बात आज से करीब बीस साल पहले की है जब पापा नहीं रहे. हम मम्मी को लेकर कुछ दिनों के लिए दिल्ली चले आये. पापा के जाने से मम्मी devastated थीं. रसोई की खिड़की से बाहर एकटक देखती रहतीं, तो कभी बालकनी से दूर कहीं देखतीं रहतीं.
मम्मी बुझी आवाज से अक्सर पूछा करतीं, “ क्या किसी के मर जाने से सब कुछ ख़त्म हो जाता है?
उन दिनों हम लोग मम्मी की इस बात का मतलब नहीं समझ पाते थे. आज एक बात तो यह समझ में आ ही गयी है कि ये मौत जो है न, बड़ी कमीनी चीज है कसम से.
चचा ग़ालिब लाख इसकी तारीफ़ में कुछ भी कह लें, आनंद बख़्शी लाख कह लें कि ‘..मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी..’ पर हकीकत ये है कि मौत दरस्ल बड़ी कमीनी चीज है. वह इसलिए कि एक इंसान के मौत से दुनिया के लिए महज एक इंसान ख़त्म होता है पर उस इंसान के लिए पूरी दुनिया ख़त्म हो जाती है. एक झटके में वह सारे पेड़, जंगल, नदी, समंदर, सड़क, बाजार, जुलुस, गाजीपुर-सिंघु-टिकरी बॉर्डर के आन्दोलन…बहस, लेक्चर, लोकनाथ, अल्लापुर, राजपुर रोड का मकान, पंकज जी के घर की महफ़िल…सब ख़त्म हो जाती है जिसे उसने एक-एक कर संजोया था.
अब ये भी भला कोई बात हुई? कहाँ एक ओर पूरी सृष्टि और कहाँ एक अकेला इंसान. बहुत गलत बात है. गब्बर भाई से पूछिए तो वह बोलेंगे, “ बहुत नाइंसाफी है!”
मौत की एक खासियत यह भी है कि मरने के बाद इंसान वाशिंग पाउडर निरमा से धुल जाता है. दंगाई नेता से लेकर टीवी पर दिन-रात जहर उगलने वाले पत्रकार सब पर यह बात फिट होती है. बेशक पिछले सात वर्षों से यह सुविधा भाजपा में शामिल होने पर भी मिल रही है, पर खुदा कसम एक बार मर के तो देखिये, दुनिया कहाँ-कहाँ से आपमें अच्छाई ढूंढ कर ही दम लेगी. इसे ‘general theory of hypocrisy ’ का नाम दिया जा सकता है.
वर्माजी जैसे लोग भला इससे कैसे बच कर रहते जिन्हें जीते जी ‘महानता’ की सलीब पर चढ़ा दिया गया?
ओह, माई गॉड!!!
ये पिक्चर का नाम है. आप अन्यथा न लीजिये. इस पिक्चर में एक कमाल का डायलाग है, ‘लोगों से उनके भगवान मत छीनो. वह तुम्हें भगवान बना देंगे!’
यह डायलाग हम ‘वामपंथियों’ से बेहतर कौन समझ सकता है. मार्क्स ने एक पुस्तिका में एक लम्बा पैरा लिखा जिसमें एक वाक्य था ‘ धर्म जनता का अफीम है।’
अफीम बुरी बला है क्योंकि यह महँगी है, आसानी से उपलब्ध नहीं होती. इससे देसी दारु कहीं अच्छी चीज है. सो, हमने लप्प से इस लाइन को बाकी पैरा से काट कर अलग किया और किसी दयानंद सरस्वती की तरह बांग लगा कर चीखे,”महुए की और लौट चलो।”
यह हमारा भक्तिकाल 2.0 था जहां भक्ति बरकरार थी बस देवताओं से हट कर अब वह कुछ महान लोगों की और shift हो गयी थी . धन्य हैं स्वामी मार्क्स! आज से सभी देवी-देवता-धरम OUT और आप, आपके दोस्त आपके चेले IN. ‘Dharmagranthas’ OUT. मार्क्स रचनावली,लेनिन-पेनिन, माओ-ताओ रचनावली IN.
जल्द ही देवताओं की जगह ‘महान नेताओं’ ने ले ली और धर्मग्रंथों की अलमारी मार्क्स रचनावली,लेनिन-पेनिन, माओ-ताओ रचनावली से भर गयी. यह दरअसल आम ‘बेवकूफ-भोली-भली-अनपढ़’ जनता द्वारा रचा गया एक बहुत ही शातिर षड्यंत्र था जिसके फेर में सदियों से भतेरे लोग आये. वर्मा जी उन्ही में एक हैं. षड्यंत्र बड़ा innocent है जिसका कुल लब्बोलुआब है- ‘अच्छे-भले हँसते-खेलते इंसान को ‘महान’ बना दो.
वर्माजी भी ‘महान’ बना दिए गए हैं. इस महान बनाने के षड्यंत्र की खूबी इसकी मासूमियत में है. किसी को ‘महान’ या ‘larger than life’ बनाते ही आप ‘सामान्य’ या ‘minion’ बन जाते हैं जिसका एकमात्र अर्थ है आप सभी जिम्मेदारियों से मुक्त हुए.
दूसरी ओर इन ‘सामान्य’ लोगों के षड्यंत्र में फंसे उस ‘महान’ इंसान को अचानक एक दिन महसूस होता है उसके कान में कुली फिल्म के शब्बीर कुमार का गाना बज रहा है- “सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं…!”
मगर तब तक अक्सर बहुत देर हो चुकी होती है. वर्मा जी की ही बात ले लीजिये . एक अदद पत्रिका निकालनी चाही पर यहाँ भी फिर वही ‘महान vs सामान्य’ का मामला फंस गया. जब पत्रिका शुरू करने चले तब काफी लोग साथ खड़े मिले पर जल्द ही पता लगा कि,
“चले थे दोस्तों के साथ जानिब-ए-मंज़िल मगर
दोस्त चाय की दुकान की और मुड़ते गए कारवां घटता गया…!”
एक दिन पता लगता है कि खुद ही पत्रिका के लिए लिख रहे हैं, प्रिंटर के पास जा रहे हैं, डाक –टिकट चिपका रहे हैं, डाकखाने जा रहे हैं और पूरा खर्चा भी अपने जेब से. क्यों? क्योंकि वर्माजी घोषित तौर पर ‘महान’ है.
सवाल उठता है की ठीक उस समय ‘सामान्य लोग ( पढ़िए भक्त लोग)’ क्या कर रहे हैं? वह ‘इतिहासबोध’ पत्रिका को पढ़ रहे है! गजब का Division of labour है.
खुदा कसम, एडम स्मिथ कभी टहलते घूमते अल्लापुर आ जाते तो अपने ‘वेल्थ ऑफ़ नेशंस’ से ‘पिन फैक्ट्री’ के किस्से को डिलीट कर वहाँ इतिहास बोध का एक्साम्प्ल फिट करते. यह Division of labour ही था जिसके चलते वर्माजी के घर में धड़ल्ले से कभी भी पहुँच जाना, रसोई में धावा बोलना, खाना पकाना और खा कर चले आना हम ‘सामान्य लोगों’ का हक़ था जबकि जूठे बर्तनों को, कमरे को साफ़ करने का जिम्मा हमारा नहीं किसी और का था ( फिर वह कोई भी हो).
वर्माजी हमेशा यह कहते हैं कि ‘अपने को गंभीरता से लो!’
गुरु का आदेश था. हम कैसे इनकार करते? हमने अपने को उसी दिन से गंभीरता से लेना शुरू कर दिया. खासकर अपनी जेबों को. बरसों पत्रिका पढ़ी पर हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि धोखे से भी वर्माजी को पूछ न लें कि , ‘वर्मा जी, पत्रिका का खर्चा कैसे निकल रहा है?”
आपने कभी दीवार/कुली/ जंजीर में अमिताभ को पूछा कि “तुमने खाना खाया?” कभी नहीं पूछा. वह महान ही क्या जिसे भूख लगे, प्यास लगे? Division of labour यहाँ भी स्पष्ट है. वह हमारी ओर से विलेन से लड़ेगा, मार खायेगा और हम मूंगफली चबा कर घर आ जायेंगे. मरहम-पट्टी कौन करेगा यह हीरो जाने और उसका काम जाने.
हमने भी यही किया. हमने मान लिया कि वर्माजी को मकान का किराया नहीं देना पड़ता, राशन पानी नहीं खरीदना पड़ता, कोई खर्चे नहीं है. यह सारे खर्चे केवल हमारे लिए हैं. क्योंकि वर्माजी ‘महान’ हैं! और हम ‘सामान्य’ हैं.
धीरे–धीरे एक वक्त ऐसा आया जब ‘इतिहासबोध’ बंद हो गया. हम ‘सामान्य’ लोग न इस पत्रिका के निकलने से खुश रहे और न ही इसके बंद होने से दुखी हुए. वर्माजी इसी बीच एक किताब के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, पर्चे पर परचा लिख रहे हैं और मजे की बात कि छपवा भी रहे हैं. झम्म से ‘इतिहासबोध-प्रकाशन’ भी शुरू कर दिया. अपनी रचनाओं को लेकर साल दर साल दिल्ली के पुस्तक मेले में आ रहे हैं. तबीयत ठीक न रहने के बाद भी दिन-दिन भर अपने स्टाल में एक स्टूल पर बैठे हैं. हम ‘सामान्य जन’ वहाँ अपने इस महान व्यक्ति से मिलने तो जाते थे पर कभी जानने की कोशिश नहीं की कि इस उम्र में कोई कैसे दिन भर बैठ सकता है? कि किताबों को छपवाने के पैसे का जुगाड़ कहाँ से हो रहा है? खासकर तब जब एक ऊँचे दर्जे के इतिहासकार होने ,गोरखपुर, मणिपुर और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों में पूरा जीवन पढ़ने के बाद भी पर कुछ दफ्तरी ग़लतियों की वजह से उन्हें पेंशन भी नहीं मिल सकी। यक़ीन करना मुश्किल है पर कई बार वे ख़र्च के लिए दिल्ली आकर कोचिंग में भी पढ़ा जाते थे।
एक वाकया याद आ गया।
मानिक बंदोपाध्याय बंगाल के एक खासे अच्छे लेखक हुए हैं. एक बार उनके घर पर कुछ लोग पहुँचते हैं. कहते हैं, “ मानिक बाबू हम आपके लिए एक सम्मान समारोह आयोजन कर रहे है.” मानिक बंदोपाध्याय उनसे बोले, “ मुझे किसी सम्मान समारोह में जाने में दिलचस्पी नहीं है. अगर वाकई आप मेरा सम्मान करना चाहते हैं तो लोगों से कहिये कि मेरी किताबें खरीदें जिससे मुझे रायल्टी के पैसे मिले और मेरा घर चले.”
जाहिर है मानिक बंदोपाध्याय भी इसी महान बनाये जाने के षडयंत्र का शिकार हुए.
अभी महीने भर पहले वर्माजी से बात हो रही थी. मैं कुरेद-कुरेद कर इतिहासबोध और उनके प्रकाशन के बारे में पूछता रहा. मैं उनके economic नब्ज को टटोल कर देखना चाह रहा था. जो सुना वह भयानक था. साल दर साल वह पत्रिका निकलते रहे पर किसी ने उन्हें किसी भी तरह के आर्थिक मदद की पेशकश नहीं की. जिन्होंने की भी तो वह नियमित नहीं थी.
एक नियमित पत्रिका भला अनियमित आर्थिक संसाधन के कैसे चल सकती है? इतिहास बोध में वह नाम बदल कर लिखते रहे फिर काम भी बदल लिया. एडिटर से सर्कुलेशन मैनेजर और चपरासी सबकुछ अकेले. दूसरी और रजनी आंटी चुपचाप उस घर/रसोई/ जूठे बर्तनों को सहेजने में लगी रहीं जिनको हमने ‘बेधड़क’ गन्दा किया है. जिस ‘बेधड़कई’ से हम सामान्य लोग वर्माजी के घर धावा बोलते रहे क्या एक बार भी हम में से किसी ने उनको कहा कि आज आपकी बारी. वर्माजी आज आप अपने वानर सेना के साथ हमारे घर कूच करो.
भला क्यों करते? हम ठहरे ‘सामान्य’ लोग. वर्माजी तो महान हैं ऊपर से हमने अब उनकी एक बात को गाँठ बांध लिया है –‘खुद को गंभीरता से लो।’ इतिहास गवाह है कि जो कोई भी अपने को सीरियसली लेगा वह दूसरों के घर भले ही ‘मार्क्स’, ‘दोस्ती-दिवस’ या ‘दुश्मनी-नाइट्स’ मनाने बेधड़क चला जाय पर अपने घर पर आयोजन ? ना बाबा ना !
वर्माजी आदतन एक अच्छे-भले इंसान हैं. नया कुछ करने को, नया कुछ जानने को हमेशा तैयार. वैसे ये प्रतिभा हम सबमें है. फर्क बस इतना है कि हमारी उत्सुकता इस बारे में होती है की अगले ने इतना शानदार मकान कैसे ले लिया? उसके पास मुझसे बड़ी गाड़ी कैसे है..जबकि वर्माजी की उत्सुकता इस बात पर रहती है कि गाजीपुर में क्या हो रहा है. दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में क्या चल रहा है, चलो जाकर देखते हैं. चलो मुहीम का परचा निकालें.
कभी भी फोन करो तो प्राइमरी दुआ सलाम के बाद एक सवाल जरूर पूछेंगे, “ क्या कर रहे हो आजकल?”
यानी कुछ न कुछ करते रहो यूं ही वेले न बैठो.
*
हम वामपंथियो से बड़ा पूंजीवादी कोई है नहीं आज की डेट में क्योंकि हमारे ज्ञान की शुरुआत और अंत बस एक किताब, ‘पूँजी’ पर टिकी है. अतः इतनी आध्यात्मिक बातों के बाद अब थोड़ा काम यानी बिजनेस की बात हो जाये.
वर्माजी इतिहासबोध निकालते थे. क्या उसे एक बार फिर से निकला जा सकता है? वर्माजी की ही तरह हमारे कई साथी इस मुश्किल वक्त में भी अपने-अपने तरीके से सक्रिय हैं. कोई वेब पत्रिका निकाल रहा है तो कोई किताबें लिख रहा है या वेबसाइट चला रहा है. यह दुखद है कि आज भी वर्माजी की ही तरह काम का पूरा ठीकरा उन दोस्तों के अकेले के कन्धों पर आ पड़ा है.
डर इस बात का है कि कहीं यह लोग भी ‘महानता’ के षडयंत्र का शिकार न बन जायें. चांसेस बहुत ज्यादा हैं. आज भी हम लोग किसी पत्रिका, मुहिम, किताब, वेबसाइट के आर्थिक पक्ष के बारे में उदासीन रहते हैं. To cut a long story short, हमें, हम सबको एक जिम्मेदार पाठक बनना होगा. हमारे आसपास के वर्माजी लोगों के मुहिम में आर्थिक रूप से सक्रिय हिस्सेदारी करनी होगी.
कैसे?
1. अपने दोस्तों द्वारा निकले गए किसी वेबसाइट , पत्रिका का सब्सक्रिप्शन लें. याद रखें कि हम आपकी ही तरह हमारे दोस्त को भी घर चलने के लिए पैसों की जरूरत उतनी ही है जितनी हमें या आपको हो सके तो content provide करें. उसके प्रसार में हिस्सेदारी करें.
2. अपने किसी कवि-लेखक दोस्त की रचनाओं को प्रकाशित करने में आर्थिक मदद करें. उनकी रचनाओं को खरीदें जिससे उसका घर चले.
3. किसी वेब पत्रिका, वेबसाईट में अगर आपको लग रहा है की content अच्छा है तो उसे आर्थिक मदद जितनी आपसे हो सके जरूर करें.
जब NYT, TOI, Hindu, BS , HT जैसे तुर्रमखान झोली फैला रहे हैं तो हम क्यों नहीं झोली फैला सकते? क्या हम तैयार हैं? अगर हम इसके लिए तैयार हैं तो आने वाले दिन हम सबके लिए बेहतर हो सकते हैं.
वैसे ‘उगता हुआ सूरज’, ‘डूबता हुआ चाँद’, ‘गुलाब छाप’ गुड-मार्निंग पोस्ट्स और फारवर्ड किये सद्वचन/मियाँ बीबी जोक्स से लबरेज हमारी जिन्दगी उतनी बुरी नहीं है. बुराई बस इसमें इतनी है कि एक लड़ते हुए इंसान के चले जाने के बाद उसकी याद में लाख टेसुए बहाइये पर उस इंसान पर इसका कोई असर नहीं पड़ने वाला.
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पापा के गुजरने के बाद एक दिन अचानक अहसास हुआ कि हम सब पापा के लिए past tense में बात कर रहे हैं! बड़ा अजीब और भयावह तजुर्बा था वह. ऐसा कैसे हो सकता है भला? यह भी मौत का एक कमीनापन है कि एक झटके में वह अच्छे भले इंसान को present से past tense में धकेल देता है.
हम तो न मानते इसको. हम तो पापा या वर्माजी के लिए present tense का ही इस्तमाल करेंगे. कल्ल लो बेटा जो करते बने!
पापा के वक्त मोबाइल फोन नहीं थे, पर आज हम सबके पास मोबाइल फोन हैं। ऐसे में मैं तो यही कहूँगा कि वर्माजी आजकल ‘Airoplane mode’ पर हैं…!
*सोरित गुप्तो मशहूर कार्टूनिस्ट हैं। इलाहाबाद में प्रो.लालबहादुर वर्मा की मुहिम के साथी रहे हैं।
** प्रसिद्ध इतिहसकार, इतिहासबोध पत्रिका के संपादक, सक्रिय जनबुद्धिजीवी प्रो.लालबहादुर वर्मा का निधन 17 मई 2021 को देहरादून में कोरोना संक्रमण से हुए। गोरखपुर, मणिपुर और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के बाद कुछ वर्ष पहले वे देहरादून में बस गये थे।