समय और चित्रकला ‘ शीर्षक से प्रख्यात चित्रकार अशोक भौमिक की लेख शृंखला की यह सातवीं कड़ी पहली बार 31 मई 2020 को मीडिया विजिल में प्रकाशित हुई थी। कोरोना की पहली लहर के दौरान चित्रकला पर महामारियों के प्रभाव की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए अशोक दा ने दस कड़ियों की यह साप्ताहिक शृंखला लिखी थी। साल भर बाद भारत दूसरी लहर से मुक़ाबिल है तो हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। इस बार यह शृंखला लगातार दस दिन तक प्रकाशित होगी- संपादक।
हजारों सालों से पृथ्वी पर तरह तरह की महामारियाँ आती जाती रही हैं। इन महामारियों की चपेट में आकर जहाँ बड़ी संख्या में लोग मरते रहे वहीं मनुष्य ने भी इनसे लड़ने के लिए नए नए प्रतिरोधकों और औषधियों का निर्माण किया।महामारियाँ कितनी भी असाध्य और व्यापक क्यों न रही हों, जीत अन्ततः मनुष्य की ही हुई। औषधि विज्ञान के विकास में प्राचीन और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों की महत्वपूर्ण भूमिका रही क्योंकि इन्हीं दस्तावेज़ों में दर्ज विभिन्न ब्योरों से अतीत की महामारियों के बारे में जाना जा सका है। यूरोप में ऐसे दस्तावेज़ीकरण में मठों और देवालयों की बड़ी भूमिका रही है। स्वाभाविक रूप से ही इन दस्तावेज़ों में धर्म का स्थान सर्वोपरि रहा है, पर इन्हीं में विज्ञान को अनेक जरूरी तथ्य भी मिले जिसके आधार पर सैकड़ों वर्ष पहले किसी महामारी के वर्णन से वैज्ञानिकों ने उस रोग को पहचाना। जैसा कि हम जानते हैं- ‘प्लेग’ शब्द का प्रयोग कई प्रकार की महामारियों के लिए किया जाता रहा है, पर सही मायने में प्लेग को दस्तावेज़ों और चित्रों में वर्णित उसके लक्षणों के अध्ययन से ही चिन्हित करना संभव हो सका। उदाहरण के लिए फ्रांस के लान्स्लेविलार्ड नाम के गाँव में स्थित सेंट सबेस्टीन चैपल में सन 1355 में निर्मित भित्तिचित्र को देखा जा सकता है। इस चित्र में एक चिकित्सक को ‘प्लेग’ के रोगियों का इलाज करते हुए दिखाया गया है (देखें ऊपर मुख्य चित्र)। इस चित्र को देखकर ज्ञात होता है कि इसमें जिस रोग का उल्लेख है, वह प्लेग ही है। हम जानते हैं कि काँख और गर्दन पर गिल्टियों का निकलना प्लेग रोग का एक प्रमुख लक्षण है और जब हम चित्र में चिकित्सक को रोगियों की काँख और गर्दन पर निकली गिल्टियों का इलाज करते हुए देखते हैं तब इस निष्कर्ष पर सहजता से पहुँचा जा सकता है कि चौदहवीं शताब्दी में यूरोप में प्लेग महामारी आई थी। पर जैसा कि धार्मिक दस्तावेज़ों में ऐसे दृश्य स्वाभाविक हैं, हम इस चित्र की पृष्ठ भूमि में प्लेग रोग को मिटाने वाले देवदूत और चमगादड़ की शक्ल वाले प्लेग रोग को उपस्थित पाते हैं। मूल रूप से एक धार्मिक चित्र होने के बावजूद इस चित्र में वैज्ञानिकों के लिए कई महत्त्वपूर्ण तथ्य मौजूद हैं।
लम्बे समय से प्लेग को चमगादड़ या चूहों द्वारा फैलाई गयी महामारी के रूप में जाना गया। फेर्निनैंड वान कैसेल (1648 -1696) के एक चित्र में नाचते हुए पाँच चूहों को देखा जा सकता है ( देखें चित्र 2 )। 1690 में बने इस चित्र का सीधा सम्बन्ध प्लेग से है या नहीं, इस पर इतिहासकारों में मतभेद है, बावजूद इसके अपने आप में यह एक ऐतिहासिक चित्र है। प्लेग के साथ चूहों को जोड़ कर देखने के कारण जहाँ एक ओर चूहे पकड़ने के लिए चूहेदानी और चूहों के पिंजरों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता रहा है, वहीं चूहे मारने की दवाएँ भी बनाई और बेची गयीं।
(चित्र -2)
विश्व कला इतिहास के अन्यतम चित्रकार रेम्ब्रन्ट वैन रीन (1606 -1669) ने 1632 में एक छापाचित्र ‘चूहामार दवा बेचने वाला’ शीर्षक से बनाया था (देखें चित्र 3)। यह चित्र अपने आप में एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है जो सत्रहवीं शताब्दी के यूरोपीय प्लेग के दौर की एक बेहद साधारण सी लगने वाली घटना को पूरी कलात्मकता के साथ एक महान कलाकृति के रूप में प्रस्तुत करता है।
(चित्र -3)
आधुनिक काल की महामारियों पर बड़ी संख्या में दस्तावेज़ी चित्र नहीं बने हैं। निश्चय ही फोटोग्राफी के लोकप्रिय होने और पत्रकारिता में इसके बढ़ते प्रयोग के कारण ही शायद चित्रकारों ने सीधे महामारियों के चित्र न बना कर व्यञ्जनों और रूपकों के माध्यम से चित्रों में महामारी को दर्शाया है। ऐसा करते हुए प्रायः उन्होंने मौलिक कल्पनाशीलता के स्थान पर युगों से चली आ रही अवधारणाओं को ही अपने चित्रों का आधार बनाया । स्विस चित्रकार अर्नाल्ड बॉकलिन (1827-1901) के चित्रों से इस बात को बेहतर समझा जा सकता है। अर्नाल्ड बॉकलिन ने अपने चित्रों में अनेक बार मृत्युदूत, मृत्युद्वीप, महामारी और दैवी अभिशापों को चित्रित किया है। उनके चित्रों में से 1898 में बनाये गए ‘प्लेग’ चित्र ( देखें चित्र 4 ) में प्लेग को एक अतिकाय चमगादड़-नुमा जानवर पर सवार होकर एक गली के अन्दर आकर लोगों को मारते हुए दिखाया है। इसके हाथ में एक धारदार अस्त्र भी है। चित्र में जमीन पर एक मृत महिला के ऊपर लाल वस्त्र पहने एक दूसरी महिला को हम विलाप करते हुए पाते हैं।
(चित्र -4)
भारतीय कला प्रेमियों के लिए इस चित्र का एक अलग महत्त्व भी है क्योंकि कई इतिहासकारों के अनुसार इस चित्र को अर्नाल्ड बॉकलिन ने मुंबई के प्लेग के बारे में अख़बारों से मिली खबरों के आधार पर ही बनाया था। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक बम्बई भारत का एक बड़ा वाणिज्यिक केन्द्र बन चुका था जहाँ बड़ी संख्या में ( लगभग 70 %) प्रवासी मजदूर थे। 1898 में भारत के अन्य महानगरों की तरह मुम्बई भी प्लेग से बुरी तरह प्रभावित हुआ था। 1891 की जनगणना में मुंबई की आबादी जहाँ 8,20,000 थी वहीं 1901 में यह घट कर 7,80,000 रह गयी थी। शहर की जनसंख्या में गिरावट का एक कारण बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूरों का पलायन भी था किन्तु उपलब्ध आँकड़ों से यह भी पता चलता है कि इस प्लेग के दौर में बम्बई में प्रति सप्ताह 1900 मौतें हुई थीं। किसी भारतीय चित्र में इस महामारी का चित्रण हुआ हो, ऐसी कोई जानकारी हालाँकि हमारे पास नहीं है किन्तु भारतीय साहित्य में इसका उल्लेख बेहद विस्तार से मिलता है।
भारतीय उपन्यास सम्राट शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के ‘श्रीकांत’ उपन्यास में न सिर्फ़ उन्नीसवीं शताब्दी की इस प्लेग महामारी का उल्लेख हुआ है, बल्कि पहली बार भारतीय साहित्य में ‘क्वारेन्टाइन’ (संगरोध) जैसे शब्द का जिक्र हुआ। प्लेग महामारी के इस दौर को सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने भी करीब से देखा था और अपने उपन्यास ‘कुल्ली भाट’ में समाज और रिश्तों पर इस महामारी के प्रभाव का वर्णन किया। 1770 में बंगाल में फैले चेचक और भुखमरी की गिरफ़्त में तड़पते हुए ‘पदचिन्ह’ नामक गाँव के लोगों की दुर्दशा को बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘ आनन्दमठ ‘ में चित्रित किया था। 1898 के प्लेग में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की पत्नी और पुत्र की मृत्यु इसी महामारी से हुई थी। विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय अपने उपन्यास ‘आरण्यक’ में महामारी के एक दूसरे पहलू को केंद्र में लेकर आते हैं। इस उपन्यास में विभूति बाबू ने ‘सूअरमारी’ बस्ती में दलितों की भयंकर गरीबी और उनके बीच फैले हैजा का चित्रण किया है। ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास ‘धात्री देवता’ में हैज़ा की महामारी के दौरान राष्ट्र सेवा को समर्पित युवक शिवनाथ की कहानी है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर अपने उपन्यास ‘चतुरंग’ में महामारी के तत्कालीन समाज के धार्मिक परिप्रेक्ष्य की छानबीन करते हुए दिखते हैं और उपन्यास में ‘नास्तिक’ ताऊ जी को जन सेवा में अपने जीवन की आहुति देने वाले एक अविस्मरणीय चरित्र के रूप में स्थापित करते हैं।
भारतीय साहित्य की इन महत्वपूर्ण कृतियों में जब हम बार बार महामारी, भुखमरी और अन्य प्राकृतिक विपदाओं के चलते पीड़ित जनता के दुःख-दर्द की कहानियों का सार्थक चित्रण देखते हैं तो मन में सहज ही प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हुआ कि भारतीय चित्रकला ने अपने समय के यथार्थ से मुँह मोड़कर ईश्वर की आराधना में लीन, भक्त की भूमिका में सदियाँ गुज़ार दी ?
अशोक भौमिक हमारे दौर के विशिष्ट चित्रकार हैं। अपने समय की विडंबना को अपने ख़ास अंदाज़ के चित्रों के ज़रिये अभिव्यक्त करने के लिए देश-विदेश में पहचाने जाते हैं।
जनांदोलनों से गहरे जुड़े और चित्रकला के ऐतिहासिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य पर लगातार लेखन करने वाले अशोक दा ने इतिहास के तमाम कालखंडों में आई महामारियों के चित्रकला पर पड़े प्रभावों पर मीडिया विजिल के लिए एक शृंखला लिखना स्वीकार किया है। उनका स्तम्भ ‘समय और चित्रकला’, हर रविवार को प्रकाशित हो रहा है। यह सातवीं कड़ी है। पिछली कड़ियाँ आप नीचे के लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
पहली कड़ी- धर्म, महामारी और चित्रकला !
दूसरी कड़ी- महामारियाँ और धार्मिक चित्रों में मौत का ख़ौफ़ !
तीसरी कड़ी- महामारी के दौर मे धर्मों और शासकों का हथियार बनी चित्रकला !
चौथी कड़ी- धर्म, मृत्युभय और चित्रकला : पीटर ब्रॉयगल का एक कालजयी चित्र
पाँचवीं कड़ी- महामारी में यहूदियों के दाह का दस्तावेज़ बनी चित्रकला !
छठवीं कड़ी – अपोलो का ‘प्लेग-कोप’, पंखों वाला मृत्युदूत और चोंच वाला डॉक्टर !