हाँ, ये चौंकाने वाली हेडलाइन प्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार प्रो.वर्मा यानी प्रो. लालबहादुर वर्मा के बारे में ही है।
प्रो.वर्मा, यानी हिंदी पट्टी का वह बुद्धिजीवी जिसने पूरी ज़िंदगी ‘इतिहासबोध’ और ‘प्रबोधन’ के प्रचार में झोंक दी थी। जो अंतिम समय तक दुनिया बदलने के सपने को अपनी निजी ज़िम्मेदारी मानकर जुटा रहा। गोरखपुर, मणिपुर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाने के दौरान हज़ारों नौजवानों को आदमी से इंसान बनाने की राह में पहुँचाकर रिटायर हुआ यह प्रोफ़ेसर, ऐसी सक्रिय ज़िंदगी जी रहा था कि नौजवान भी शर्मिंदा हो जायें। इसी सक्रियता के बीच लगभग 84 साल के हो चुके इस नौजवान पर कोविड का हमला हुआ और बीती 17 मई को उसका मन और शरीर हमेशा के लिए शांत हो गया। लेकिन ख़ुद इतिहास होने के पहले भारत के भविष्य को लेकर उसने राहुल गाँधी की ओर आशा भरी निगाह से देखा था जो हमारे लिए एक बड़ा संदेश है।
यक़ीनन, बहुत लोगों को इस बात पर भरोसा नहीं होगा। हम ख़ुद इस सच को सार्वजनिक करने में हिचक रहे थे। यह हिचक टूटती भी नहीं अगर इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील और प्रो.वर्मा के बेहद प्रिय राकेश गुप्ता ने इस बाबत उनकी खुली राय न बतायी होती। राकेश गुप्ता ने कुछ दिन पहले फ़ोन करके कहा कि प्रो.वर्मा चाहते थे कि मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम से मुक़ाबला करने के लिए राहुल बड़ी भूमिका निभायें। वे कांग्रेस से निकले सभी नेताओं और पार्टियों को एकजुट करने की पहल करें। प्रो.वर्मा इसके लिए उनका भाषण लिखने को तैयार थे।
राहुल गाँधी का 51वाँ जन्मदिन, प्रो.वर्मा की इस इच्छा को सार्वजनिक करना उचित अवसर है। बहरहाल, आगे बढ़ने से पहले इसकी पृष्ठभूमि समझ लीजिए।
तारीख़ थी 7 मार्च 2021.. प्रो.वर्मा बीमारी और कोविड के ख़तरे को दरकिनार करते हुए दिल्ली आये थे। उन्हें लगता था कि किसानों के इस ऐतिहासिक आंदोलन के साक्षी न बने तो जीवन व्यर्थ हो जायेगा। गाज़ीपुर बॉार्डर का धरना उस जगह से क़रीब है जहाँ हमारी रिहाइश है। वे हमारे साथ ही धरनास्थल गये। लोगों से मिले-जुले। लंगर चखा। चाय पी। किताबों के स्टॉल पर बैठे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिंदू-मुस्लिम किसानों को हाथ में हाथ डालकर बैठे देखा। पूरा परिवरेश उनमें ग़ज़ब का उत्साह भर रहा था। वहीं, मीडिया विजिल के लिए उनका एक फ़ेसबुक लाइव किया जिसमें उन्होंने कहा- “भारत में वैसी ही परिस्थिति बन रही है जैसा कि फ्रांस में क्रांतिपूर्व बनी थी। भारत में कुछ बड़ा होने वाला है।”
उनका यह बयान दूर-दूर तक गूँजा। ग़ौर से सुना गया।
यह महज़ तात्कालिक माहौल का असर नहीं हो सकता था। इतिहास के अध्येता का इतिहासबोध एक बड़े परिवर्तन की सुगबुगाहट महसूस कर रहा था। धरना स्थल से लौटते वक़्त, कार में बात को और समझने के लिए हमने उन्हें कुरेदना शुरू किया।
पिछले कुछ दिनों से हमारी राय बनी है कि ” हम लड़ाइयाँ नहीं चुनते, लड़ाइयाँ हमें चुनती हैं। हम 1917 के रूस में नहीं हैं और हमारी समस्या लेनिन की बोल्शेविक पार्टी और प्रतिद्वंद्वी मेंशविक के बीच चुनाव की नहीं है।अगर हम मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम से निस्पृह, अपनी 24 कैरेट शुद्धता बरक़रार रखते हुए, कमरे में बंद नहीं रहना चाहते, अपने समय में तत्काल कोई हस्तक्षेप चाहते हैं तो संघर्ष के उपलब्ध उपकरणों में ही चुनाव करके जूझना होगा। साफ़ कहें तो स्वतंत्रता आंदोलन के मंथन से विकसित, विविधिता में एकता से महकते ‘भारत’ नाम के विचार पर बेतरह हमलावर पीएम मोदी और उनकी राजनीति को हराने के लिए एक बड़ी गोलबंदी की ज़रूरत है जिसके केंद्र में कांग्रेस और राहुल गाँधी ही हो सकते हैं।”
हम कार ड्राइव करते हुए ये सब कहते जा रहे थे। ज़ाहिर है, यह शब्दश: नहीं है। बगल की सीट पर प्रो.वर्मा ध्यान से सुन रहे थे। आशंका थी कि वे कहीं टोकेंगे और कांग्रेस के वर्ग-चरित्र की याद दिलायेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बात आगे बढ़ी। हम लगातार बोले जा रहे थे। ख़ासतौर पर राहुल की वजह से कांग्रेस में आये परिवर्तन के बारे में- “राहुल नेहरू के बाद कांग्रेस के पहले ऐसे अध्यक्ष और नेता हुए जो आरएसएस के ख़तरे को चिन्हित करके सीधे हमला बोल रहे हैं। यह रावण की नाभि पर किया जाने वाले हमला है। दूसरी बात, वे शायद पहले कांग्रेस नेता हैं जिन्होंने ‘मनुवाद’ का नाम लेकर हमला बोला है। समता, समानता और भाईचारा उनके राजनीतिक विमर्श की विशेषता है। सबसे बड़ी बात कि वे सत्ता के लिए शॉर्टकट अपनाने को तैयार नहीं हैं। नफ़रत की आँधियों के बीच वे सत्य, प्रेम और अहिंसा के पक्ष में पूरी ताक़त से खड़े हैं, जो मौजूदा राजनीतिक दौर में एक आश्चर्य ही है। वे ऐसे परिवार में पैदा हुए जिनकी तीन पीढ़ी प्रधानमंत्री रही, लेकिन उनके पिता राजीव गाँधी की शहादत के तीस साल हो चुके हैं। उसके बाद परिवार राजनीति से बाहर हो गया था। कांग्रेस जनों ने ही छह सात साल बाद किसी तरह उन्हें राजनीति में आने को तैयार किया। कांग्रेस पार्टी 2004 में सत्ता में आयी लेकिन न सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री बनीं और न 2009 में मिली जीत के बाद राहुल गाँधी, जबकि ये पद उनके सामने तश्तरी में सजा हुआ था। ऐसे में अगर वे मोदी सरकार के अहर्निश हमला झेलने के बावजूद, मुक़दमों और आईटी सेल के नफ़रती अभियान का निशाना बनने के बावजूद, भारत को भारत बनाने वाले बुनियादी मूल्यों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं, झुकने या बिकने को तैयार नहीं है, तो फिर इसे सत्ता का नहीं, संघर्ष का वंशवाद ही कहेंगे।”
बात कांग्रेस में सांगठनिक स्तर पर आये परिवर्तनों की भी हुई। ख़ासतौर पर कांग्रेस संगठन में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं और कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण जगह दिये जाने की। इसी बीच राकेश गुप्त ने यूपी के कुछ नेताओं को लेकर असंतोष भी व्यक्त किया लेकिन प्रो.वर्मा ने टोका कि बात व्यक्तियों की नहीं व्यापक परिप्रेक्ष्य की हो रही है। अचानक हमें हिंदी के अनोखे कवि विष्णु खरे की याद हो आयी। हमने याद दिलाया कि कैसे 2014 में जब तमाम प्रगतिशील ताक़तें अरविंद केजरीवाल में भविष्य देखते हुए बनारस के चुनाव में उनका समर्थन कर रही थीं, विष्णु खरे कांग्रेस के मंच पर जा खड़े हुए थे। उनकी पक्की समझ थी कि बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति को रोकना है तो फिलहाल कांग्रेस को ही मज़बूत करना होगा। विष्णु खरे का इसमें कोई स्वार्थ नहीं था।
प्रो.वर्मा गंभीरता से सारी बातें सुन रहे थे। ऐसा लग रहा था कि विचारमग्न हैं। वे असहमति व्यक्ति करने में लिहाज नहीं करते थे। अगर असहमत होते तो तुरंत टोकते। डाँट भी सकते थे। हम तो उनके शिष्य ही थे तो उनका अधिकार भी था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि उनकी भंगिमा में बहुत कुछ ऐसा था जिसे सहमति माना जा सकता था। ख़ैर, बात अपने समझने की थी, सार्वजनिक रूप से इसकी चर्चा नहीं की। लगा कि उनकी सहमति हमारा भ्रम भी हो सकता है।
फिर 17 मई को वे नहीं रहे। उनके जाने का शोक, शहर-शहर मनाया गया। उस खाली जगह को भरने वाला कोई दूसरा बुद्धिजीवी हिंदी पट्टी में दूर-दूर तक नज़र नहीं आता। उनके जाने के बाद उनके होने का महत्व जैसे अपने आप सामने आ गया। ऑनलाइन शोकसभाओं का जैसा सिलसिला प्रो.वर्मा की याद में चला और उसमें जितनी बड़ी भागीदारी रही, वह अभूतपूर्व है।
इसी बीच एक दिन राकेश गुप्ता का फ़ोन आया।
राकेश जी ने बताया कि प्रो.वर्मा की एक इच्छा मन में ही रह गयी। वे प.बंगाल में ममता बनर्जी की जीत से उत्साहित थे। उन्होंने कहा था कि “नकारात्मक शक्तियों को पराजित करने के लिए देश में एक साझा मोर्चा बनना चाहिए। इसके केंद्र में कांग्रेस और ख़ासतौर पर राहुल गाँधी ही हो सकते हैं। वे ममता बनर्जी समेत कांग्रेस से निकले सभी नेताओं को पार्टी में वापस आने का आह्वान करें। इस काम के लिए वे राहुल गाँधी का आह्वान भाषण लिखने को तैयार हैं।”
राकेश गुप्ता ने बताया कि उन्होंने इस प्रस्ताव को कांग्रेस नेताओं तक पहुँचाने के लिए हमारा नाम सुझाया था। उन्हें उम्मीद थी कि पत्रकार होने की वजह से हमारे कुछ संपर्क होंगे जिनके ज़रिये ये प्रस्ताव राहुल गाँधी तक पहुँचाया जा सकेगा। प्रो.वर्मा इससे सहमत थे।
बहरहाल, अब न प्रो.वर्मा हैं और न उनके इस प्रस्ताव को कहीं पहुँचाने की ज़रूरत ही रह गयी है। लेकिन संदेश तो स्पष्ट है। प्रो.वर्मा अपने समय में हस्तक्षेप के महत्व को समझते थे। चलने-फिरने में दिक़्क़त थी, फिर भी वे घूम-घूमकर ‘भगत सिंह कथा’ और ‘अंबेडकर कथा’ कहने को तैयार रहते थे। यही नहीं, ‘आरती’ जैसे धार्मिक प्रतीकों का भी इस्तेमाल करने से हिचकते नहीं थे। ज़ाहिर है, उनके लिए आम आदमी से जुड़ना और उसे परिवर्तन की राह में सक्रिय करने से बढ़कर कुछ नहीं था। इस प्रक्रिया में वे ख़ुद भी बदलने को तैयार रहते थे। शुद्धतावादियों की नाक-भौं सिकोड़ने की आदत को देखते हुए ही उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि शायद अब वे मार्क्सवादी नहीं रहे। वे गाँधी को नये सिरे से समझ रहे थे। राहुल गाँधी के भाषण लिखने की इच्छा जताने के पीछे उनका कोई स्वार्थ नहीं था, परिवर्तन की कोशिश में अपना विनम्र योगदान देने की इच्छा भर थी।
प्रो.वर्मा कांग्रेस की सीमाओं को समझकर जीवन भर उससे लड़े पर आज उसकी शक्ति भी समझ रहे थे। वे मौजूदा दौर में काँग्रेस की उस सकारात्मक शक्ति का आह्वान करना चाहते थे जिसने कभी देश को अंग्रेज़ों से मुक्ति दिलायी।
शायद प्रो.वर्मा को उन्हीं के शहर के महान शायर, फ़िराक़ गोरखपुरी आवाज़ दे रहे थे-
इसी खंडर में कहीं कुछ दिये हैं टूटे हुए,
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात…!
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।