औरंगाबाद अछूत सम्मेलन में पारित हुआ था 14 अप्रैल को ‘अांबेडकर दिवस’ मनाने का प्रस्ताव


डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 32

पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे मेंयह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण  स्रोतग्रंथ  डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन  का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और  समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। पहले यह शृंखला मंगलवार को प्रकाशित होती थी लेकिन अब यह बुधवार को प्रकाशित होगी। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की  बत्तीसवीं कड़ी – सम्पादक

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औरंगाबाद जिला अछूत सम्मेलन

(बाम्बे सीक्रेट एबस्ट्रक्ट, 14 जनवरी 1939)

49। 30 दिसम्बर 1938 को मकरनपुर, जिला पूर्वी खण्देश में औरंगाबाद जनपद का एक सम्मलेन डा.आंबेडकर की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें 200 लोगों ने भाग लिया था। यह सम्मेलन यहाॅं इसलिए किया गया था, क्योंकि निजाम के क्षेत्र में इसे अनुमति नहीं मिल सकती थी, इसलिए यह अपनी तरह का पहला सम्मेलन था। इस राज्य में अछूतों के प्रति मुसलमानों का व्यवहार निन्दनीय था। डा. आंबेडकर ने, जो मुख्य वक्ता थे, श्रोताओं को बताया कि वे अपनी पीड़ा और समस्याओं को उन्हें लिखकर भिजवा दें और वे अपने राज्य में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की शाखा स्थापित करें।

सम्मेलन में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए गए-

  1. वतन भूमि महारों को दी जाए,
  2. अछूतों के लिए सीटें आरक्षित हों,
  3. प्रत्येक वर्ष 14 अप्रैल को ‘आंबेडकर दिवस’ मनाया जाएगा, और
  4. हिन्दूधर्म छोड़ने की डा. आंबेडकर की घोषणा का समर्थन करते हैं, क्योंकि अछूतों का विश्वास हिन्दू महासभा, आर्यसमाज या काॅंग्रेस में नहीं है।

 

 

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हलवाहों के साथ अन्याय

प्रकाशम समिति की सिफारिशों पर चर्चा

(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 18 जनवरी 1939)

इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के नेता डा. बी. आर. आंबेडकर ने निम्नलिखित वक्तव्य जारी किया है-

मैंने जमींदारी क्षेत्रों के हालात पर प्रकाशम समिति की सिफारिशों को पढ़ा है। जबकि, यह देखते हुए कि जमींदार राजस्व के एक अधिन्यासी से ज्यादा नहीं है, समिति ने यह मान लिया है कि जमीन के मालिकों से सम्बन्धित जमीन के वास्तविक किसान के लिए कोई किराएदारी अधिकार नहीं है, न ही कानूनी रूप से सही है, और न ही किसान और कृषि अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ विकास के लिए अनुकूल है।

यह कानूनी रूप से गलत है, क्योंकि मालिकाना अधिकारों के वर्ग पिछली शताब्दी के दौरान बनाए गए थे, और उन्हें सभी किराएदारी कानूनों में मान्यता प्राप्त है। यह किसान के साथ भी अन्याय है, क्योंकि कम किराया या राजस्व तय करने का मकसद उसके लिए एक बड़ा अतिरिक्त हिस्सा छोड़ना है, जिससे वह अपने खेत को सुधार सके तथा वर्षों की कमी को पूरा कर जीने लायक कुछ आय प्राप्त कर सके, न कि जमींदार और किसान के खर्च पर स्वयं को धनी बनाकर बड़ी संख्या में छोटे जमींदार पैदा करने के लिए।

यह कृषि हितों के भी विरुद्ध है, क्योंकि मालिकाना हितों को कृषि प्रयोजनों के उपयोग के लिए उसके संरक्षण के विरुद्ध सम्पत्ति के रूप में भूमि को किसानों को किरए पर देकर भूमि का शोषण करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

प्रकाशम समिति की रिपोर्ट बड़े पट्टेधारकों के बीच किसानों से एकत्र किए गए जबरन लगान के वितरण के आकलन से अधिक कुछ नहीं है।

मि. प्रकाशम ने हाल ही में विधायिका में एक प्रश्न के उत्तर में कहा है कि लगान कानून रैयतवाड़ी क्षेत्रों में नहीं लगाया जायेगा, क्योंकि रैयतवाड़ी धारक खेतों के मालिक हैं। इससे वह काॅंग्रेस मन्त्रालय से किसान के लिए होने वाले किसी भी कल्याण की सारी आशाएॅं बन्द कर देते हैं।

मुझे कोई सन्देह नहीं है कि मद्रास में अनुसूचित वर्ग प्रतिनिधि ऐसे किसी भी कानून के पक्ष नहीं होंगे, जो मालिकाना हकों के नाम पर, भूमि-कर पाने वाले का नया वर्ग बनाता है। और मुझे लगता है कि उनके द्वारा इस तरह के किसी भी कानून को दिया गया समर्थन किसानों के हितों के साथ भारी विश्वासघात होगा।

 

 

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राष्ट्र की आजादी के स्थाई खतरे

डा. आंबेडकर ने संघ का खण्डन किया

(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 31 जनवरी 1939)

 

डा. बी. आर. आंबेडकर ने शनिवार की रात पूना में गोखले स्कूल आॅफ इकोनामिक्स में अपने तीन घण्टे लम्बे भाषण में संघीय योजना पर गहरा प्रकाश डाला।

प्रथम, संघीय योजना देश की स्वतन्त्रता का मार्ग प्रशस्त करने की बजाए ‘डोमिनियन स्टेटस’ का मार्ग भी स्थायी रूप से अवरुद्ध कर देगा।

डा. आंबेडकर चाहते थे कि उनके पास ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों का केवल एक संघ होना चाहिए।

राज्यों के सम्बन्ध में वे चाहते थे कि छोटे राज्यों की पेंशन बन्द कर देनी चाहिए और जो बड़े राज्य हैं, उनमें से कुछ राज्यों को कुछ शर्तों के साथ काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

उनके अनुसार, संघीय योजना ने पूरी तरह से स्वतन्त्र मनुष्य और उस गरीब को भुला दिया है, जिसने राष्ट्रीय राजनीति के अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व का गठन किया है।

इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, बम्बई के नेता डा. बी. आर. आंबेडकर के उपरोक्त भाषण का सार-संक्षेप निम्नजिखित है-

डा. आंबेडकर ने संघ के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए संघ की तुलना कुछ दूसरे संघों से की है। इस तुलना में उन्होंने तीन बड़े सवाल उठाए हैं-

(1) संघों की इकाइयाॅं क्या हैं, (2) इन इकाईयों का संघ के साथ क्या सम्बन्ध है, और, (3) इसका उन लोगों से क्या सम्बन्ध है, जो संघ की सम्प्रभुता के अधीन लाए गए हैं।

इस सम्बन्ध में उनका मानना है कि एक सामान्य नागरिकता के साथ संघ एक सामान्य बात नहीं है। संघ एक समूह है, जिसके कानून में विदेशी राज्य हैं। संघ वस्तुतः एक महासंघ है। इसकी सारी विशेषताएॅं और लक्षण महासंघ की हैं। अगर लोग इसे संघ कहने पर जोर देते हैं, तो यह संघ के बीच न केवल एक भीमकाय है, बल्कि संघों के बीच भी भीमकाय है।

आगे डा. आंबेडकर संघीय योजना को स्वीकार करने के पक्ष में दी जाने वाले मूल तर्कों का भी परीक्षण करते हैं, जो ये हैं-

(1) यह भारत की एकता में सहायक है।

(2) यह ब्रिटिश भारत को भारतीय भारत को प्रभावित करने और धीरे-धीरे भारतीय भारत में राजतन्त्र को ब्रिटिश भारत में मौजूद लोकतन्त्र में बदलने में सक्षम बनाता है।

(3) यह एक उत्तरदायी सरकार का प्रतीक है।

तर्क (1) के सम्बन्ध में उन्होंने उल्लेख किया है कि भारतीय भारत शब्द के अन्तर्गत शामिल सभी राज्यों को संघ के तहत नहीं लाया गया है। अधिनियम की अनुसूची 1 के साथ एस. 6 (1) को पढ़िए, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि संघ हर राज्य के शामिल होने के लिए नहीं है। इस वजह से 498 राज्य अभी भी संघ के बाहर हैं और कभी भी उसका हिस्सा नहीं हो सकते। डा. आंबेडकर ने पूछा, ये राज्य संघ से बाहर क्यों हैं और उनकी स्थिति एवं भविष्य क्या है?

तर्क (2) के सम्बन्ध में डा. आंबेडकर इस निष्कर्ष पर पहुॅंचे हैं कि कानून द्वारा जिन राज्यों को रखा गया है, उनकी स्थिति ब्रिटिश भारत के मामलों को नियन्त्रित करने की है और उसी कानून से ब्रिटिश भारत को राज्यों पर किसी प्रकार का प्रभाव डालने के कार्य से निर्योग्य कर दिया गया है। उनके विचार में संघीय योजना ने राजतन्त्र को लोकतन्त्र उम बदलने में सहायता नहीं की है। सच तो यह है कि इसने भारतीय राज्यों के लोकतान्त्रिककरण की प्रक्रिया को गतिशील बनाने में ब्रिटिश भारत को बाधित किया है। दूसरी ओर इसने ब्रिटिश भारत में भी लोकतन्त्र को ध्वस्त करने में सहायता की है।

तर्क (3) के सम्बन्ध में उनका कहना यह है कि उत्तरदायित्व का विस्तार रक्षा और विदेशी मामलों के लिए नहीं किया गया है और यह भी कि प्रान्तों में द्विशासन प्रणाली की तुलना में, संघ में उत्तरदायित्व की योजना जानबूझकर उत्तरदायित्व को कम करने के लिए बनाई गई थी। डा. आंबेडकर ने कहा, ‘आप जिस तरह से भी संघीय योजना को देखें, और उसमें उत्तरदायित्व से सम्बन्धित प्राविधानों का विश्लेषण करेंगे, तो आप देखेंगे कि वास्तविक उत्तरदायित्व कुछ भी नहीं है।’

‘संघीय योजना के दोषों’ का उल्लेख करते हुए, डा. आंबेडकर ने संविधान में सबसे बड़ी कमी का खुलासा किया। उन्होंने कहा कि ऐसा कोई नहीं है, जिसने योजना को दोषपूर्ण नहीं माना हो।

उन्होंने आगे कहा, ‘मतभेद केवल वहाॅं पैदा होते हैं, जब यह सवाल पूछा जाता है कि इस बारे में हम क्या करेंगे। सवाल कम जवाब को स्थगित किया जा सकता है, परन्तु इसे टाला नहीं जा सकता। सवाल यह है कि किस सन्दर्भ में संविधान में संशोधन की माॅंग करें?’ डा. आंबेडकर ने सत्यमूर्ति द्वारा जारी किए गए इस वक्तव्य को आरम्भिक बिन्दु के रूप में लिया, कि यदि काॅंग्रेस को स्वीकार्य हो, तो संघीय संविधान में इसी समय न्यूनतम संशोधन किया जा सकता है। डा. आंबेडकर ने पूछा, ‘क्या ये संशोधन या परिवर्तन संघीय योजना में से किसी एक को अस्वीकार करने के वर्तमान दृष्टिकोण को बदलने के लिए पर्याप्त होंगे?’

उनके विचार में संघीय योजना की आपत्तियों को कम से कम हटाया नहीं जायेगा, भले ही ब्रिटिश संसद सत्यमूर्ति की हरेक माॅंग को देने के लिए तैयार हो जाए। उनके लिए मूल प्रश्न यह है कि क्या यह संघीय योजना अपने विकास में इतनी सक्षम है कि अन्त में भारत अपने लक्ष्य तक पहुॅंच जायेगा। उन्होंने कहा कि संघीय योजना का परीक्षण इसी दृष्टिकोण  से किया जाना चाहिए। डा. आंबेडकर ने पूछा, ‘भारत के राजनैतिक विकास का लक्ष्य क्या है?’

डा. आंबेडकर के अनुसार संघीय योजना के अन्तर्गत डोमिनियन स्टेटस अर्थात स्वायत्त राज्य असम्भव है, क्योंकि संविधान अचल और कठोर है, और संसद के पास भी संघीय योजना को पूरी तरह नष्ट किए बिना संघीय संविधान को बदलने की शक्ति नहीं है।

इस तर्क के सन्दर्भ में कि संविधान ने स्वायत्तशासी प्रान्तों का निर्माण किया है, इसलिए कुछ बन्धनकारी शक्ति प्रदान की जानी चाहिए, उन्होंने सहमति व्यक्त की कि एक केन्द्रीय सरकार की स्थापना अनिवार्य थी, क्योंकि इसके बिना स्वायत्तशासी प्रान्त अराजक हो जायेंगे। लेकिन उन्होंने सोचा कि यह तर्क पूरे भारत के लिए केन्दीय्र सरकार की स्थापना का औचित्य साबित करने के दायरे से बाहर चला गया है, जो आवश्यक था, वह यह था कि ब्रिटिश भारत के लिए केन्द्रीय सरकार संघीय ढाॅंचे में होगी।उन्होंने पूछा कि इसे राज्यों के लिए लाना क्यों जरूरी था? उन्होंने बताया कि भारत सरकार अधिनियम 1935 ने दो अलग संघ- ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों का संघ और अखिल भारतीय संघ-स्थापित किए हैं। उनके वैधानिक और वित्तीय अधिकारों अथवा उनके ढाॅंचे में कोई अन्तर नहीं है। उनमें केवल एक विशिष्ट अन्तर है।

वह कहते हैं कि यह केवल ब्रिटिश भारत संघ ही था, जिसका केन्द्र में कोई उत्तरदायित्व नहीं था, और जब केन्द्र में उसका उत्तरदायित्व ही नहीं है, तो कोई अखिल भारतीय संघ भी नहीं है। इसका मतलब है कि संघ में राज्यों का प्रवेश ब्रिटिश भारत के प्रति उत्तरदायित्व प्रदान करने की एक पूर्ववर्ती शर्त थी। उन्होंने पूछा कि राज्यों का प्रवेश इतना आवश्यक क्यों था? उन्होंने ही इसका उत्तर भी दिया, ‘मोटे तौर पर इसे स्थापित करने का उद्देश्य साम्राज्यवादी हितों का समर्थन करने के लिए ब्रिटिश भारत में लोकतन्त्र के बढ़ते प्रवाह को रोकने में राजाओं का उपयोग करना है।’ डा. आंबेडकर कहते हैं कि इसका कोई दूसरा स्पष्टीकरण नहीं है- ‘राज्यों के प्रवेश के लिए क्या कीमत अदा की गई है?’

ब्रिटिश भारत न केवल केन्द्र में उस उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं हुआ है, जिसके बलिदान के अनुरूप, राजाओं के लिए संघ को आसान बनाया गया है, बल्कि उसने राजाओं के अधिकार और स्वतन्त्र डोमिनियन स्तर के दावे को भी खो दिया है।

संघ के दो भागों में से, ब्रिटिश भारत एक प्रगतिशील भाग है, जबकि राज्यों वाला भाग अनुदार है। वह प्रगतिशील भाग, जो अनुदार भाग के साथ जोड़ा जाना चाहिए, और पथ तथा भाग्य अनुदार भाग पर निर्भर किया जाना चाहिए, संघ के अत्यन्त दुखद पक्ष का गठन करता है।

अन्त में डा. आंबेडकर ने राजाओं, हिन्दू-मुसलमानों और अनेक भिन्न दृष्टिकोणों से संघ पर विचार किया। उनके अनुसार राजाओं के दोहरे हित थे। वे सर्वोपरि सत्ता से बचना चाहते थे और संघ के अधिकार के लिए बहुत ज्यादा विषय भी नहीं देना चाहते थे।़़

संघ को देखकर राजाओं ने उनके सामने दो प्रश्न रखे- एक, यह संघ उन्हें सर्वोपरि सत्ता के उत्पीड़न से कैसे बचायेगा, और दो, इस योजना ने उनकी अन्तरिम सरकार की उनकी शक्तियों की प्रभुता को कितना दूर कर दिया है? डा.आंबेडकर ने कहा, ‘वे पहले संघ के तहत ज्यादा लेना चाहते हैं, और दूसरे के तहत कम देना चाहते हैं।’

इस सम्बन्ध में, डा.आंबेडकर इस बात पर जोर देते हैं कि इसके अलावा कुछ और भी विषय हैं, जिनका उल्लेख किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक विषय मुक्त व्यक्ति और गरीब व्यक्ति के दृष्टिकोण का भी है। संघ ने उनके बारे में कोई विचार नहीं किया लगता है और फिर भी यही वे लोग हैं, जो सबसे ज्यादा चिन्तित हैं।

डा. आंबेडकर ने जोर देकर कहा, ‘यदि यह संघ अस्तित्व में आता है, तो यह स्वतन्त्र व्यक्ति के लिए एक स्थाई खतरा होगा और गरीब व्यक्ति के मार्ग में बाधा हो़गा।’

डा. आंबेडकर ने अपने अन्तिम निष्कर्ष में कहा कि उनका भाषण इसलिए लम्बा हुआ, क्योंकि यह विषय विशाल है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि इसमें उन दिनों के मामलों को नहीं लिया गया है, जब भारतीय राजनीति के आकाश में रानाडे, तिलक, आगरकर, गोखले, दादाभाई, फिरोजशाह मेहता, सुरेंन्द्रनाथ बनर्जी जैसे सम्भ्रान्त और सुशिक्षित प्रख्यात नेता भारत के लोगों का नेतृत्व करते थे, जो अध्ययन और अनुभव पर भरोसा करते थे। आज केवल उनकी आवाजें शेष हैं।

 

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डा. आंबेडकर ने गाॅंधी के विचारों का खण्डन किया

(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 15 फरवरी1939)

(हमारे निजी संवाददाता द्वारा)

 

बीजापुर, 12 फरवरी।

‘संघ के मुद्दे पर मि.गाॅंधी द्वारा किया गया मि. बोस का विरोध मेरी समझ में नहीं आता है। इस विरोध की दो तरह से व्याख्या की जा सकती है: या तो मि. गाॅंधी ने संघ (फेडरेशन) को बिना शर्त स्वीकार करने का मन बना लिया है, या वह अपने अहिंसा और सत्याग्रह के हथियार से अलग हो गए हैं। ऐसा लगता है कि वह किसी भी रूप में संघ को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए हैं।’ यह वक्तव्य इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के नेता डा. बी. आर. आंबेडकर ने कल रात जिला हरिजन सम्मेलन, बीजापुर में अपने अध्यक्षीय भाषण में दिया।

उन्होंने दृढ़ता से संघ की आलोचना की और कहा कि इससे मामले कभी नहीं सुलझेंगे, बल्कि दूसरी ओर, इससे भारत में अराजकता बढ़ेगी और स्थिति खराब हो जायेगी। उन्होंने कहा कि वे साबित कर सकते हैं कि काॅंग्रेस में, जो गिरोह के हाथों में है, ईमानदारी पूरी तरह खत्म हो गई है। उन्हें पता था कि यह गिरोह गाॅंधी की चापलूसी करके, यदि वे पसन्द करते हैं, काॅंग्रेस में अपनी अद्वितीय स्थिति हासिल कर लेगा। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि काॅंग्रेस की वर्तमान नीति पूर्ण स्वराज का नेतृत्व करने की नहीं है। इसीलिए उन्होंने काॅंग्रेस में शामिल होने का मन नहीं बनाया था। यही कारण है कि उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव से कुछी दिन पहले एक अलग पार्टी- इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी शुरु की थी। उनका बीजापुर आने का मकसद भी यहाॅं अपनी पार्टी की शाखा स्थापित करना था।

 

पिछड़ी कड़ियाँ…

 

31. डॉ.आम्बेडकर ने बंबई में किया स्वामी सहजानंद का सम्मान

30. मैं अखबारों से पूछता हूॅं, तुम्हारे सत्य और सामान्य शिष्टाचार को क्या हो गया -डॉ.आंबेडकर

29. सिद्धांतों पर अडिग रहूँँगा, हम पद नहीं अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं-डॉ.आंबेडकर

28.डॉ.आंबेडकर का ग्रंथ रूढ़िवादी हिंदुओं में सनसनी फैलाएगा- सीआईडी रिपोर्ट

27ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है ब्राह्मणवाद, हालाॅंकि वह इसका जनक है-डॉ.आंबेडकर

26. धर्मांतरण का आंदोलन ख़त्म नहीं होगा- डॉ.आंबेडकर

25. संविधान का पालन न करने पर ही गवर्नर दोषी- डॉ.आंबेडकर

24. ‘500 हरिजनों ने सिख धर्म अपनाया’

23. धर्म बदलने से दलितों को मिली सुविधाएँ ख़त्म नहीं होतीं-डॉ.आंबेडकर

22. डॉ.आंबेडकर ने स्त्रियों से कहा- पहले शर्मनाक पेशा छोड़ो, फिर हमारे साथ आओ !

21. मेरी शिकायत है कि गाँधी तानाशाह क्यों नहीं हैं, भारत को चाहिए कमाल पाशा-डॉ.आंबेडकर

20. डॉ.आंबेडकर ने राजनीति और हिंदू धर्म छोड़ने का मन बनाया !

19. सवर्ण हिंदुओं से चुनाव जीत सकते दलित, तो पूना पैक्ट की ज़रूरत न पड़ती-डॉ.आंबेडकर

18.जोतदार को ज़मीन से बेदख़ल करना अन्याय है- डॉ.आंबेडकर

17. मंदिर प्रवेश छोड़, राजनीति में ऊर्जा लगाएँ दलित -डॉ.आंबेडकर

16अछूतों से घृणा करने वाले सवर्ण नेताओं पर भरोसा न करें- डॉ.आंबेडकर

15न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिक’ कहने पर डॉ.आंबेडकर की निंदा !

14. मन्दिर प्रवेश पर्याप्त नहीं, जाति का उन्मूलन ज़रूरी-डॉ.आंबेडकर

13. गाँधी जी से मिलकर आश्चर्य हुआ कि हममें बहुत ज़्यादा समानता है- डॉ.आंबेडकर

 12.‘पृथक निर्वाचन मंडल’ पर गाँधीजी का अनशन और डॉ.आंबेडकर के तर्क

11. हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर

10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!

9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!

8. जब अछूतों ने कहा- हमें आंबेडकर नहीं, गाँधी पर भरोसा!

7. दलित वर्ग का प्रतिनिधि कौन- गाँधी या अांबेडकर?

6. दलित वर्गों के लिए सांविधानिक संरक्षण ज़रूरी-डॉ.अांबेडकर

5. अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ प्रभावी क़ानून ज़रूरी- डॉ.आंबेडकर

4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !

3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !

2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

 



कँवल भारती : महत्‍वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्‍पणियों के लिए विख्‍यात। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।



 

 

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