.
- जीविका कैडरों को नियमित वेतनमान पर स्थाई नौकरी के साथ समूहों के सदस्यों को ब्याज मुक्त ऋण देंगे.
कांग्रेस- बदलाव पत्र
- होनहार बेटियों को मुफ्त में स्कूटी देगी कांग्रेस
- सावित्रीबाई फुले शिक्षा योजना
इसके अलावा लोजपा ने मुफ्त बस यात्रा, आशा कार्यकर्ताओं को नियमित वेतन और पुष्पम प्रिया चौधरी के नेतृत्व वाली द प्लूरल्स पार्टी ने महिला सुरक्षा के लिए सीसीटीवी कैमरा लगाने जैसे वादे किए हैं।
सभी पार्टियों के घोषणापत्र देखने से यही पता चलता है कि कोई भी दल महिला मुद्दों पर ठोस बात नहीं बोलता है। अभी सभी राजनीतिक दल महिलाओं को साइकिल-पोशाक बांटने से ज्यादा अहमियत देना नहीं चाहते हैं। साथ ही यह भी देखना होगा कि बिहार चुनाव में सभी दलों के नेता अपनी रैलियों में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर क्या बोलते हैं। प्रधानमंत्री बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा तो देते हैं लेकिन महिलाओं से जुड़े मुद्दे पर तो बोलते हुए नजर नहीं आते हैं। ऐसे ही कुछ कमोबेश हालात विपक्षी नेताओं के हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि भारत की राजनीति अभी महिलाओं से जुड़े मुद्दों को गम्भीरता से नहीं लेती है।
निर्मल पारीक, मीडिया विजिल की इलेक्शन टीम के साथ इंटर्नशिप कर रहे हैं। पत्रकारिता के छात्र हैं और राजनीति में ख़ासी दिलचस्पी रखते हैं।