भीम आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेखर आजाद ने बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम के जन्मदिन पर नयी पार्टी के गठन की घोषणा की। ’’आजाद समाज पार्टी’’ नाम से गठित इस पार्टी के मुद्दे, सवाल और विमर्श के केन्द्र में कौन से समुदाय और जातियां होंगी, यह अभी आधिकारिक तौर पर साफ नहीं है, किन्तु ऐसा माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में खासकर दलित और पिछड़ी जातियों के वोटर के बीच ’’आजाद समाज पार्टी’’ अपना स्थान बनाने का प्रयास करेगी।
पार्टी के गठन के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने फिलहाल इतना ही कहा है कि उनकी पार्टी कांशीराम के अधूरे मिशन को पूरा करेगी। इस तरह से विश्लेषक यह मान रहे हैं कि चन्द्रशेखर आजाद अपना ध्यान दलित और पिछड़े मतदाताओं पर केन्द्रित करने, उन्हें एक साथ करने के अलावा प्रदेश के अल्पसंख्यकों को भी इन जातियों के साथ जोड़ने की कोशिश करेंगे।
बसपा के पतन से जो सियासी शून्य बना है, हम उसे भरने आये हैं!
गौरतलब है कि आजाद समाज पार्टी के गठन से ठीक पहले तक चन्द्रशेखर आजाद की भीम आर्मी भाजपा सरकार द्वारा देश के संवैधानिक ढांचे पर हमले, आरक्षण को कमजोर करने, एससी-एसटी एक्ट में हुए परिवर्तन तथा दलितों के उत्पीड़न पर सड़क पर आंदोलन करती आयी है। भीम आर्मी के इन आंदोलनों पर योगी आदित्यनाथ सरकार ने कड़ी कार्यवाही करते हुए चन्द्रशेखर आजाद पर रासुका भी लगाया था जिससे उन्हें कुछ समय तक जेल में रहना पड़ा था, हालांकि ’रहस्यमय’ तरीके से बाद में इसे वापस ले लिया गया था।
रासुका से अपनी रिहाई के बाद चन्द्रशेखर आजाद को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कोई आंदोलन करते नहीं देखा गया और उनके सारे आंदोलन दिल्ली केन्द्रित हो गए। यह दीगर बात है कि पार्टी को लांच करने की जगह पश्चिमी उत्तर प्रदेश थी और यह पार्टी उत्तर प्रदेश को ही अपना प्रारंभिक कार्यक्षेत्र बनाएगी।
अपनी पार्टी के गठन के बाद जब चन्द्रशेखर आजाद ने ’’कांशीराम तेरा मिशन अधूरा, आजाद समाज पार्टी करेगी पूरा’’ कहा, तब इस बात पर विमर्श जरूरी हो जाता है कि आखिर कांशीराम ने जिस राजनीति को स्थापित किया उसने किस तरह से और कितना दलित समुदाय को लाभान्वित और सशक्त किया? क्या इस दौर में भी उस रास्ते की प्रासंगिकता बची है? सवाल इस पर भी होना चाहिए कि आखिर कांशीराम का कौन सा “मिशन” अधूरा रह गया था जिसे उनकी प्रिय शिष्या मायावती पूरा नहीं कर सकी थीं और चन्द्रशेखर आजाद उसे पूरा करने के लिए कृतसंकल्प हैं?
’’द ग्रेट चमार’’ के नाम से जाति पर ’गर्व’ करने वाली सियासत के समर्थक चन्द्रशेखर आजाद को मायावती भाजपा का एक ऐसा एजेंट मानती हैं जो बसपा को नुकसान पहुंचाने के लिए ’फालतू’ सवालों पर सक्रिय रहता है। मायावती खुद को कांशीराम और आंबेडकर का वास्तविक वारिस मानती हैं। इस पार्टी के गठन की घोषणा के बाद पहले से ही ’विश्वसनीयता’ का संकट झेल रही बसपा के कान खड़े हो गये हैं और उनके नेता पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने बचे खुचे जनाधार को संभालने में लग गये हैं।
अब, जबकि चन्द्रशेखर आजाद राजनीति में उतर आए हैं तो राजनैतिक हलकों में यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या भीम आर्मी ने खुद को ’राजनैतिक पार्टी’ में बदल कर कोई जल्दबाजी या सियासी गलती तो नहीं की है? सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि आखिर यह पार्टी किस दल के जातिगत आधार में सेंध मारेगी? क्या यह पार्टी दलित और पिछड़े समुदाय को सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलवा पाएगी या फिर वक्त के साथ यह भी बसपा की तरह हिन्दुत्ववादी ताकतों के साथ कंधा मिलाकर खड़ी होगी और फासीवाद को मजबूत करने का नया अध्याय लिखेगी?
सियासी हलकों में बहस इस बात पर भी हो रही है कि कांशीराम ने जिस राजनैतिक संस्कृति को मजबूत किया उससे देश के दलितों को क्या वास्तव में कोई लाभ हासिल हुआ और क्या वह अपने सबसे बड़े शत्रु हिन्दुत्व के फासिज्म को शिकस्त देने के लिए तैयार हो सके? अगर हां, तो कितना और नहीं तो क्यों?
इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए हमें भीम आर्मी के अब तक की कार्यविधि और सियासी दिशा का विश्लेषण करना चाहिए। जहां तक भीम आर्मी का सवाल है, अब तक यह संगठन आंबेडकर और कांशीराम के नाम पर जातीय आधार पर दलितों को गोलबंद करने का काम कर रहा था। “द ग्रेट चमार” जैसा शब्द इसी जातीय गरिमा और जाति आधारित सियासी गोलबंदी को दर्शाता है जिसका चुनावी लाभ लेने के लिए चन्द्रशेखर ने राजनैतिक पार्टी का गठन किया है।
जब चन्द्रशेखर आजाद रासुका के तहत जेल में बंद थे तब उनकी रिहाई के लिए अभियान चलाने वाले प्रख्यात आंबेडकरवादी एक्टिविस्ट और भूतपूर्व पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी से चन्द्रशेखर आजाद की सियासी समझ और कांशीराम को आदर्श मानने के बारे में लंबी बात की गयी थी। दारापुरी का कहना था कि जाति के आधार पर सियासी एकजुटता ’संघ’ की राजनीति है। दारापुरी, कांशीराम को दलित राजनीति को मजबूत करने के नाम पर पर ’संघ’ का वफादार सियासी सिपाही मानते हैं। वह कहते हैं कि कांशीराम दलितों में वापमंथ के प्रति रुझान को खत्म करने वाले संघ पोषित प्रयोग के कार्यकर्ता थे।
वह कहते हैं कि डाॅ. आंबेडकर की पूरी शिक्षा ब्राह्मणवाद के खिलाफ खड़ी होती है। वह जातिविहीन समाज की बात करती है और दलितों को संघर्ष करना सिखाती है, लेकिन कांशीराम ने अपने सियासी जीवन में ही डॉ. आंबेडकर के संघर्ष के संदेश का गला घोंट दिया और दलितों को सौदेबाजी सिखायी। वह आंबेडकर के जाति विनाश के ठीक उल्टा जाति को मजबूत करने में करने में यकीन करते थे।
जब चन्द्रशेखर आजाद कांशीराम के मिशन को पूरा करने की बात करते हैं तब यह साफ हो जाता है कि वह भी बसपा से इतर जातियों को जोड़कर सत्ता सुख लेने से ज्यादा कुछ ऐसा नहीं चाहते जिससे दलित अपनी मुक्ति के मूलभूत सवाल पर आगे बढ़ सकें। उनके मुताबिक चन्द्रशेखर का पार्टी बनाना दलित राजनीति में मायावती का स्थान भरना है, लेकिन कांशीराम के प्रशिक्षित बसपा के इन वोटर्स को कोई नयी दिशा दे पाने की क्षमता चन्द्रशेखर में नहीं है और चन्द्रशेखर ऐसा कुछ करने भी नहीं जा रहे हैं।
दारापुरी कहते हैं कि चन्द्रशेखर आजाद मायावती के फिक्स दलित वोट को बिना बदलाव के अपनी तरफ आकर्षित करना चाहते हैं। यह बहुत मुश्किल काम है क्योंकि बसपा ने दलितों को संघ के नजदीक किया है। अगर मायावती कमजोर होती हैं तब दलितों की मुस्लिम विरोधी घृणा उन्हें भाजपा के साथ ही खड़ा करेगी। दारापुरी यह मानते हैं कि चन्द्रशेखर के पास ऐसा कुछ नहीं है कि दलित मायावती और संघ के आकर्षण को छोड़कर उनकी तरफ ’वोटर’ के बतौर निर्णायक रूप से आकर्षित हों।
चन्द्रशेखर की राजनीति पर नज़र रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शम्स तबरेज़ कहते हैं कि चन्द्रशेखर आजाद का एक संकट और है। वह मायावती से ज्यादा व्यक्तिवादी हैं। हद से ज्यादा व्यक्तिवादी होने का यह संकट उन्हें विज़नरी नहीं होने देता। उनके पास उत्साही नौजवानों की टीम है लेकिन काम करने का कोई लंबा विज़न इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकि इनके पास कोई कोई थिंक टैंक या फिर एकेडमिक रुझान के आदमी नहीं हैं। ये लोग पढ़े लिखे लोगों से भागते भी हैं। जो लोग इनके साथ हैं वह सिर्फ अवसरवादी और संदिग्ध समझ के लोग हैं।
बात यहीं तक सीमित नहीं है। कई लोग यह कहते हैं कि चन्द्रशेखर के पास सांप्रदायिकता का भी कोई माकूल हल नहीं है। वह यह सवाल पूछते हैं कि बसपा के उभार के बाद दलितों में मुसलमानों के प्रति जो सांप्रदायिक और धार्मिक घृणा भरी गयी है उसे वह किस तरह से खत्म करेंगे? बिना इस घृणा को खत्म किए मुसलमानों को चन्द्रशेखर के साथ क्यों खड़ा होना चाहिए?
वैसे भी अब तक के अनुभव इस बात की तसदीक करते हैं कि ’जाति’ की गोलबंदी की राजनीति हर तरह से ’हिन्दुत्व’ को मजबूत करने की राजनीति है। प्रख्यात दलित लेखक और “कांशीराम के दो चेहरे” जैसी प्रख्यात पुस्तक के लेखक कंवल भारती चन्द्रशेखर आजाद को दूसरा मायावती मानते हैं। उनका मानना है कि चन्द्रशेखर की समूची राजनैतिक कार्यशैली मूलतः बसपा से प्रभावित है। इसलिए यह मानना कि दलित मुक्ति के असली सवाल पर चन्द्रशेखर आगे बढ़ेंगे, बहुत बचकानी बात होगी।
कुल मिलाकर चन्द्रशेखर आजाद इस समय कोई कैडर आधारित राजनीति करने नहीं जा रहे हैं। उनका प्रयास यही है कि बसपा के कमजोर होने का लाभ उन्हें मिले। इसीलिए अब वह कांशीराम के अधूरे मिशन को पूरा करने के लिए राजनीति में उतर रहे हैं। यह बात अलग है कि कांशीराम ने कभी यह नहीं कहा कि बसपा उनके तय किए उद्देश्य से भटक गयी है। फिर उनका कौन सा मिशन अधूरा रह गया है जो अभी चन्द्रशेखर पूरा करेंगे?
कांशीराम को सत्ता मिली थी और उससे दलितों के वास्तविक सवाल किस स्तर तक हल किये गये थे, इस पर बात होनी चाहिए। असल में कांशीराम का कोई मिशन अधूरा बचा ही नहीं था। यह मूलतः कांशीराम के नाम पर खुद को स्थापित करने का एक जुमला भर है जिसका कोई सियासी वंशज नहीं है। जाहिर है चन्द्रशेखर की राह आसान नहीं है।