“कश्मीर में संचार ब्लैकआउट वास्तव में एक डिजिटल घेराबंदी है”- Jan Rydzak से लंबी बातचीत

ज़फर आफ़ाक़
कश्मीर Published On :

Photo Courtesy Caravan Daily


यान रीड्ज़ाक़ के साथ विशेष साक्षात्कार

कश्मीर में सेल्युलर, मोबाइल इंटरनेट और ब्रॉडबैंड सेवाओं के निलंबन के साथ एक अभूतपूर्व संचार ब्लैकआउट को 100 दिन  से अधिक समय बीत चुका है। 5 अगस्त को, भारत सरकार ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को प्रभावी रूप से निरस्त कर जम्मू और कश्मीर राज्य की विशेष स्थिति को रद्द कर दिया। सरकार ने आवा-जाही, सार्वजनिक सभा और विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाकर सुरक्षा घेराबंदी थोपी है और अभूतपूर्व पैमाने पर गिरफ्तारियाँ की हैं। बच्चों को भी नहीं बख्शा गया है।

यान रीड्ज़ाक़, एक रिसर्च स्कॉलर जो फिलहाल स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की ग्लोबल डिजिटल पॉलिसी इन्क्यूबेटर (GDPi) में काम कर रहे हैं, इंटरनेट-बंदी और सूचना नियंत्रण के प्रमुख वैश्विक विशेषज्ञों में से एक हैं। इस वर्ष की शुरुआत में उन्होंने भारत में इंटरनेट-बंदी और विरोध प्रदर्शनों के बीच संबंध के बारे में सांख्यिकीय विवरण देते हुए एक पेपर प्रकाशित किया। उनके शोध ने स्थापित किया कि दुनिया में कश्मीर घाटी ने अब तक राज्य द्वारा थोपी इंटरनेट-बंदी सबसे ज़्यादा देखी है। कारवां डेली के लिए ज़फ़र आफ़ाक़ के साथ एक विस्तृत साक्षात्कार में यान रीड्ज़ाक़ ने कहा, “इंटरनेट-बंदी किसी भी तरह के विरोध, हिंसक या अहिंसक, के खिलाफ प्रभावी नहीं लगता है”।

साक्षात्कार के कुछ अंशः


Jan Rydzak

इंटरनेट तक पहुंच क्यों महत्वपूर्ण है?

यान रीड्ज़ाक़: इंटरनेट तक पहुंच एक मानव अधिकार है। तीन साल पहले संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने इस सन्दर्भ में एक घोषणा जारी की, और हालांकि यह गैर-बाध्यकारी है और इस (संयुक्त राष्ट्र) के सभी सदस्य राज्य इंटरनेट स्वतंत्रता के चमकते हुए उदाहरण नहीं हैं, फिर भी एक मानकीय दृष्टिकोण से यह वज़न रखता है। मोबाइल के ज़रिए भुगतान से लेकर प्रियजनों के साथ संपर्क तक- इंटरनेट हमें रोज़मर्रा के जीवन के कई पहलुओं की सुविधा देता है।

भारत में रवि अग्रवाल ने बताया है कि हर सेकंड तीन नागरिक इंटरनेट से पहली बार जुड़ते हैं, ज़्यादातर ग्रामीण इलाकों में। एक बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी समाज में इंटरनेट का उपयोग अन्य विचारों, अन्य भाषाओं और आर्थिक विकास के प्रवेशद्वार के रूप में परिवर्तनकारी हो सकता है। एक आबादी से संचार तक पहुँच छीन लेना एक श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया शुरू कर देता है जहां डिजिटल नेटवर्क के साथ आने वाले सभी लाभ क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।

कश्मीर ने दुनिया में सबसे ज़्यादा इंटरनेट बंदी देखी है। कश्मीर में सरकार इंटरनेट बंदी का सहारा क्यों लेती है?

यान रीड्ज़ाक़: सामान्य तौर पर एक क्षेत्र जितना अधिक अस्थिर हो और संचार माध्यमों से जुड़ा हुआ हो, उतना ही सरकार मूलभूत सामाजिक परेशानियों के लिए सोशल मीडिया को दोष देना चाहेगी। कश्मीर में (इंटरनेट बंद करने के लिए) सरकारी तर्क लगभग हमेशा सार्वजनिक सुरक्षा को बनाए रखना होता है, या तो विरोध और हिंसक घटनाओं की प्रतिक्रिया में या उनकी प्रत्याशा में। हाल के वर्षों में अधिकारी अपने ब्लैकआउट्स को झूठी खबरों के अभियानों से जोड़ रहे हैं, जो, वे अक्सर दावा करते हैं कि, पाकिस्तानी आतंकवादियों और पाकिस्तान की सरकार द्वारा समन्वित या समर्थित हैं।

लेकिन जिस प्रक्रिया से इंटरनेट तक पहुँच को काटने का काम किया जाता है, उसका दस्तावेज़ीकरण करना मुश्किल है क्योंकि यह एक रहस्यमय प्रक्रिया बना  हुआ है। भारत के कई नागरिक संगठनों ने सूचना का अधिकार अधिनियम का उपयोग करते हुए मूल आदेश प्राप्त करने की कोशिश की है, लेकिन वे सरकारी अधिकारियों द्वारा ठुकराए जाते रहते हैं। इसलिए, हालांकि SFLC.in जैसे समूह पहले ही भारत में लगभग 350 बंदों का दस्तावेज़ीकरण कर चुके हैं, लेकिन शायद उनकी संख्या हमारी जानकारी से कहीं अधिक है। ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने भी विरोध प्रदर्शनों पर अपने डेटा को ध्यानपूर्वक छुपा के रखा है-  केवल 2017 तक के समुच्चय जारी किए गए और 2018 के किसी भी डेटा को जारी ही नहीं किया गया।

क्या कश्मीर में विरोध प्रदर्शन को बढ़ाने में इंटरनेट मदद करता है?

यान रीड्ज़ाक़: इसमें कोई शक़ नहीं है कि इसकी एक भूमिका है। जम्मू-कश्मीर की डेढ़ करोड़ की आबादी में से आधी के पास इंटरनेट की पहुंच है, ज़्यादातर मोबाइल के माध्यम से। फेसबुक के विज्ञापन प्लेटफॉर्म का अनुमान है कि कश्मीर में लगभग 9,40,000 लोग इस सोशल नेटवर्क के माध्यम से जुड़े हुए हैं। हालाँकि व्हाट्सएप उपयोगकर्ताओं की संख्या की जानकारी नहीं है, फिर भी ऐप की उपयोग की आसानी और भारत भर में इसकी लोकप्रियता, जो इसका सबसे बड़ा बाज़ार है, को देखते हुए इसकी संख्या लाखों में होना लगभग तय है। इंटरनेट कश्मीर में सही और गलत जानकारी प्रसारित करने में मदद करता है और विरोध प्रदर्शनों को जुटाने के लिए एक उपयोगी साधन बना हुआ है – विशेष रूप से शांतिपूर्ण विरोध जो अधिक संरचित होते हैं और मज़बूत समन्वय पर निर्भर करते हैं। हालांकि, यह इस उद्देश्य के लिए उपयोग किए जाने वाले कई साधनों में से एक है, और प्रदर्शनकारियों को अब इस संभावना की आदत हो गयी है कि संगठन के मुख्य डिजिटल चैनलों को अवरुद्ध कर दिया जाएगा।

कश्मीर में विरोध प्रदर्शन पर इंटरनेट बंद का क्या असर है? यह लोगों, विशेषकर युवाओं की ऑनलाइन राजनीतिक गतिविधियों को कैसे प्रभावित करता है?

यान रीड्ज़ाक़: जहां भी शटडाउन होते हैं, वह उन लोगों में अधिक क्रोध और हताशा पैदा करते हैं जो मूल रूप से सिर्फ राजनीतिक कारणों से सड़कों पर जाने के लिए प्रेरित नहीं थे। कश्मीर में, प्रमुख मिलिटेंट बुरहान वानी की हत्या के बाद शटडाउन लागू किए जाने के तुरंत बाद दंगे भड़क गए थे। वास्तव में, उस सप्ताह 2016 में कश्मीर में हिंसक अशांति की सबसे ज़्यादा घटनाएं देखी गई थी – और इसके बाद के हफ्तों में झड़पों में कम से कम दो और बड़ी वृद्धियाँ हुई।

नियमित इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के लिए शटडाउन का निस्संदेह ही एक सहमा देने वाला प्रभाव होता है। कई युवा उद्यमी पहले ही कश्मीर में डिजिटल व्यवसाय शुरू करने की अपनी महत्वाकांक्षाओं को छोड़ चुके हैं क्योंकि उन्हें बनाये रखने की लिए (इंटरनेट) कनेक्शन पर्याप्त रूप से भरोसेमंद नहीं हैं। राजनीतिक गतिविधियों के संदर्भ में, आक्रोश लगभग हमेशा एक ज़रिया ढूंढ लेता है, चाहे वह डिजिटल हो या नहीं। हालाँकि शटडाउन के परिणामस्वरूप ऑनलाइन वार्तालाप कैसे बदलते हैं, हमें इस बारे में अधिक जानकारी नहीं है, पर मुझे संदेह है कि यह वास्तव में तेज़ी से राजनीतिक हो जाते हैं क्योंकि जो लोग पहले राजनीतिक रूप से तटस्थ थे वे दुनिया से काट दिए जाने पर कुछ करने के लिए उत्तेजित हो जाते हैं। ब्लैकआउट के बाद (संचार का) स्विच जब वापस ऑन कर दिया जाता है, तो राजनीतिक विचार–विवाद का तूफ़ान इसकी पुष्टि करता है।

क्या आपने संचार, स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था जैसे विभिन्न क्षेत्रों में शटडाउन के प्रभावों का अध्ययन किया है?

यान रीड्ज़ाक़: मैंने किया है, लेकिन मैं इसमें अकेला नहीं हूं। भारतीय गैर सरकारी संगठन और अनुसंधान केंद्र पूरे भारत में शटडाउन के प्रभाव को दृष्टिगत करने में आगे रहे हैं। उदाहरण के लिए, ‘बचाओ प्रोजेक्ट’ ने मणिपुर में महिलाओं पर शटडाउन के प्रभाव को उजागर किया है, जिसमें उत्पादकता में, व्यावसायिक अवसरों में और भावनात्मक सलामती में गिरावट शामिल है। आर्थिक मोर्चे पर, भारत के प्रमुख विचार संस्थाओं में से एक द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ने यह बताया कि शटडाउन ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को 2012 से 2017 के बीच 300 करोड़ डॉलर से अधिक का नुक्सान किया था, पर इंटरनेट-निर्भर व्यापार उपक्रमों की कहानियां भी बताईं, जो इस दौरान आय के मुख्य रास्तों के भांग होने से तबाह हो गए थे, विशेष रूप से छोटे और मध्यम स्तर के उद्यम और आयात / निर्यात व्यापारी। कई औरों ने अन्य देशों में आर्थिक नुकसान पर ध्यान दिया है। और हमें याद रखना चाहिए कि यह सभी श्रेणियाँ – शिक्षा, आर्थिक और व्यक्तिगत सुरक्षा, अभिव्यक्ति की आज़ादी – मानव अधिकार हैं, और संचार के विच्छेद होने पर इन सभी का उल्लंघन होता है।

बेशक अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है – शटडाउन का प्रभाव सभी दिशाओं में फैलता है, जिनमें से कई अनदेखे रह जाते हैं। उदाहरण के लिए, यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है कि यदि संचार-माध्यमों से कटा हुआ कोई क्षेत्र जुड़ा होता तो कितनी गंभीर मेडिकल स्थितियों या मौतों को रोका जा सकता था।  तूफान मारिया जैसी प्राकृतिक आपदाओं से, जिसने पोर्तो रिको में संचार के बहुत से बुनियादी ढांचों को तोड़ दिया था, हमारे पास इस बात का प्रमाण है कि किसी भी प्रकार के सूचना ब्लैकआउट उन संकट और आपातकाल के क्षणों में विशेष रूप से विनाशकारी होते हैं, जहां वे किसी हस्तक्षेप को गंभीर रूप से  रोक सकते हैं। उन परिस्थितियों में संचार चैनलों तक पहुंच का मतलब जीवन और मृत्यु के बीच का अंतर हो सकता है। प्रलेखित किए जाने वाले सभी प्रभाव समय के साथ बढ़ते जाएंगे, विशेष रूप से उन जगहों में जहाँ संचार संयोजकता के दर तेज़ी से बढ़ रहे है और जो बढ़ती हुई डिजिटल अर्थव्यवस्ताएं हैं।

भारत के अन्य हिस्सों के मुक़ाबले कश्मीर में इंटरनेट बंदी निष्पादन, प्रतिरूप, उद्देश्य और प्रभाव के मायनों में कैसे अलग है?

यान रीड्ज़ाक़: पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात, कश्मीर में होने वाले शटडाउन की संख्या बाक़ी सभी राज्यों और केंद्र शाषित प्रदेशों के शटडाउन को मिलाकर बनी संख्या के लगभग बराबर है- यानि 47%। कश्मीर ने भारत के ज़्यादातर हिस्सों में शटडाउन के विस्तार की शुरुआत की – भारत में पहला ज्ञात शटडाउन जनवरी 2012 में गणतंत्र दिवस की तैयारी में कश्मीर घाटी में हुआ था। अन्य राज्यों के विपरीत, कश्मीर में अधिकारी अक्सर संचार को बंद करने के लिए आतंकवाद और अलगाववादी झुकाव के खतरे के बहाने का उपयोग करते हैं, हालांकि वे इस बात पर विचार करने में विफल रहते हैं कि दुनिया भर में हिंसक विद्रोहियों के छोटे गुट शटडाउन के प्रति अनुकूल होते हुए वैकल्पिक या गैर-डिजिटल संचार साधनों का प्रयोग कर रहे हैं।

मुझे लगता है कि हमें अपने आप से एक विस्तृत सवाल पूछना चाहिए: भारत हर साल थोपे जाने वाले शटडाउन की संख्या में अन्य सभी देशों पर हावी क्यों है? दुनिया के आधे सुनियोजित ब्लैकआउट एक लोकतंत्र में क्यों होते हैं? इसका जवाब लगभग निश्चित रूप से संस्थागत है। भारत के 2017 के शटडाउन के नियम दुनिया में ऐसे पहले थे जिनमें यह स्पष्ट किया गया था कि शटडाउन का आदेश कौन दे सकता है, यह कब लगाया जा सकता है और इसमें किस प्रक्रिया का पालन किया जाना है। लेकिन यह सत्यापित करने का कोई तरीका नहीं है कि क्या इसका पालन किया जा रहा है, और शटडाउन की बढ़ती घटनाओं से यह मालूम होता है कि यह जवाबदेही सुनिश्चित करने के बजाय उस कदम को वैध बनाने के लिए थे। कोई भी देश स्थानीय अधिकारियों को शटडाउन लागू करने की इतनी छूट नहीं देता जितनी भारत देता है; यह निर्णय लगभग हमेशा उच्चतम, केंद्रीय स्तर पर लिया जाता है। भारत में, न्यायपालिका, विधायिका, और कार्यपालिका सभी ब्लैकआउट को मंज़ूरी देते हैं – एक तरह का व्यापक माहौल जो स्थानीय अधिकारियों को किसी भी तरह के अनचाहे परिणामों की ज़िम्मेदारी से मुक्त करता है।

कश्मीर में चल रहे इंटरनेट बंद को यू एन ने कश्मीर के लोगों प्रति सामूहिक सज़ा का एक रूप में करार दिया है। यह इंटरनेट बंदी पहले लगाए गयी बंदियों से अलग कैसे है?

यान रीड्ज़ाक़: सबसे बड़ी बात है इस बार की बंदी का पैमाना और प्रभाव। (भारत के) सॉलिसिटर जनरल ने दावा किया है कि हाल ही में लगायी गयी बंदी को लेकर मचा हुआ हंगामा बढ़ा चढ़ा कर बताया जा रहा है, क्योंकि 2016 में बुरहान वानी की हत्या के बाद लगाए गए तीन महीने के लंबे ब्लैकआउट के खिलाफ आक्रोश इसकी तुलना में हल्का था। इस बात का कोइ तर्क नहीं है – कई लोगों ने दोनों शटडाउन की निंदा की है, और शटडाउन के बड़े स्तर के प्रभावों के बारे में हम तीन साल पहले की तुलना में अब ज़्यादा जानते हैं। साथ ही, हम तब की तुलना में अब बहुत बड़े और ज़्यादा समन्वित हमले का सामना कर रहे हैं। निस्संदेह यह कुछ हद तक इस वजह से है क्यूंकि यह शटडाउन संभवत: पहला ऐसा है जिसका आदेश सीधा केंद्र सरकार ने दिया है। केंद्र सरकार की ओर झुकाव वाले राजनीतिक नेताओं सहित हज़ारों लोगों को सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (पब्लिक सेफ्टी एक्ट) और अन्य क़ानूनी साधनों के तहत हिरासत में लिया गया है। पिछले मामलों के विपरीत जहां सरकार ने मुख्य रूप से मोबाइल कनेक्टिविटी को निशाना बनाया था, इन शटडाउन आदेशों में – जो अभी भी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं – टेलीविज़न चैनल और लैंडलाइन भी निहित हैं।

प्रभाव के संदर्भ में, प्रिंट और ऑनलाइन मीडिया गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हुए हैं, परिसंचरण कम है और कुछ ही अखबार छप पा रहे हैं। फिर, बेशक, इस बंद की अवधि की बात आती है। कश्मीर में अधिकांश ब्लैकआउट अल्पकालिक रहे हैं, औसतन लगभग तीन से पांच दिन; 60 दिनों से ऊपर चलने वाली (अब 120 दिन से ऊपर) यह एक सच्ची डिजिटल घेराबंदी है। जैसा कि हमने दुनिया में और जगहों में देखा है – उदाहरण के तौर पर कैमरून – इस तरह की घेराबंदी डिजिटल अर्थव्यवस्थाओं के लिए विशेष रूप से विनाशकारी हैं। ब्लैकआउट के तहत कश्मीर में व्यवसायों का ठप्प होना इस बात का सबूत है।

सूचना ब्लैकआउट से अफ़वाहों और झूठी सूचनाओं का प्रसार हो सकता है। क्या शटडाउन सरकार के उद्देश्य को पूरा करता है? आपका शोध क्या सुझाव देता है?

यान रीड्ज़ाक़: हमारे द्वारा आज तक देखे गए अधिकांश ब्लैकआउट्स को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है: वे जिनका उल्टा प्रभाव पड़ा, वे जिन्होंने विरोध की तीव्रता को नहीं बदला (हालांकि हो सकता है संरचना बदल दी हो), और वे जिनकी असली प्रभावशीलता अज्ञात है क्योंकि वे कई अन्य प्रतिबंधों के साथ लागू किये गए थे। यदि किसी सरकार का असली उद्देश्य प्रदर्शनों या हिंसा को रोकना है, तो मैंने और अन्य लोगों ने जो शोध किया है उससे पता चलता है कि वे जो हासिल करना चाहते हैं वह हासिल नहीं करते हैं। भारत के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो हम विरोध की गतिशीलता को बदलते हुए देखते हैं, लेकिन एक अप्रत्याशित दिशा में: वे अधिक हिंसक हो जाते हैं। औसतन, एक मानक परिदृश्य की तुलना में, जिसमें संचार नेटवर्क उपलब्ध हैं और निर्बाध हैं, हम देखते हैं कि हिंसक अशांति में बढ़ोतरी न केवल ब्लैकआउट के पहले दिन, बल्कि बाद के कई दिनों तक होती है। सूचना के अभाव में पथराव और अन्य हिंसात्मक घटनाओं को खत्म होने में उतना ही समय लगता है जितना कि संचार सेवाओं के रहते हुए, लेकिन वे और ज़्यादा उठते हैं। इसके साथ-साथ, यदि सरकार का उद्देश्य शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को बाधित करना है – जो कि सार्वभौमिक मानवाधिकारों कि घोषणा और दुनिया भर में राष्ट्रीय नियमों के तहत संरक्षित हैं – सूचना ब्लैकआउट्स की सफलता का दर बहुत ही असंगत है, यहाँ तक कि इनकी तुलना एक सिक्का हवा में उछालने से की जा सकती है। इसका मतलब यह है कि शटडाउन किसी भी तरह के विरोध के खिलाफ प्रभावी नहीं लगते हैं, चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक।

अन्य देशों में, जहां सड़क पर विरोध-प्रदर्शनों का संगठन और गतिशीलता अलग दिख सकते है, वहां अभी भी कोई सबूत नहीं है कि ब्लैकआउट प्रभावी हैं। उदाहरण के तौर पर, नविद हसनपुर ने एक पूरी किताब के बराबर प्रमाण प्रकाशित किए हैं कि 2011 में मिस्र में शटडाउन शानदार तरीके से विफल हुआ था और सरकार के अभिभूत होने तक प्रदर्शनकारी स्थानीय गुटों में बंटते गए। अभी हाल ही में, जब उमर अल-बशीर ने सूडान में तीन महीने के लिए सोशल मीडिया को बंद कर दिया, तो शासन-व्यवस्था का विरोध शांतिपूर्ण  तरीके से जारी रहा – और जून के अंत में जब संक्रमणकालीन सैन्य शासन ने सभी संचारों को काट दिया, तो हज़ारो-सैकड़ों लोगों ने पारंपरिक तरीके से जुट कर अपनी नाराज़गी व्यक्त की। कश्मीर में, लगभग पूरे सूचना ब्लैकआउट के हालत में भी हमने सौरा में जनता का वैसा ही जुटाव देखा, और बंद के पहले दिनों से पता चला कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद कश्मीर में चारों ओर विरोध प्रदर्शन समान स्तर पर जारी रहे।

इसके साथ ही, हम इस बारे में बहुत कम जानते हैं कि ब्लैकआउट गलत सूचना के प्रसार को कैसे प्रभावित करता है। लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि बड़े पैमाने पर विघटन सभी प्रकार की सूचना प्रवाह को दबाते हैं, और अफवाहें संपर्क कटने पर भी फैलती हैं। श्रीलंका में ईस्टर बम विस्फोट के बाद अप्रैल में लगाए गए ब्लैकआउट ने सिर्फ एक आउटलेट – राज्य से जुड़े टेलीविज़न  – लोगों के लिए छोड़ा था, जिनमें वे लोग भी शामिल थे जो अपने लापता प्रियजनों की तलाश कर रहे थे। इस चैनल के माध्यम से गलत जानकारी का संचार हुआ, जिसने श्रीलंकाई पुलिस के हवाले से ब्राउन विश्वविद्यालय के एक छात्र की संदिग्ध के रूप में झूठी पहचान थी, और यह झूठी खबर निश्चिन्त ही पुलिस के मजबूरी में किये गए प्रतिगमन से ज़्यादा दूर पहुंची थी। अंततः, हमें सूडान में बंद के दौरान मेरे सहयोगी मोसेस कारंजा द्वारा उल्लेखित की गई बात को पहचानना होगा – ब्लैकआउट सूचना के प्रसार को पूरी तरह से रोकने के बजाय केवल विलंबित करता है। डिजिटल संचार में कटौती का मतलब है कि राजनीतिक स्पेक्ट्रम के सभी पक्षों पर गलत सूचना उन लोगों तक पहुँच सकती है जिनके पास संचार की पहुँच है लेकिन तथ्य-जांच या छवियों, लेख और वीडियो को सत्यापित करने का अवसर नहीं है। यह किसी की मदद नहीं करता है और सभी को नुकसान करता है।

कई बार इंटरनेट में विघटन उसकी गति कम कर दिए जाने के रूप आता है। क्या राज्य छवि और वीडियो की ताक़त से डरता है और गति को नियंत्रित करके प्रशासन यह सुनिश्चित करता है कि लोग मीडिया को अपलोड और साझा करने में सक्षम ना हो ?

यान रीड्ज़ाक़: हां, क्योंकि छवियां और वीडियो न केवल अधिक सम्मोहक और भावनात्मक रूप से उत्तेजक हैं, बल्कि यह भाषाओँ की बंदिशों को पार करके, साक्षरता के स्तर की परवाह के बग़ैर उन लोगो तक पहुँच सकते हैं जिनके पास फ़ोन है। सैकड़ों विरोध और अभियान – हिंसक और अहिंसक, दोनों –  अपवादजनक वीडियो के जवाब में शुरू किये गए हैं, चाहे वे वास्तविकता को दर्शाते हों या नहीं। वीडियो और छवियों की तथ्य-जांच यकीनन अधिक कठिन है – या कम से कम अधिक समय लेने वाली है, जो ऐसे समय में उचित प्रतिक्रिया के लिए एक बाधा हो सकती है जब कीमती वक़्त हाथ से निकल रहा हो।

व्हाट्सएप, फ़ेसबुक, टेलीग्राम, ट्विटर, और अन्य चैनलों पर छवियों और वीडियो साझा किये जाने को धीमा करने के लिए अस्थायी उपाय के रूप में, तुर्की, कज़ाकिस्तान, सूडान, इंडोनेशिया और अन्य देशों में थ्रॉटलिंग (इंटरनेट की गति को कम करना) का उपयोग किया गया है। ऐसा करने से सरकार को यह दावा करने का मौका मिल जाता है कि वे सबसे चरम उपाय नहीं कर रहे हैं, जो वह कर सकते हैं – सभी संचार की पूर्ण बंदी। यह उन्हें यह तर्क देने की भी अनुमति देता है कि वे अंतरराष्ट्रीय कानून द्वारा निर्धारित कायदों का पालन कर रहे हैं, जिनमें कहा गया है कि प्रशासन को उन उपायों को अपनाना चाहिए जो मुक्त अभिव्यक्ति के लिए कम से कम प्रतिबंधात्मक हैं। बेशक वैध और सच्ची ऑडियो विज़ुअल  सामग्री ही इंटरनेट की गति को धीमा कर दिए जाने की दौरान सबसे ज़्यादा भुगतती है।

थ्रॉटलिंग और शटडाउन दोनों ही अनुपातहीन प्रतिक्रियाएं हैं। हां, व्हाट्सएप वायरल सूचना साझा करने की सुविधा देता है जो अंततः हिंसा को उकसा सकती है, जो कि नेटवर्क के बजाय उन लोगों कि अंदर रहती है जो उसमें भाग लेते हैं। हां, ऐसे बुरे किरदार हैं जो जानबूझकर इस हिंसा को भड़काते हैं। लेकिन नए शोध से पता चलता है कि प्लेटफार्मों का अंदर से परिवर्तन – जैसे कि किसी संदेश को साझा करने की संख्या को सीमित करना – पूर्ण शटडाउन की तुलना में खतरनाक विघटन को रोकने में अधिक प्रभावी हो सकता है। इसके साथ हमेशा पैसों के अभाव में चलने वाले मीडिया-साक्षरता की पहल को भी ध्यान में रखना चाहिए, जो स्वस्थ (ऑनलाइन) बातचीत और गलत सूचना के जाल से बचने के बारे में विश्वास, शिक्षा और ज्ञान के स्थानीय नेटवर्क बना सकता है। यह सब व्यापक और ऊपर से नीचे थोपे गए निर्देशों जैसे ब्लैकआउट में अनुपस्थित है। इसमें सरकारी नुमाइंदे, पश्चिमी शोधकर्ता या सिलिकॉन वैली टेक कंपनियां नहीं बल्कि भारतीय नागरिक समाज को चालक की सीट में होने चाहिए, और अन्य सभी को सहायक की भूमिका में।

आप अपने पेपर की समापन टिप्पणी में कहते हैं, “भारत विकासशील देशों में सूचना नियंत्रण का एक पेट्री डिश है”। क्या आप इस टिप्पणी का विस्तार करेंगे?

यान रीड्ज़ाक़: भारत सरकार के पास एक मशाल है जिसका इस क्षेत्र और उससे परे कई लोग बारीक़ी से निरीक्षण करते हैं और अक्सर नकल करने का प्रयास करते हैं। यह विशेष रूप से भारत भर में संचालित बड़े पैमाने पर चलने वाले परिचालन उपक्रमों पर लागू होता है। आधार योजना डिजिटल पहचान प्रणालियों, उनकी सफलताओं और चुनौतियों के लिए प्रेरणा के रूप में काम करता है जो केन्या जैसे देशों में उभरते डिजिटल आईडी कार्यक्रमों के लिए आगे बढ़ने के सुझाव प्रदान करता है। 2016 में प्रधान मंत्री मोदी के अप्रत्याशित नोटबंदी के कार्यक्रम ने पाकिस्तान को अपनी ऐसी ही योजना लागू करने के लिए प्रेरित किया। इसका दूसरा पहलू यह है कि भारत सरकार द्वारा लागू किए गए दमनकारी उपायों का उतना ही अनुकरण किया जा सकता है जितना कि राजनीतिक रूप से तटस्थ पहलों का। नीतिगत प्रसार कोई नई बात नहीं है, और अगर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला लोकतंत्र शटडाउन/ बंद का मुख्य कर्ताधर्ता है, तो और भी सत्तावादी सरकारों को बनावटी/ काल्पनिक कारणों से ब्लैकआउट थोपने से रोकने के लिए कुछ भी नहीं है। उस तरह से भारत सरकार के ऊपर डिजिटल दायरे में स्वतंत्र अभिव्यक्ति की सुरक्षा के लिए एक क्षेत्रीय ताक़त की सभी जिम्मेदारियां हैं।

इंटरनेट उपयोग एक मानव अधिकार घोषित किया गया है, फिर भी राज्य नियमित रूप से कश्मीर में इस अधिकार का उल्लंघन करता है और इस पर बहुत अधिक वैश्विक प्रतिक्रिया नहीं है।आपका  इस पर विचार..

यान रीड्ज़ाक़: वैश्विक प्रतिक्रिया की कमी का समाचार चक्र के संचालन के तरीके से रिश्ता है। समाचार आउटलेट स्वाभाविक रूप से संकट और अराजकता के प्रमुख क्षणों की तरफ आकर्षित होते हैं, खासकर अगर वे बिना चेतावनी के आये। हाल ही में एक शटडाउन के बारे में वैश्विक स्तर पर सबसे ज़्यादा ट्वीट्स और विचार विमर्श इस साल अप्रैल में श्रीलंका में बम विस्फोट के बाद आये। हताहतों की भयावह संख्या ने उचित ही  मीडिया का ध्यान आकर्षित किया और सरकार की चरम प्रतिक्रिया (सोशल मीडिया को बंद करना) ने केवल आग में ईंधन डाला। अरब स्प्रिंग की शुरुआत में मिस्र के बारे में भी यही कहा जा सकता है, जो संभवतः दुनिया में पहला देशव्यापी शटडाउन था और क्षेत्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर आया था।

ईमानदारी से कहा जाये तो एक राष्ट्रव्यापी राजनीतिक संकट की कमी वैश्विक समाचार चक्र के ट्रेंडिंग मुद्दों के लिए अनुकूल नहीं है। कश्मीर में – और बाद में भारत भर में – शटडाउनों को “नया सामान्य” बनने दिया गया,  जिसे इस तथ्य से बढ़ावा मिला कि उनमें से कई अल्पकालिक थे और भारत से परे सरोकार जगाने में विफल रहे। अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण ने कश्मीर के राजनीतिक संकट को दुनिया भर के पत्रकारों के बीच वापस ला दिया, जिन्होंने माना कि यह स्थिति अभूतपूर्व थी। संचार ब्लैकआउट एक बड़ी कहानी का हिस्सा है जिसका महत्व को, उसके विशाल निहितार्थ को देखते हुए, अब नकारा नहीं जा सकता है।

इंटरनेट शटडाउन पर आपका काम कश्मीर और अन्य जगहों पर इंटरनेट तक पहुंच को सुरक्षित रखने और बढ़ावा देने में क्या भूमिका निभा सकता है?

यान रीड्ज़ाक़: मुझे लगता है – और आशा है कि – यह सरकारों को दिखा सकता है कि सूचना नियंत्रण के चरम उपाय संकट की स्थितियों से निपटने का सही तरीका नहीं है। मानवाधिकारों के सवाल पर जांच और दबाव बनाए रखना महत्वपूर्ण है क्योंकि ब्लैकआउट मानवाधिकारों की एक पूरी श्रृंखला को कमज़ोर करता है, जिसकी पुष्टि कई स्वतंत्र संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों ने की है। नेताओं को यह याद दिलाना भी महत्वपूर्ण है कि संचार को अवरुद्ध करने के उनके अभियान उनकी अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकते हैं और नागरिकों को अपने व्यवसाय शुरू करने या बनाए रखने से हतोत्साहित कर सकते हैं।

लेकिन यहाँ उनके स्वार्थ को निशाना बनाना भी महत्वपूर्ण है। सरकारें अक्सर यह समझने में विफल रहती हैं कि हर ट्विटर हैंडल और व्हाट्सएप फोन नंबर के अलावा भी लोग जुटने को तैयार हैं, डिजिटल संचार तक उनकी पहुँच की परवाह किए बग़ैर। यदि ब्लैकआउट्स काम नहीं करते हैं – या वह एक संकट की स्तिथि को संभालना और मुश्किल बना सकते हैं – तो प्रशासन को खुद से पूछना होगा कि क्या यह उन्हें थोपना किसी भी तरह से वाजिब है।


यह लेख कारवां डेलीमें 7 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित किया गया था। उनकी अनुमति  के साथ इसका अनुवाद कश्मीर ख़बरने किया है।  

मूल लेख : https://caravandaily.com/communication-blackout-in-kashmir-truly-a-digital-siege-says-former-stanford-university-scholar/

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