17 मई की सुबह उठा तो एक-एक लाइन के तीन सन्देश सामने थे। आशु ने देहरादून अस्पताल से लिखा था कि पापा नहीं रहे। बाकी दो इलाहाबाद से कवि-समाजकर्मी अंशु मालवीय और हाई कोर्ट के वकील राकेश गुप्ता के थे। वर्मा जी के तमाम प्रशंसकों की तरह वे दोनों 5 मई से कोरोना अस्पताल में दाखिल अपने गुरु-दोस्त के स्वास्थ्य पर नजर लगाए हुए थे। 1998-99 में वर्मा जी फरीदाबाद में रहे थे। सन 2000 से हमने ‘साहित्य से दोस्ती’ मुहिम शुरू की थी और इस क्रम में हरियाणा के कई शहरों में उनके प्रशंसकों की लम्बी फेहरिस्त है। उस दिन कइयों ने मुझे फोन या मेसेज किया।
उसी शाम दिल्ली से राजेश उपाध्याय ने ज़ूम पर स्मृति सभा का आयोजन कर दिया। खचाखच भरी आभासी सभा में वर्मा जी के 4-5 पीढ़ियों के प्रशंसक इकठ्ठा हुए। उनमें से अधिकाँश को मैं वर्मा जी के माध्यम से ही जानता था और बहुतों का हालचाल वर्मा जी से मुलाकातों में मिलता रहता था। कोई 70 के दशक का, कुछ ८० और नब्बे के दशक के, और यहां तक कि 21वीं शताब्दी, जब वे विश्वविद्यालयों से फारिग हो चुके थे, उसके हर दौर से जुड़े लोग। एकबारगी मुझे लगा कि अजनबियत (एलियनेशन) के दौर में भी वर्मा जी के व्यक्तित्व से हम सभी एक चुम्बक की तरह जुड़े हुए थे।
यह कहना शायद अतिशयोक्ति न होगी कि इतिहासकार शिक्षक लाल बहादुर वर्मा से जो भी मिला वह उन्हीं का होकर रह गया। मैं स्वयं 45 वर्षों का भुक्तभोगी हूँ। 1975 -77 में मैंने गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में एमए में दाखिला लिया और यूरोपियन हिस्ट्री पढ़ाने में चमत्कृत कर देने वाले इस अध्यापक के प्रशंसकों/दोस्तों की अंतरंग कड़ियों में हमेशा के लिए शामिल हो गया।
वे मार्क्सवादी थे और कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के जनक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स की आदर्श मित्र जोड़ी के एक स्वघोषित पैरवीकार। मार्क्स ने पूंजीवाद में मनुष्य के बढ़ते एलियनेशन को मानव समाज के लिए सबसे बड़े खतरों में शुमार किया था। वर्मा जी का जीवनपर्यन्त एलियनेशन से ही लड़ने का एजेंडा रहा। जीवन का अंतिम दशक तो उन्होंने ‘दोस्ती’ की अवधारणा को मानव मुक्ति की पूर्व शर्त के रूप में स्थापित करना अपना मुख्य लक्ष्य बना लिया था।
अपने तमाम लेफ्ट एक्टिविज्म के बावजूद, वे न किसी राजनीतिक खांचे में फिट बैठाये जा सकते थे और न एक सामाजिक आन्दोलनकारी की छवि में। वे लगातार एक प्रखर संस्कृतिकर्मी बने रहे जिनके मुंह से आपको प्रायः यह वाक्य सुनने को मिल जाता था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी ही नहीं, सांस्कृतिक प्राणी भी है। सभी को उनकी चुनौती रहती थी, मनुष्य पहले इंसान बनेगा तभी कुछ और।
उनके सानिध्य में सैकड़ों छोटे-बड़े आयोजनों में भागीदारी मैंने की होगी। दो बार पूर्वांचल/अवध में और दो बार उत्तराखंड में हफ़्तों तक हमने एक साथ किताब यात्राएं कीं। गोरखपुर में रामदत्तपुर के उनके पुराने/नए घर से इलाहबाद मेंहदौरी कालोनी के निवास और अंततः देहरादून में उनके प्रवास तक अनगिनत बैठकों का सिलसिला अब थम गया है। मैं स्वयं अपनी नौकरी में दर्जनों जगह रहा और वे सभी निवासों में बार-बार आये। उनके साथ हर मुलाकात, हर बैठकी, विचार और अनुभव का जीवंत प्रवाह होती थी। आखिरी बार इसी मार्च में फरीदाबाद में, जहां दिल्ली की गाजीपुर सीमा पर किसान आंदोलन से साक्षात्कार करते हुए पहुंचे।
तस्वीर– जून 2019 में फरीदाबाद में आयोजित दोस्ती कार्यशाला में लाल बहादुर वर्मा।
अवकाशप्राप्त आईपीएस विकास नारायण राय क़ानून-व्यवस्था और मानवाधिकार के मुद्दों पर लगातार सक्रिय हैं। वो हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।