समय और चित्रकला ‘शीर्षक से प्रख्यात चित्रकार अशोक भौमिक की लेख शृंखला की यह तीसरी कड़ी पहली बार 3 मई 2020 को मीडिया विजिल में प्रकाशित हुई थी। कोरोना की पहली लहर के दौरान चित्रकला पर महामारियों के प्रभाव की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए अशोक दा ने दस कड़ियों की यह साप्ताहिक शृंखला लिखी थी। साल भर बाद भारत दूसरी लहर से मुक़ाबिल है तो हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। इस बार लगातार दस दिन तक छापेंगे- संपादक।
चित्रकला की दुनिया,आरम्भ से ही धर्मों एवं शासकों के लिए इस्तेमाल करने का सबसे असरदार माध्यम रहा है। निरक्षर और सरल आम लोगों का एक सुविशाल प्रजा-वर्ग, हर युग में शासकों और धर्म के आसान निशाने पर रहा है। इस वर्ग ने, चित्रों पर इतना यकीन किया कि उसने धार्मिक कथाओं को केवल चित्रों के माध्यम से इतिहास का प्रामाणिक दस्तावेज़ मान लिया।
(चित्र 1)
राजस्थान में खानबदोश कबीलों में ‘फड़’ ( देखें चित्र-1) के माध्यम से १४ वीं शताब्दी के नायक पाबूजी की जीवनी का वर्णन करने का चलन रहा है। भ्राम्यमान टोलियाँ, कपड़े पर चित्रित पाबूजी के जीवन से जुडी घटनाओं को भक्तों के बीच प्रदर्शित करते हुए, गा कर सुनाती रही हैं। इसी प्रकार बंगाल, ओडिशा और बांग्लादेश में ‘पटचित्र’ ( देखें चित्र 2 ) की परंपरा आज भी जिन्दा है, जहाँ मेलों, बाज़ारों और जमावड़ों में चित्रों में अंकित देवताओं की लीलाकथाओं को जनता के सामने गाया जाता है।
(चित्र 2)
मंदिरों देवालयों से दूर रहने वाली निरक्षर जनता तक आसानी से धर्म को पहुँचाने का यह कारगर माध्यम पूरी तरह से चित्रों पर ही आश्रित रहा है। इस प्रकार पूरे विश्व में विभिन्न धर्मों के प्रचार-प्रसार में चित्रों की एक बहुत बड़ी भूमिका रही है। लीला कथाओं के अतिरिक्त नीति कथाओं के जरिये भी पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि अवधारणाओं को चित्रों से व्यापक जनता तक पहुँचाया जाता रहा है। धर्म प्रचार में चित्रों के उपयोग का सिलसिला, यूरोप में छपाई की तकनीकों के विकास के साथ और तेजी से बढ़ सका। महामारी जैसी त्रासदियों के दौर में भी, महामारी को न केवल पाप -पुण्य के साथ जोड़ा गया, बल्कि मठों और प्रार्थना स्थलों की दीवारों के साथ साथ पुस्तकों में भी इनके अनेक चित्रण दिखे। ‘बुक ऑफ़ आवर्स’ जैसी धार्मिक चित्रित पोथियों में आरम्भ से ही मृत्यु को डरावने प्रतीकों से प्रस्तुत किया जाता रहा है ( देखें चित्र 3 और 4 )। महामारी के दौर में आम जनों में धर्म के प्रति आस्था अविचलित रह सके इसलिए भी बार-बार इन त्रासदियों को पाप-पुण्य के साथ जोड़ कर प्रस्तुत किया गया।
(चित्र 3)
(चित्र 4)
किसी महामारी में, चित्रों के माध्यम से सबसे व्यवस्थित ढंग से इस्तेमाल शायद हमें यूरोप के ब्यूबोनिक प्लेग महामारी के दौरान दिखता है। इस महामारी के दौरान संत सबेस्टीन (300 ईस्वीं) को इस रोग को रोकने वाले देवपुरुष के रूप में धर्म कथाओं के जरिये स्थापित किया गया। धार्मिक कथाओं के अनुसार, संत सबेस्टीन को ईसाई विरोधी लोगों ने तीर से बींधकर हत्या की थी इसलिए शहीद संत सबेस्टीन को हम प्रायः शरीर में बिंधे तीरों के साथ ही चित्रित पाते हैं। छठीं और सातवीं शताब्दी में इटली में इस महामारी से मुक्ति के उद्देश्य से लोम्बार्ड राज्य की राजधानी पाविआ में संत सबेस्टीन के सम्मान में सेंट पीटर चर्च में एक वेदी (आल्टर) का निर्माण किया गया था। कहा जाता कि इस वेदी के बनने के बाद रोम में इस महामारी का प्रकोप ख़त्म हो सका था।
संत सबेस्टीन के साथ जुड़ी इस मान्यता को मध्ययुग के प्लेग महामारी के दौरान और भी ज्यादा विस्तार मिला। चित्रकार जोसे लीफरिंगसे ने 1497 फ्रांस के चर्च के आदेशानुसार एक चित्र श्रृंखला बनाई थी, जिसमें संत सबेस्टीन को प्लेग के रक्षक के रूप में दिखाया गया था। इसी श्रृंखला का एक चित्र अमेरिका के वॉटर्स म्यूजियम ऑफ़ आर्ट में संरक्षित है (देखें चित्र 5) ।
(चित्र 5)
इस चित्र में प्लेग की महामारी से बड़ी तादाद में लोगों को मरते देखा जा सकता है। दृश्य एक कब्रिस्तान का है जहाँ दफ़नाने के लिए मृतक को लाने वाले व्यक्ति की ही आकस्मिक मृत्यु हो गयी है। चित्र में बायीं ओर जहाँ भयभीत जनता को देख पाते हैं वहीं दाहिनी ओर धार्मिक पुजारियों का दल, धर्म पुस्तक से मन्त्र पाठ करते दिख रहे हैं (देखें चित्र 5) । पर चित्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश, चित्र का आसमान है जहाँ ईसा मसीह से संत सबेस्टीन प्लेग से मुक्ति के लिए प्रार्थना कर रहें हैं ( देखें मुख्य चित्र, लेख के प्रारंभ में)। शरीर पर बिंधे तीरों के चलते हम सबेस्टीन को इस चित्र में सहज ही पहचान लेते हैं।
महामारी के दौर में धर्म, अपने प्रचार में चित्रकला का किस प्रकार प्रभावशाली ढंग से उपयोग कर सकता है- यह चित्र उसका एक उदाहरण है।
यूरोप में नवजागरण काल में हम धार्मिक मठों का पतन और विश्वविद्यालयों को बनते हुए देख पाते हैं। इन विश्वविद्यालयों में कानून और अन्य शिक्षाओं के साथ औषधि और शरीर विज्ञान की शिक्षा की भी शुरुआत हुई थी, जिसके कारण धर्म और राज्य को एक दूसरे से अलग कर धर्म-निरपेक्षता के सिद्धान्तों की बात सोची जाने लगी थी। इसी दौर में, बीमारी और महामारियों से लड़ने औषधियों के विकास की दिशा में व्यवस्थित शिक्षा भी इन विश्वविद्यालयों में आरम्भ किया गया था । 1537 में बने एक चित्र में ( देखें चित्र 6 ) हम पेरिस विश्वविद्यालय में चिकित्सकों की एक बैठक को देख पाते हैं।
यह एक ऐतिहासिक चित्र हैं, क्योंकि इससे हम जान पाते हैं कि मनुष्य ने सभ्य होने की प्रक्रिया में विज्ञान और तार्किकता के माध्यम से ही अपने को धर्मान्धता और नियतिवाद जैसी सदियों पुरानी जंजीरों से मुक्त किया है।
अशोक भौमिक हमारे दौर के विशिष्ट चित्रकार हैं। अपने समय की विडंबना को अपने ख़ास अंदाज़ के चित्रों के ज़रिये अभिव्यक्त करने के लिए वे देश-विदेश में पहचाने जाते हैं। जनांदोलनों से गहरे जुड़े और चित्रकला के ऐतिहासिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य पर लगातार लेखन करने वाले अशोक दा ने इतिहास के तमाम कालखंडों में आई महामारियों के चित्रकला पर पड़े प्रभावों पर मीडिया विजिल के लिए एक शृंखला लिखना स्वीकार किया है। उनका स्तम्भ ‘समय और चित्रकला’, हर रविवार को प्रकाशित हो रहा है। यह तीसरी कड़ी है।