हमारे बच्चों के हत्यारे आख़िर कौन हैं?

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राजनीति Published On :


भारत में अथाह ग़रीबी है, लगभग 26 करोड़ की आबादी एक वक़्त का ही खाना जुटा पाती है और बच्चे कुपोषित होते हैं।इंसेफेलाइटिस और चमकी बुखार का प्रकोप होता है, बच्चे मारे जाते हैं। दंगे हों या महामारी, इनमें भी सबसे ज़्यादा मार बच्चे ही खाते हैं। समाज की गैर-बराबरी, बड़ों की हेठी, नेताओं की आपराधिक लापरवाही और सांप्रदायिक तानाशाही, सबका बोझ बच्चों के मासूम कंधे पर छोड़ दिया जाता है और बच्चे पीछे छूट जाते हैं। संकट से घिरे हमारे समय और समाज में ‘कोलैटरल डैमेज’ की तरह बरते जाने वाले बच्चों की हालत पर युवा पत्रकार आमिर मलिक ने मार्मिक टीप लिखी है, इसे उसकी भावुकता में डूबकर पढ़ा जाना चाहिए- संपादक


पितृसत्ता में जो सबसे ज़्यादा पीड़ा झेलती हैं, वो है औरत. औरत अगर गर्भवती हो तो मामला संगीन हो जाता है. और अगर औरत मुसलमान हो और गर्भवती हो तो उसे डॉक्टर भी हासिल नहीं होते. नतीजतन, बच्चे की मौत हो जाती है और औरत मलाल करती रहती है.

आपने बिहार के जहानाबाद की प्रवासी मज़दूर मां की चीख तो सुनी होगी. उसकी बच्ची इलाज न होने के कारण सड़क पर दम तोड़ देती है. वो चिल्लाती जाती है, “गे माई गे”.

रिज़वाना खातून भी मां बनने वाली थीं. वो गर्भवती थीं. जमशेदपुर अस्पताल आईं, जहां उन्हें कोरोना फैलाने का ज़िम्मेदार ठहराया गया. उन्हें कहा गया कि वो अपना ख़ून साफ़ करे, उनको चप्पल से मारा गया.

तीस साल की  रिज़वाना ने मुख्यंत्री हेमंत सोरेन को एक ख़त लिखा और कहा, “मुझे मेरे धर्म के नाम पर प्रताड़ित किया गया और मुझे ख़ून साफ़ करने को कहा गया. मुझे चप्पल से मारा गया. मैं कांप रही थी और घबराई हुई थी. मुझे पास के एक नर्सिंग होम ले जाया गया. वहां मुझे पता चला कि मेरा बच्चा मर चुका है”.

उस बच्चे का ख़ून जिसके हाथों हुआ, उस ख़ून को कौन साफ़ करेगा?

अभी पिछले दिनों स्टार ऑफ मैसूर के संपादकीय में आया कि झोले में से सड़े हुए सेब निकाल फेंकने चाहिए. संपादकीय ने साफ़ कहा कि भारत एक झोला है, जिसमें 18 प्रतिशत “rotten apples” यानी सड़े हुए सेब हैं और उनसे निजात मिलनी चाहिए.

राजस्थान के इरफ़ान ख़ान और उनकी गर्भवती पत्नी को कहा गया कि “तुम मुसलमान हो, तुम्हारा यहां कोई इलाज नहीं होगा”. ये सब भरतपुर ज़िला के सरकारी अस्पताल में हुआ. इरफ़ान बताते हैं, “मैं अपनी पत्नी को लेकर जयपुर के अस्पताल जा ही रहा था कि एम्बुलेंस में डिलीवरी हो गई. पैदा होते ही बच्चा मर गया.”

इस बच्चे की मौत से शायद एक और “सड़ा हुआ सेब” कम हो गया हो.

‘हिन्द’ यूं भी आजकल कोरोना में साफ़ दिखाई दे रहा है. प्रदूषण हटने से आंखों से धुंध छट चुकी है. दूर तक दिख रहा है. मैं 2017 में देखता हूं. उत्तर प्रदेश के बीआरडी मेडिकल कालेज, गोरखपुर में जापानी बुख़ार से कम, ऑक्सीजन की कमी से सैकड़ों बच्चे मौत के अंधेरे कुएं में समा दिये गये. तत्पश्चात, एक मंत्री ने बयान दिया, “अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं.”

लगता है, मंत्री ने अपने जीवनकाल में एक भी अगस्त नहीं देखा.

ऐसी त्रासदी के बावजूद, देश ने सवाल नहीं किया कि आखिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने बच्चों से सांसें क्यों छीन लीं. वहां उस समय, सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से भागते हुए, कोई बलि का बकरा ढूंढ़ रही थी. एक मुसलमान डॉक्टर से अच्छा बकरा भला और कौन हो सकता था? डॉक्टर कफ़ील ख़ान, जिन्होंने बच्चों की जान बचाने के लिए हरसंभव कोशिश की, उल्टे, सरकार ने उनको जेल में डाल दिया. डॉक्टर इस वक़्त भी क़ैद में हैं, और अपने मुसलमान होने की सज़ा काट रहे हैं.

बात ज़्यादा पुरानी नहीं है. बीते दिसंबर से इस साल जनवरी तक गुजरात और राजस्थान मिलकर 600 से ज़्यादा बच्चों को मौत के घाट उतार चुके हैं. इस बार मौत के कई कारणों में से एक कारण यह भी था कि अस्पताल में बच्चों को सर्द हवा लगती थी.

राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है. यहीं कोटा के जेके लोन हॉस्पिटल में 101, जोधपुर के उमैद और एमडीएम हॉस्पिटल में 146 बच्चों को अपनी जान गंवानी पड़ी. बीकानेर में सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के अधीन पीबीएम हॉस्पिटल में 124 नवजातों ने अपनी जान से हाथ धोया. वर्ष 2019 में 1,681 बच्चों के परिवार वालों ने उनको अंतिम विदाई दी.

सबसे हल्की लाश सबसे भारी होती है. 

गुजरात के राजकोट में दीनदयाल उपाध्याय हॉस्पिटल में पिछले साल दिसंबर में नवजात शिशुओं के मरने की संख्या, 111 थी, नवंबर में 71, अक्टूबर में 87 थी. ये वही राजकोट है जहां गांधी ने अपना बचपन गुज़ारा था. आज कितने ही गांधी बचपन में ही मार दिये गये. राजकोट की एक विशेषता और है कि यहां एक डॉल संग्रहालय है, जहां दुनियाभर के गुड्डे-गुड़ियों को सहेज कर रखा गया है. शायद जो बच्चे मर गये, इन गुड्डे-गुड़ियों से कम एहमियत रखते थे.

अहमदाबाद के सिविल हॉस्पिटल में दिसंबर के महीने में 85, नवंबर में 74 और अक्टूबर में 94 नवजात ने आखिरी सांस ली. सांस क्या ली, सांस न ले पाने के कारण इस दुनिया को अलविदा कहा. यह दुनिया जो एक बच्चे को सांस न दे सके, उसे अलविदा ही कह देना चाहिए.

सन 2017 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में पैदा होने वाले हर 1,000 बच्चों में से 33 मर जाते हैं. नये आंकड़ों का इंतज़ार है. ये बच्चे “bad apples” नहीं थे. बच्चे सेब होते हैं, सड़े हुए सेब नहीं होते. क्योंकि बच्चों का कोई धर्म नहीं होता.

दुनियाभर में हर 11 सेकंड में एक नवजात या उसकी मां मर जाती है. कारण स्वास्थ्य सेवाओं का हासिल न होना. अगर स्वास्थ्य सेवा हासिल हो जाये, तो हर सेकंड एक जान बचाई जा सकती है. कौन है जो जान लेने के लिए उनकी जान के पीछे पड़ा हुआ है? शायद पितृसत्ता से बच्चों को होने वाले नुक़सान का अभी पैरामीटर तय नहीं हुआ है.

राजेश रेड्डी लिखते हैं:

“मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा

बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है”