‘500 हरिजनों ने सिख धर्म अपनाया’

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डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 24

पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे मेंयह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण  स्रोतग्रंथ  डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन  का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर कोलेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और  समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की  चौबीसवीं कड़ी – सम्पादक

 

 

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महात्मा और मालवीय पर आंबेडकर का आरोप

वे पूना पैक्ट के वादों को पूरा करने में विफल हो गए

राजा-मुंजे पत्राचार के प्रकाशन पर विस्फोट

(दि बाम्बे क्रानिकल, 8 अगस्त 1936)

 

बम्बई, 7 अगस्त।

डा. आंबेडकर ने एसोसिएट प्रेस को निम्नलिखित वक्तव्य दिया है-

‘मैंने दलित वर्गों के सिख धर्म अपनाने की सम्भावना के सम्बन्ध में रायबहादुर एम. सी. राजा और डा. मुंजे के बीच हुए उस पत्राचार को पढ़ लिया है, जो आज शाम प्रेस में दिखाई दिया है। सबसे पहले मैं मि. राजा की कार्यवाही का उल्लेख करुॅंगा, जिन्होंने यह अत्यन्त आपत्तिजनक पत्राचार प्रकाशन के लिए प्रेस को जारी किया है। वह यह लिखना नहीं छोड़ सके कि डा. मुंजे ने मि. राजा को लिखे अपने पत्र में साफ शब्दों में यह कहा था कि जब तक एक या दूसरे पक्ष के द्वारा मामला तय नहीं हो जाता है, तब तक इस पत्र को सख्ती के साथ निजी और गोपनीय बनाकर रखना है। इसलिए न्यायसंगत रूप से मि. राजा को इस पत्राचार को प्रकाशन के लिए जारी करने से पहले डा. मुंजे से स्वीकृति लेनी चाहिए थी। दलित वर्गों के द्वारा सिख धर्म अपनाने की सम्भावना बहुत से हिन्दुओं के साथ-साथ दलित वर्गों को भी मालूम थी, जो इस समस्या का समाधान चाहते थे, इसलिए मि. राजा इसका रहस्य नहीं जान पाए थे।

 

वह मायने नहीं रखते

जहाॅं तक मि. राजा की बात है, तो मेरे लिए उनकी घोषणा से जुड़ना कोई महत्व नहीं रखता है। मेरे विचार में दलित वर्गों के बीच उनका कुछ भी स्थान नहीं है। और यदि मुझे लगा कि उनका स्थान है, तो मैं पहला व्यक्ति होऊॅंगा, जो मैं उनसे जाकर मिलूॅंगा और उन्हें अपने अनुरूप काम करने के लिए तैयार करुॅंगा। वह मेरे विरोधी सम्भवतः इस कारण से हैं कि गोलमेज सम्मेलन में मेरे और राय बहादुर श्रीनिवासन के पक्ष में नामाॅंकन हो जाने से वह असन्तुष्ट हो गए थे। इसलिए मि. राजा ने जनता और प्रेस में अपना स्थान बनाने के लिए केवल यही एक काम सीखा है कि वह सब चीजों में मेरा विरोध करें। लेकिन इस प्रश्न के अलावा, मेरी समझ में नहीं आता कि कैसे मि. राजा को कुछ दलित वर्गों के हिन्दूधर्म छोड़ने और कोई दूसरा धर्म अपनाने के कदम से चोट पहुॅंचती है?

 

शिकायत का अधिकार नहीं

मि.राजा को शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि अगर उनकी इच्छा ऐसा करने की नहीं है, तो कोई भी उन्हें हिन्दूधर्म छोड़ने के लिए बाध्य करने नहीं जा रहा है। मैंने मि. राजा को यह कहते हुए सुना है कि वह हिन्दू के रूप में जियेंगे और हिन्दू के रूप में ही मरेंगे। वह ऐसा करने के लिए स्वतन्त्र हैं, हालाॅंकि मैं मि. राजा को यह बताना आवश्यक समझता हूॅं कि उनकी भाषण कला उनकी इस सच्चाई को नहीं बदल देगी कि वह परिया जाति से हैं और परिया ही रहेंगे और परिया ही मरेंगे। उनका यह कहना कि धर्मान्तरण एक आध्यात्मिक परिवर्तन होना चाहिए, मुझे पूरी तरह बकवास लगता है। मैं पूछता हूॅं कि यदि वह हिन्दूधर्म में इसलिए रह रहे हैं, क्योंकि वह उन्हें आध्यात्मिक सुख देता है, और यदि वह सच में देता है, और यदि मि. राजा आध्यात्मिक सन्तुष्टि के सिवा कुछ नहीं चाहते हैं, तो वह एक हिन्दू के रूप में जीने और एक हिन्दू के रूप में मरने की भावना रखते हुए विधायिकाओं में सीटों के आरक्षण के रूप में भौतिक और सांसारिक लाभ क्यों चाहते हैं?

 

यह घाटे का सौदा

मि. गाॅंधी के विचारों के सम्बन्ध में, मुझे यह कहना है कि उन्हें और पंडित मालवीय को दलित वर्गों के धर्मान्तरण के निर्णय के विरुद्ध बोलने का कोई अधिकार नहीं है। वे उन वादों को पूरा करने में पूरी तरह विफल हो गए हैं,जो उन्होंने दलित वर्गों के उत्थान के लिए पूना पैक्ट के समय किए थे। मि. गाॅंधी कहते हैं कि वह मेरी स्थिति को समझने में असमर्थ हैं। मुझे इस पर कोई आश्चर्य नहीं है। मैं अपनी ओर से यह जरूर कहना चाहूॅंगा कि मुझे भी उनकी स्थिति और भाषा समझ में नहीं आती है, जब वह यह कहते हैं कि ‘मेरे लिए अस्पृश्यता का निवारण अपने आप को एक पैर पर खड़ा करना है।’ मैं कहता हूॅं कि यह एक ऐसी भाषा है, जो एक रहस्यवादी ही दूसरे रहस्यवादी से बोल सकता है, लेकिन वह मेरे जैसा नहीं हो सकता, जो जीवन की व्यावहारिकताओं से निकलने के लिए कभी तैयार नहीं हुआ है। जब मि. गाॅंधी यह कहते हैं कि यह घाटे का सौदा नहीं हो सकता, तो मेरा उत्तर यह है कि यह तर्क अब उनके मुॅंह से नहीं निकल सकता क्योंकि पूना पैक्ट के समय उन्होंने इसे एक सौदा माना था। अब भूखे लोगों से और आध्यात्मिकता में जीने वालों से उनके प्राथमिक अधिकारों के लिए पूछने में बहुत देर हो गई है। जब लोग मि. गाॅंधी की सौदबाजी को पसन्द करते हैं, तो मैं समझता हूॅं कि उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि जिसकी भी इस प्रस्ताव में रुचि है, वह उसे अपने निजी लाभ का लक्ष्य बना रहा है।

 

महात्मा का दृष्टिकोण

मि. गाॅंधी कहते हैं कि अस्पृश्यता के निवारण का विषय ऐसा है, जिसे पश्चाताप की भावना से स्वयं सवर्ण हिन्दुओं को अपने स्वैच्छिक प्रयास से करना चाहिए। अगर मैं इसका अर्थ समझता हूॅं, तो उनका विचार यह है कि अस्पृश्यता के निवारण के विषय में स्वयं अछूतों को कुछ नहीं करना चाहिए। वे सिर्फ इन्तजार करें और सवर्ण हिन्दुओं में पश्चाताप की चेतना पैदा होने और उनका हृदय परिवर्तन के लिए प्रार्थना करें। मेरे विचार में, यह विचार उतना ही तर्कसंगत है, जितना उस व्यक्ति का विचार, जो लोगों को इस तर्क के साथ प्लेग-पीड़ित क्षेत्र में रहने को कहता है, उस क्षेत्र को छोड़कर जाने को नहीं,कि तब तक इन्तजार करो और बीमारी पर ध्यान मत दो, जब तक कि नगरपालिका के सदस्य आकर अपनी लापरवाही पर पश्चाताप करके बीमारी से निपटने के उपाय नहीं करते हैं।

 

सिख धर्म में धर्मान्तरण

मि. राजगोपालाचारी की विस्फोट भाषा के सम्बन्ध में, मुझे लगता है कि वह कठिन विशेषणों के अत्यधिक पोषण से पीड़ित हैं। यह बात उन्हें हिन्दुओं से पूछनी चाहिए कि क्या दलित वर्गों का सिख हो जाना उनके लिए शैतानी काम होगा? मुझे विश्वास है कि वे हिन्दू, जिन्हें अपने भाग्य की गहरी चिन्ता है, इस वक्तव्य से उनके दिमागी स्वास्थ्य पर सन्देह करना शुरु कर देंगे।

अगर कुछ शैतानी काम है, तो वह है इस पत्राचार को समय से पहले प्रकाशित कराना, जो डा. मुंजे की स्वीकृति लिए बिना पूरी तरह निजी और गोपनीय था। मैं इस विषय पर ज्यादा ध्यान देना नहीं चाहता हूॅं। सिख धर्म में धर्मान्तरण का प्रस्ताव अनेक प्रमुख हिन्दुओं ने पारित किया है, जिनमें शंकराचार्य डा. कुर्तकोटी भी शामिल हैं। वास्तव में तो इसकी पहल इन्हीं लोगों ने की थी और मुझ पर इसके लिए दबाव बनाया था। यदि मैंने विस्तार से विकल्प पर विचार किया है, तो सिर्फ इसलिए कि मैंने हिन्दुओं के भाग्य के लिए अपनी कुछ जिम्मेदारी महसूस की थी। अब यह हिन्दुओं पर है कि वे पत्राचार में प्रस्तुत ज्ञापन को पढ़ने के बाद निर्णय करें कि मि. गाॅंधी, मि. राजा और मि. राजगोपालाचारी ने जो रवैया अपनाया है, क्या उससे वे कोई सेवा कर रहे हैं? –ए. पी.

 

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राज भोज का आंबेडकर को जवाब

हिन्दू धर्म से भागने वालों को पूना पैक्ट का लाभ नहीं

(दि बाम्बे क्रानिकल, 15 अगस्त 1936)

 

‘पूना पैक्ट में हिन्दूधर्म से धर्मान्तरित लोंगों के लिए कोई प्राविधान नहीं है। यदि हरिजन समुदाय में से कुछ लोग सिख धर्म या अन्य कोई धर्म अपना लेते हैं, तो उसमें दिए गए लाभों को धर्मान्तरित लोगों के लिए बदलने का अधिकार पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करने वालों के पास नहीं है।’ यह वक्तव्य हरिजन नेता और आॅल इंडिया डिप्रेस्ड क्सासेज लीग के सचिव मि. पी. एन. राजभोज ने डा. मुंजे की योजना पर दिया है। मि. राजभोज आगे जोड़ते हैं कि पूना पैक्ट दलित वर्गों को अधिकतम सुविधाएॅं देने के इरादे से हुआ था, ताकि वे हिन्दूधर्म का अंग बने रहें। इसलिए इस पैक्ट को उन लोगों पर लागू करने का कोई सवाल ही नहीं उठता है, जिन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ दिया है या जो छोड़ रहे हैं।

डा. आंबेडकर ने पूना पैक्ट के समय धर्मान्तरण के सवाल को एक बार भी कभी नहीं उठाया था। वह कहते हैं, मुझे लगता है कि अब वे यह सवाल और ज्यादा सुविधाएॅं प्राप्त करने के लिए उठा रहे हैं।

 

तार्किक बकवास

 

आगे मि. राजभोज पूछते हैं कि यदि हिन्दूधर्म से नए धर्मान्तरित लोगों को पूना पैक्ट के अन्तर्गत मिलने वाली सुविधाएॅं दे दी जाती हैं, तो फिर पुराने धर्मान्तरण करने वालों को क्यों नहीं, जो यदि धार्मिक कारणों से नहीं, तो राजनीतिक कारणों से उनको चाहते हैं?वह मद्रास के कुछ भागों में ईसाईयों का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि दलित वर्गों के बहुत से लोगों ने दूसरे धर्मों में धर्मान्तरण किया है, पर वे हरिजन समुदाय से जुड़ी निर्योग्यताओं को दूर करने में समर्थ हो गए हैं। जिन सुविधाओं और लाभों को लोगों ने कठिनाईयों से प्राप्त किया है, वे सुविधाएॅं और लाभ उन लोगों को क्यों मिलने चाहिए, जो उन असुविधाओं को चाहते ही नहीं थे, बल्कि सिर्फ दूसरों के श्रम का लाभ चाहते हैं?

पूना नेता ने आगे जोड़ा, ‘यह फार्मूला एक शातिर फार्मूला है, जो और भी ज्यादा जटिलताएॅं और अन्तहीन परेशानियाॅं पैदा करेगा। इसे हिन्दुओं अथवा किसी को भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। हम हिन्दू हैं या हिन्दू नहीं हैं। यदि हम हिन्दूधर्म में बने रहना पसन्द करते हैं, तो हम हिन्दू के रूप मे अपने अधिकार और सुविधाएॅं प्राप्त कर सकते हैं, और एक बार हिन्दू धर्म छोड़ देते हैं, तो फिर हम कोई दावा नहीं कर सकते।

इस वक्तव्य का खण्डन करते हुए कि ‘पूना पैक्ट स्वीकार करके हिन्दुओं ने कोई त्याग नहीं किया है’, मि. राजभोज कहते हैं कि कम्युनल अवार्ड में दलित वर्गों को 71 सीटें दी गई थीं, जिसके वजाए पैक्ट में 148 सीटें दी गई हैं। अन्त में मि. राजभोज दावा करते हैं कि धर्मान्तरण का विचार हरिजन समुदाय में सर्वव्यापी नहीं है। यहाॅं तक कि महाराष्ट्र में भी केवल महार ही इस विचार के पक्ष में हैं, जबकि चमार किसी भी धर्मान्तरण के पक्के विरोधी हैं। अन्य प्रान्तों में भी इस विचार को कोई समर्थन प्राप्त नहीं है और उन्हें आश्चर्य हो रहा है कि कैसे हिन्दू नेता इस विचार में शामिल हो गए हैं?

 

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बम्बई के लिए नया आर्ट कालेज

पूरी तरह भारतीय संस्था चलायेगी

(दि बाम्बे क्रानिकल, 18 सितम्बर 1936)

(संवाददाता द्वारा)

 

‘दि बाम्बे क्राॅनिकल’ अपने पाठकों को बम्बई के नए आर्ट कालेज के बारे में प्रामाणिक खबर देने वाला पहला अखबार है। भारत के इस प्रथम शहर में इस कालेज की बहुत आवश्यकता थी, जिससे अब लम्बे समय से चल रही इसकी कमी पूरी हो जायेगी। बम्बई जैसे शहर में, जहाॅं प्रेसीडेंसी के विश्वविद्यालय का मुख्यालय है, पूरी तरह एक भारतीय संस्था द्वारा संचालित संस्थान का न होना सचमुच दुखद है, जहाॅं दूसरे आर्ट कालेज हैं, जिनमें दो का संचालन विदेशी मिशन, स्काॅटिश और रोमन कैथोलिक करता है, एक राजकीय कालेज बम्बई और दूसरा जोगेश्वरी में है, किन्तु बम्बई के समाजसेवियों और शिक्षाविदों को बदनाम करने के लिए यह कहा जायेगा कि उन्हें बम्बई में एक निजी भारतीय कालेज शुरु करने के लिए पंजाब से आने वाले प्रोत्साहन और पूॅंजी का इन्तजार करना पड़ा।

 

दादर में स्थापित होगा

नए कालेज का स्तर पूरी तरह से विश्वव्यापी होगा, जिसमें स्थानीय शिक्षाविदों से अच्छे शिक्षकों को नियुक्त किया जायेगा, और समझा जाता है कि इसमें आरम्भ से ही अत्यधिक योग्य और अनुभवी लोगों को भर्ती किया जायेगा, जिनमें प्रथम श्रेणी की विदेशी योग्यता वाले और प्रेसीडेंसी के प्रथम श्रेणी के कालेजों के अनुभवी प्राध्यापकों को रखा जायेगा। यह कालेज सम्भवतः दादर में स्थापित किया जायेगा, जिसके लिए विशेष रूप से आधुनिक भवन का निर्माण किया जायेगा, जिसमें आरामदायक विद्यार्थियों के लिए छात्रावास तथा कर्मचारियों के लिए आवास आदि बनाए जायेंगे। बम्बई से कुछ ही दूरी पर, किन्तु भारी यातायात के शोरगुल से दूर, यह नया कालेज ज्यादा विद्वतापूर्ण वातावरण और परम्पराओं को हासिल करेगा।

निश्चित रूप से यह कालेज किसी एक जाति या वर्ग के लिए आरक्षित होने नहीं जा रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि दूसरे कालेजों की तरह इसमें भी पिछड़े वर्गों को प्रोत्साहन दिया जायेगा, और आशा की जाती है कि बम्बई के देशप्रेमी ट्रस्टी पूरी तरह से भारतीयों द्वारा संचालित इस संस्थान में गरीब योग्य विद्यार्थियों की उनकी शिक्षा को आगे बढ़ाने में सहायता करेंगे।

इस कालेज की स्थापना का वास्तविक श्रेय डा. आंबेडकर को दिया जाना चाहिए, जो इस कालेज को सर्वाधिक आधुनिक स्तर काएक विश्वव्यापी संस्थानबनाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। आज हर व्यक्ति उन्हें शिक्षा के इस महान कार्य के लिए शुभकामनाएॅं देता है और इस बात के लिए भी बधाई देता है कि वे अपनी योजना को कार्यान्वित करने के लिए सिख शिक्षाविदों और समाजसेवियों को राजी कर उनका समर्थन और सहयोग हासिल करने में पूरी तरह सफल हो गए हैं।

 

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प्रस्तावित नया आर्ट कालेज

(दि बाम्बे क्रानिकल, 29 सितम्बर 1936)

 

 

सेवा में,

सम्पादक

‘दि क्राॅनिकल’

महोदय,

क्यामैं आपके अखबार के 26 सितम्बर के अंक में प्रकाशित किन्हीं अमृतलाल के पत्र के सन्दर्भ में ये प्रश्न पूछ सकता हूॅं-

  1. क्या डा. आंबेडकर की ‘सिख फण्ड कालेज योजना’ पूरी तरह शैक्षिक योजना है या डा. आंबेडकर के नेतृत्व में प्रस्तावित लोगों के सामूहिक धर्मान्तरण से भी इसका कोई सम्बन्ध है?
  2. क्या दलित वर्गों के वास्तविक हितों पर एक प्रहार के रूप में प्रेस में इस योजना की आलोचना की जा सकती है, और क्या आलोचक को उन हितों के विरोधी के रूप में बताया जा सकता है?
  3. क्या अमृतलाल के वक्तव्य के साथ महान सुधारक जी. जी. आगरकर का स्मरण नहीं होता है, जिन्हें स्वयं पूना के ब्राह्मणों ने उनके हरावल समाज-सुधार कार्य के लिए डराया-धमकाया था?
  4. डा. आंबेडकर के कालेज के लिए चुनी गई जगह कोहेनूर मिल्स के पास नहीं है, इसलिए वह किसी लिहाज से अनुपयुक्त है?

मैं नहीं समझ पा रहा हॅूं कि अमृतलाल को उनके लेखों के आधार पर एक ‘ब्राह्मण समीक्षक’ के रूप में क्यों आरोपित किया जाना चाहिए, जबकि वह एक महार, चमार या ढेढ़ भी हो सकता है। आपके पत्र के पाठक के रूप में मैं बता सकता हूॅं कि मैंने इस ‘समीक्षक’ के विविध विषयों पर प्रकाशित अनेक लेखों को रुचि के साथ पढ़ा है, जिसके आधार पर मेरा निजी विचार यह है कि उस उप-नाम के तहत भद्र लेखन आसानी से बोल्शेविकवादी या अराजकतावादी और एक गैर-हिन्दू भी हो सकता है। मैं आपके जर्नल में प्रकाशित उनके लेखों के ढेर से दस्तावेजी सबूत प्रस्तुत करके इस कथन को साबित करने के लिए तैयार हूॅं। मैं अमृतलाल की जानकारी के लिए बता सकता हूॅं कि मैं ब्राह्मण नहीं हूॅं, अगर मैं स्थानीय मिशनरी कालेज का स्नातक होता, और दलित वर्गों के प्रति स्वीकृत संरक्षण के स्वर का दृढ़ता से विरोध करता, जिनके प्रतिनिधित्व का एकमात्र एकाधिपत्य डा. आंबेडकर और उनकी मण्डली के पास नहीं होता।

आपका,

‘एक गैर-ब्राह्मण वकील’

 

 

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500 हरिजनों ने सिख धर्म अपनाया

इस जत्थे का जुलूस के साथ भारी स्वागत किया गया

(दि बाम्बे क्रानिकल, 18 दिसम्बर 1936)

 

गाजियाबाद, 16 दिसम्बर।

संयुक्त प्रान्तों के विभिन्न गाॅंवों से तथाकथित दलित वर्गों के 500 लोगों का जत्था दिल्ली से सिख धर्म अपनाने के लिए 13 दिसम्बर को हापुड के लिए रवाना हुआ और पिलखुवा होते हुए यहाॅं 14 की शाम पहुॅंचा।

यहाॅं जत्थें का श्री गुरु सिंह सभा द्वारा जोशीला स्वागत किया गया और उसे स्थानीय गुरुद्वारे तक जुलूस के साथ ले जाया गया।

दिल्ली के स्थानीय सिख जत्थे का स्वागत जमुना ब्रिज पर करेंगे। कल सुबह ‘अमृत प्रचार’ किया जायेगा।

18, 19 और 20 दिसम्बर को क्वीन गार्डन में एक बड़ा दीवान सजेगा, जहाॅं डा. आंबेडकर, सेठ जुगल किशोर बिरला, मास्टर तारा सिंह, सन्त तेजा सिंह और अन्य लोगों के उपस्थित रहने की सम्भावना है। -यूनाइटेड प्रेस

 

 

 

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डा. आंबेडकर के लिए समर्थन

(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 3 फरवरी 1936)

पूना, 2 फरवरी।

‘वोट डा. आंबेडकर को’ यह आज के ‘केसरी’ में डेमाक्रेटिक नेता मि. एन. सी. केल्कर के नाम से दो काॅलम के लेख का सारांश है। उनके समर्थन में अनेक कारण गिनाते हुए, मि. केल्कर स्वतन्त्र और काॅंग्रेसी उम्मीदवारों की तुलना में डा. आंबेडकर की श्रेष्ठता का वर्णन विस्तार से करते हैं, और बताते हैं कि डा. आंबेडकर की राजनीति काॅंग्रेस की अपेक्षा ज्यादा समाजवादियों के ज्यादा करीब है। इसलिए वे सामान्य निर्वाचन क्षेत्र के सदस्यों का वोट प्राप्त करने के उपयुक्त पात्र हैं।

पिछली कड़ियाँ—

 

23. धर्म बदलने से दलितों को मिली सुविधाएँ ख़त्म नहीं होतीं-डॉ.आंबेडकर

22. डॉ.आंबेडकर ने स्त्रियों से कहा- पहले शर्मनाक पेशा छोड़ो, फिर हमारे साथ आओ !

21. मेरी शिकायत है कि गाँधी तानाशाह क्यों नहीं हैं, भारत को चाहिए कमाल पाशा-डॉ.आंबेडकर

20. डॉ.आंबेडकर ने राजनीति और हिंदू धर्म छोड़ने का मन बनाया !

19. सवर्ण हिंदुओं से चुनाव जीत सकते दलित, तो पूना पैक्ट की ज़रूरत न पड़ती-डॉ.आंबेडकर

18.जोतदार को ज़मीन से बेदख़ल करना अन्याय है- डॉ.आंबेडकर

17. मंदिर प्रवेश छोड़, राजनीति में ऊर्जा लगाएँ दलित -डॉ.आंबेडकर

16अछूतों से घृणा करने वाले सवर्ण नेताओं पर भरोसा न करें- डॉ.आंबेडकर

15न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिक’ कहने पर डॉ.आंबेडकर की निंदा !

14. मन्दिर प्रवेश पर्याप्त नहीं, जाति का उन्मूलन ज़रूरी-डॉ.आंबेडकर

13. गाँधी जी से मिलकर आश्चर्य हुआ कि हममें बहुत ज़्यादा समानता है- डॉ.आंबेडकर

 12.‘पृथक निर्वाचन मंडल’ पर गाँधीजी का अनशन और डॉ.आंबेडकर के तर्क

11. हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर

10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!

9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!

8. जब अछूतों ने कहा- हमें आंबेडकर नहीं, गाँधी पर भरोसा!

7. दलित वर्ग का प्रतिनिधि कौन- गाँधी या अांबेडकर?

6. दलित वर्गों के लिए सांविधानिक संरक्षण ज़रूरी-डॉ.अांबेडकर

5. अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ प्रभावी क़ानून ज़रूरी- डॉ.आंबेडकर

4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !

3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !

2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

 



कँवल भारती : महत्‍वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्‍पणियों के लिए विख्‍यात। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।