मनीष की जेल डायरीः जब आठ साल के अब्बू ने पूछा, क्या जज भगवान से भी बड़ा होता है?

मनीष और अमिता राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, अनुवादक हैं और साहित्यिक सरोकार से भरे रचनाकार हैं। आठ महीने पहले 8 जुलाई 2019 को सरकार ने उन पर यह आरोप लगाकर जेल में डाल दिया था, कि वे उत्तर प्रदेश में घूम फिर कर लोगों को राज्य के खिलाफ संघर्ष करने के लिए उकसा रहे हैं। तीन दिन पहले 14 मार्च को दोनों इलाहाबाद की लखनऊ बेंच से मिली ज़मानत पर रिहा हुए हैं। दोनों ने जेल में रहते हुए जो कुछ रचा है, वह जेल साहित्य को समृद्ध करने वाला है। अमिता ने जेल जीवन पर कई कविताएं और कहानियां लिखी हैं, तो मनीष ने बच्चे की नज़र से जेल जीवन को बयान किया है, जो अद्भुत है। अब्बू यानि अबीर मनीष के पड़ोस में रहने वाला बच्चा है, जो मनीष के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया था। मनीष उसे जेल में भी अलग नहीं कर सके और जेल को अब्बू की नज़र से ही देखा और बयां किया। इसके कुछ हिस्से आप भी पढ़िए। 

मेरी बहन ने जब मुझसे अपना जेल अनुभव लिखने को कहा तो मैं परेशान हो गया कि कैसे लिखूं। फर्स्ट पर्सन में लिखने की मेरी आदत नहीं रही है। कई बार शुरू किया, लेकिन बना नहीं। इस बीच मेरी स्मृतियों में मेरा प्यारा अब्बू यानी अबीर आ-आ कर मुझे परेशान करता रहा और अकसर रुलाता भी रहा। वह मेरा साथ कभी नहीं छोड़ना चाहता था। छोटा था, तब ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह मेरी गोद से अपनी मां की गोद में बिना रोये गया हो। इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों न अब्बू को नज़र में रखते हुए ही लिखना शुरू करूं।

यह लिखते हुए मुझे एक प्रसिद्ध फिल्म लाइफ इज़ ब्यूटीफुल की याद आ रही है, जहां एक पिता अपने पांच साल के बच्चे के साथ एक नाज़ी यातना शिविर में फंस जाता है। पिता इस प्रयास में है कि बच्चा इस यातना को असली न समझे, इसलिए वह यातना शिविर की हर गतिविधि को बच्चे के लिए खेल के रूप में पेश करता है मानो कोई पूर्व नियोजित खेल खेला जा रहा हो। दूसरी ओर छोटा बच्चा अपने मासूम व साहसी सवालों से इस यातना शिविर के तर्क की चिंदियां उड़ा रहा होता है। सच में, दुनिया को बच्चों की मासूम और साहसी नजर से देखना एक क्रांतिकारी अनुभव है।

विशालकाय बड़े काले गेट से जैसे ही अबीर मेरे साथ जेल में दाखिल हुआ, मेरी उंगलियों पर उसकी पकड़ और मजबूत हो गयी मानो उसे डर हो कि कहीं कोई उसे मुझसे अलग न कर दे। दाखिल होते ही सबसे पहले हमारी तलाशी शुरू हुई। यह तलाशी से ज्यादा अपमानित करने की प्रक्रिया है जिसमें आपके निजी अंगों को भी छुआ जाता है और आत्मा को सरेआम नंगा कर दिया जाता है। इस तलाशी के बाद मैंने अबीर से पूछा- “कैसा लगा?” उसने कहा- “मौसा, मुझे गुदगुदी लग रही थी!”

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तलाशी के बाद जेल के अंदर आते ही उसने 360 डिग्री घूमकर पूरे जेल का मुआयना किया। घूमते हुए उसने मेरी उंगली दूसरे हाथ से पकड़ ली मानो उंगली छूटते ही मैं गायब हो जाऊंगा। अब उसका पहला सवाल था- “जेल की दीवारें इतनी ऊंची क्यों हैं?” फिर बिना रुके खुद ही जवाब दे दिया- “हवा को रोकने के लिए।” वह जुलाई का महीना था और हमें हवा की सख्त ज़रूरत थी।

बैरक में बंदी भाइयों के बीच पहुंच कर थोड़ी ही देर में वह सामान्य हो गया और उसने मेरी उंगली छोड़ दी। फिर मजे से पूरे अहाते का चक्कर लगाने लगा। जैसे ही उसे कोई सिपाही या पीली वर्दी वाला दिखता था, वह दौड़ कर मेरे पास आता और कस कर मेरी उंगली पकड़ लेता। यह डर उसके भीतर कहां से आया, पता नहीं।

बहन मेरे लिए किताबें लेकर आयी थी, जिन्हें जेलर की नज़रों से गुज़र कर मुझ तक पहुंचना था। इसके लिए मुझे जेलर के सामने “पेश” होना था। जेलर के कमरे के बाहर इंतजार करते हुए मेरे साथ अब्बू थक गया था। अचानक वह मेरा हाथ छोड़कर बायीं तरफ बने बाथरूम में सूसू करने लगा। तभी पीछे से एक नंबरदार ने उसे जोर से डांटा। वह सूसू आधे में ही रोक कर डरा हुआ मेरी तरफ भाग आया, जैसे फिल्म ‘बाइसिकल थीफ’ में ऐसी ही एक घटना में एक बच्चा सूसू बीच में रोक कर वापस भाग आता है। लगभग रोते हुए उसने मुझसे पूछा- “उसने मुझे क्यों डांटा?” मैंने कहा कि “तूने जेलर के बाथरूम में सूसू कर दिया था, बंदियों का बाथरूम अलग होता है।” वह चुप हो गया, फिर बाथरूम की ओर देखते हुए बोला- “जेलर की सूसू अलग तरह की होती है?” मैंने कहा- “हां”!

अचानक नंबरदारों में हलचल शुरू हो गयी। वे सभी बंदियों को सड़क के दोनों किनारों पर धकेलते हुए सड़क खाली कराने लगे- “हटो हटो, जेलर साहब आ रहे हैं!” कुछ देर में जेलर साहब एक दो सिपाहियों के साथ खाली सड़क पर चहलकदमी करते हुए दिखाई दिये। अब्बू की निगाहें लगातार जेलर साब पर टिकी हुई थीं। उनके ऑफिस में घुसने के बाद उसने मुझसे कहा-“मौसा, ये तो बिल्कुल दुबला पतला है, फिर पूरी सड़क क्यों खाली करायी गयी।” मैंने उसके सवाल को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा- “पता नहीं”।

कुछ देर चुप रहने के बाद उसने खुद ही जवाबनुमा सवाल किया- “जेलर जेल का राजा होता है क्या?” मैंने कहा- “हां।”

बहरहाल, जेलर के सामने मेरी “पेशी” हुई। मैं उसकी मेज़ के सामने खड़ा हो गया। उसने कड़क आवाज़ में कहा- “थोड़ा दूर हट कर खड़े हो।” मेरे साथ अब्बू भी एक कदम पीछे हट गया। उसके बाद मेरी उससे क्या बात हुई, मुझे याद नहीं क्योंकि मैं बहुत गुस्से में था। “अछूत” होने का अपमान कैसा होता होगा, यह मुझे पहली बार महसूस हुआ। बहरहाल, किताब मुझे मिल गयी और हम लौट चले।

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“दूर हट कर खड़े हो”- यह मेरे दिमाग़ में लगातार गूंज रहा था, तभी अब्बू ने पूछा- “वो तुमको दूर हट कर खड़े होने को क्यों कह रहा था?” मैंने कहा- “यहां जेलर से दूर हटकर खड़े होने का नियम है।” उसने फिर सवाल किया- “क्यों?” मैंने खीझ कर उत्तर दिया- ” पता नहीं”। उसने मेरा मूड भांप लिया और मेरी उंगली छुड़ा कर भागते हुए अपनी बैरक में पहुंच गया।

मेरे लिए सबसे मुश्किल घड़ी होती है अब्बू को खाना खिलाना। घर पर जब वह होता था, तब उसकी मौसी वही बनाती थी जो वह कहता था। यहां अधपकी रोटी और मांड़ वाली सब्ज़ी (जिसमें आलू खोजने से ही मिलता है) और पानी वाली दाल के अलावा कुछ संभव नहीं। फिर भी मैं कोशिश करता हूं कि रोटी का अधपका हिस्सा तोड़ कर उस पर घर से आया घी नमक लगाकर उसे खिला दूं ताकि उसके पोषण में कमी न आए। अकसर वह बिना ना-नुकुर किए खा भी लेता था। खाने का उसका तरीका ये था कि पुपली रोटी का एक टुकड़ा मुंह में डालकर वह बैरक के बंदियों की गिनती करने लगता था  और तब दूसरा टुकड़ा खाता था। पता नहीं बंदियों की गिनती बार-बार करने में उसे इतना मज़ा क्यों आता था, लेकिन आज उसने खाने से साफ इनकार कर दिया। बोला- “मन नहीं है।” मैंने कहा कि “एक बार फिर बंदियों की गिनती कर ले, फिर खा ले।” अचानक उसने कहा- “मौसा तुम वो कविता कहते थे न कि बिना सपना देखे सोने से अच्छा है जागते रहना?

मैंने कविता दोहरायीः

“बेख़्वाब सोने से बेहतर है जागते रहना”

अब्बू ने तुरंत कहा- “मौसा, मैंने भी इसमें एक लाइन जोड़ी है- बिना स्वाद के खाने से

अच्छा है भूखे रहना!”

यह सुनकर अचानक दिल में एक हूक सी उठी और मैंने उसे सीने से चिपटा लिया।

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आज दशहरा है। पिछले तीन चार साल से मैं लगातार अब्बू को दशहरे का मेला घुमा रहा हूं। मेला घूम कर और लकड़ी की तलवार गदा खरीदने के बाद उसकी आंखों में जो चमक आ जाती थी, वह मेरे लिए अमूल्य थी। यहां मैं कोशिश कर रहा हूं कि अब्बू को पता न चले कि आज दशहरा है। वैसे भी यहां त्योहार वगैरह बिना किसी आहट के चुपचाप गुजर जाते हैं।

बैरकों में यहां वहां घूमते हुए उसे पता चल ही गया कि आज दशहरा है। वह भागते और लगभग हाफते हुए मेरे पास आया- “मौसा तुम्हें पता है कि आज दशहरा है, मेला घूमने चलेंगे? यहां रावण कैसे जलता है?” फिर अचानक रुक कर बोला- “नहीं नहीं, मौसी ने बताया था कि किसी को जलाना बुरी बात है, लेकिन मैं हवाई झूला झूलूंगा और तलवार खरीदूंगा।”

मैंने उसका कंधा पकड़ कर सामने बैठाया और समझाने लगा- “अब्बू यह जेल है। यहां से बाहर नहीं जा सकते। मैं तेरे लिए यहीं अखबार की तलवार बना देता हूं और हम यहीं तलवारबाजी करेंगे।” वह संतुष्ट नहीं हुआ। उसने इसरार करते हुए कहा- “मौसा तुम जेलर से कहो न कि वो हमें मेला घूमने जाने दे। मेला घूम कर हम वापस आ जाएंगे।” मैंने कहा- “नहीं, वह हमें नहीं जाने देगा।” “क्यों, क्या उसे मेला पसंद नहीं?” मैंने कहा- “नहीं, उसे हम लोग पसंद नहीं।”

पता नहीं उसने क्या समझा, वह फट्टे (बिस्तरे) पर जाकर लेट गया और हवा में हाथ घुमाने लगा। मैंने अखबार को रोल करके तलवार बनायी और बैरक में ही उससे तलवारबाजी की। यह उसका प्रिय खेल था। अचानक दूसरी बैरक से ढोलक की आवाज़ आने लगी और जोर-जोर से “जय माता दी” सुनायी देने लगा। वह तलवार फेक कर भागा। मैं रिलैक्स हो गया, दिमाग़ में निदा फ़ाज़ली की नज़्म गूंजने लगीः

घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए

रात में खाना खाते हुए अब्बू ने एक तरफ को इशारा करते हुए सवाल किया- “मौसा कुछ लोग उधर (टॉयलेट के विपरीत दिशा वाले कोने में) पूजा करते हैं और कुछ लोग उधर (टॉयलेट के ठीक बगल वाले कोने में) नमाज़ पढ़ते हैं, ऐसा क्यों?” अभी तक मेरा ध्यान इस तरफ नहीं गया था कि बैरक में हिन्दू लोग टॉयलेट के विपरीत दूर वाले कोने में पूजा करते हैं और मुस्लिम लोग टॉयलेट के ठीक बगल वाले कोने में नमाज़ पढ़ते हैं, जहां लगातार पानी गिरने की आवाज़ आती रहती है और बदबू भी। मैं सोच में पड़ गया कि इस मासूम मन को इसका क्या जवाब दूं। सोचा, क्या यही “सर्वधर्म समभाव” है? अचानक जेल के ऊपर हवाई जहाज़ के गड़गड़ाने की आवाज़ सुनायी दी और अब्बू अड़गड़े की ओर भागा।

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आज सुबह सुबह मोनू की रिहाई आ गयी। अब्बू, मोनू के साथ खूब खेलता था। मोनू ने जाते समय कहा था- “अब्बू, मैं अपने घर जा रहा हूं। जब तू बाहर आना तो मेरे से मिलना।” अब्बू तुरंत मेरी ओर मुखातिब हुआ- “मौसा हम बाहर कब जाएंगे?” मैंने कहा- “जब जज चाहेगा”। उसने कहा- “जज मतलब?” मैंने बताया कि वो जेलर से भी बड़ा होता है, बहुत बड़ा।” अब्बू ने मासूमियत से पूछा- “भगवान से भी बड़ा?” मैंने कहा- ” हां”! “वो हमको कब बाहर जाने देगा?” मैंने कहा- “पता नहीं।”

उसने हाते में चारों तरफ नज़र दौड़ायी और अचानक बोला- “जेल में कुछ लोगों का रहना ज़रूरी होता है क्या?” मैं उसके इस तर्क से हैरान रह गया और कुछ नहीं कहा। अब्बू भी किसी दूसरे ‘मोनू’ की तलाश में हाते में घूमने लगा।

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इंटेरोगेशन चैंबर में अचानक एक लंबे स्मार्ट से बंदे ने प्रवेश किया। सब उठ कर खड़े हो गये, इससे मुझे उसके स्टेटस का पता चल गया। उसने अपने को कुर्सी में धंसाते हुए बिना किसी सन्दर्भ के कहा- “छत्तीसगढ़ में इस तरह से पूछताछ नहीं होती, वहां उल्टा लटका के पूछताछ होती है, आदमी सब उगल देता है।”

मेरे भीतर सुरसुरी सी दौड़ गयी, लेकिन अगले ही पल यह भय क्रोध में बदल गया। मैंने मन ही मन कहा- “यह भी करके देख लो।” अचानक दिमाग में वह शेर कौंध गया, जो भगत सिंह ने अपने भाई कुलतार सिंह को जेल से फांसी से ठीक पहले लिखे आखिरी ख़त में लिखा थाः

उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्जे ज़फ़ा क्या है
हमें ये शौक है देखें सितम की इंतेहा क्या है

यहां भी मेरे प्यारे अब्बू ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। पहले तो वह मेरे साथ सटकर ही बैठा रहा और पूछताछ करने वाले लोगों को बारीकी से निहारता रहा और बिस्तर पर अपनी नन्ही-नन्ही उंगलियों से कोई आकृति बनाता रहा। जब उसे लगता कि माहौल नॉर्मल है, तो वह बगल में रखी अपनी चेस में उलझ जाता। वो एक तरफ से मौसा यानि मेरी तरफ से खेलता और दूसरी तरफ से अपनी ओर से। कुछ देर बाद आकर मेरे कान में धीरे से बोलता, “मौसा तुम हार गए” या “मौसा तुम जीत गए।” दोनों ही परिस्थितियों में मैं बोलता “वाह।” लेकिन जैसे ही अब्बू के कान में पड़ा- “उल्टा लटका के”, वह तुरंत मुझसे सट गया और कस कर मेरी उंगली पकड़ ली। मैंने उसके कान में धीरे से कहा- “अब्बू कुछ नहीं होगा”, लेकिन वह माना नहीं। मेरी उंगली पर उसकी पकड़ और मजबूत हो गयी।

पूछताछ करने वाला यह नया शख्स अचानक मेरी तरफ मुखातिब हुआ और सवालों की बौछार शुरू कर दी। मैं भी उसी रफ्तार से उसे जवाब देता रहा। जब वह पूरी तरह छीज गया तो अचानक बगल के कमरे में रखी मेरी किताबें व नोट्स उठा लाया और जहां तहां से सवाल पूछने लगा- “आपने यह क्यों लिखा”, “वह क्यों पढ़ा?” मेरा गुस्सा बढ़ गया। मैंने अपने आप पर पूरी तरह नियंत्रण रखते हुए कहा- “सॉरी, आप पूछताछ के लिए होमवर्क कर के नहीं आए हैं। तैयारी कर के आइए, फिर पूछताछ कीजिए।” अचानक कमरे में सन्नाटा छा गया। अब्बू ने भी माहौल भांप लिया और वह मुझसे और ज्यादा सट गया। मैं भी अगले पल के लिए खुद को तैयार करने लगा। अचानक पूछताछ करने वाले का फोन बज गया और वह कमरे से बाहर निकल गया। उसके साथ ही कमरे का भारीपन भी बाहर चला गया। अचानक एटीएस का एक व्यक्ति उठा और दरवाजे के बाहर दोनों तरफ झांकने के बाद पीछे मुड़कर बोला- “यहां पहला ऐसा आदमी आया है जिसने पूछताछ करने वाले को ही रिजेक्ट कर दिया।” यह सुनकर सभी लोग मुस्कुरा दिये। मेरी भी जान में जान आयी। निशाना सही जगह लगा था। अब्बू भी धीरे से खिसक कर अपनी चेस में लग गया।

करीब 10-15 मिनट बाद वह फिर लौटा। आश्चर्यजनक रूप से इस बार उसका व्यवहार बदला हुआ था। कुर्सी पर धंसते ही उसने सौम्य भाव से कहा- “आपको तो शेरो-शायरी का काफी शौक है? लेकिन अब लंबे समय तक आप इससे वंचित रहने वाले हैं।” फिर व्यंग्य मिश्रित मुस्कान के साथ बोला- “ये भी हो सकता है कि अब आपको कभी आबिदा जैसों की आवाज़ न सुनायी दे।” मैंने कोई जवाब नहीं दिया। अचानक वह उठा और अपनी कुर्सी को मेरे करीब लाते हुए जेब से अपना स्मार्टफोन निकाला और कहा, “चलिए आपकी पसंद का कुछ आपको सुनाते हैं, बताइए क्या सुनिएगा?” मैंने ये मौका तत्काल लपक लिया और कुछ देर सोच कर बोला, “फ़ैज़ का ‘इंतिसाब’ सुना दीजिए!” लगता है वह भी शेरो-शायरी का शौकीन था क्योंकि उसने बिना कोई और जानकारी लिए कुछ ही देर में “इंतिसाब” लगा दिया और फोन का स्पीकर ऑन कर दिया।

उन दुखी मांओं के नाम

रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं

और नींद की मार खाये हुए

बाजुओं में संभलते नहीं

दुख बताते नहीं

मिन्नतों जरियों से संभलते नहीं।

मैं आंखें बंद कर के झूमने लगा। कुछ तो नज़्म का नशा था और कुछ उस माहौल से निकलने की कोशिश। तभी अब्बू ने आकर मेरे कान में धीमे से कहा, “मौसा, तुम जीत गए!”

मैंने कहा, “वाह!”

अचानक ही फ़ैज़ की दूसरी नज़्म मेरे ज़ेहन में कौंध गयीः

जिस धज से कोई मक़तल में गया

वो शान सलामत रहती है

ये जान तो आनी जानी है

इस जान का यारों क्या कहना!


मनीष की जेल डायरी के ये अंश 23 अक्टूबर 2019 को लिखे गये थे। ये अंश जेल से छूटने के बाद उन्होंने मीडियाविजिल को भेजे हैं।

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