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दिल्ली के जंगल में चुपचाप नोटबंदी की भेंट चढ़ गया अवध का आखिरी नवाब!
अभिषेक श्रीवास्तव
Published on: Wed 08th November 2017, 03:28 AM
ये मामू भांजे की मशहूर दरगाह है दिल्ली के रिज में छुपी हुई। यहीं से जो रास्ता बाएं कटता है, मालचा महल की ओर ले जाता है।
मालचा महल यानी किसी ज़माने की शिकारगाह, जिसे 1985 में बेगम विलायत महल ने अपनी रिहाइश बनाया था। यह खंडहर भारत की संसद और राष्ट्रपति भवन से बमुश्किल तीन किलोमीटर दूर है जहां पिछले दिनों बेग़म के सुपुत्र यानी अवध के आखिरी नवाब गुरबत और जि़ल्लत की मौत मर गए।
इन सीढि़यों के ऊपर बरसों से उगा हुआ एक सघन जंगल गवाही देता है कि इस कथित महल की छत से कभी पतंग नहीं उड़ायी गई, जो अवध के नवाबों का खानदानी शौक़ होता था।
लोहे की सलाखों के पार प्रवेश करते ही बैठके में चंद सामान बिखरा पड़ा था। इसमें कुछ काग़ज़ात, कुछ बेशकीमती नवाबी निशानियां और एक किताब थी।
बेग़म की एक दुर्लभ तस्वीर भी यहीं पायी गई।
इस तस्वीर में बेग़म विलायत और नवाब अली दिख रहे हैं। तस्वीर का नेगेटिव भी वहां पड़ा हुआ मिला।
और यह है दस्तरख्वान, जहां प्लेटें सजी हैं लेकिन बिस्मिल्ला करने वाले चले गए।
आखिरी बार नवाब 2 सितंबर को इसी बिस्तर पर शायद सोये रहे होंगे।
कहते ळैं कि 1993 में अम्मा की खुदकुशी के बाद 25 साल तक नवाब उनके लिए बिला नागा प्लेट ज़रूर लगाते थे।
सेरेमिक की कटलरी गुज़रे जमाने के वैभव का अहसास कराती हैं।
इस मसनद पर अब कोई टेक नहीं लगाएगा।
ऑल इंडिया शिया कॉन्फ्रेंस से लेकर ईरानी दूतावास तक जाने कितनों के ख़त और लिफ़ाफ़े यहां पड़े हैं, जो दिखाते हैं कि दुनिया नवाब और बेगम को अभी भूली नहीं थी।
इसकी रखवाली कुछ बेहद खतरनाक शिकारी कुत्तों के हवाले थी। ये लबराडोर कुत्ते अब केवल तस्वीरों में रह गए हैं। चाणक्यपुरी थाने के पुलिसवाले बताते हैं कि कुछ कुत्ते गरीबी में मर-खप गए तो कुछ जंगलों में भाग गए।
बेग़म विलायत को उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से 1976 में लखनऊ के अलीगंज में एक रिहाइश का इंतज़ाम किया गया था। इससे जुड़ा एक ख़त भी यहीं दबा मिला।
इसे अकेलापन कहें या गरीबी और जिल्लत, कि जिस शख्स से दुनिया भर के पत्रकार मिलने आते रहे, वह 2 सितंबर को ऐसे ही चल बसा।
जापान से लेकर कोलकाता तक के पत्रकारों के विजिटिंग कार्ड यहां बिखरे पड़े हैं।
बेग़म अंग्रेज़ थीं। वे खुद को हुसैनाबाद रियासत का बताती थीं। हुसैनाबाद के महल की यह पुरानी तस्वीर उन्हीं के काग़ज़ात में मिली।
इतने बरस जिस नवाब ने अपनी मां और बहन की जुदाई में खुद को जिंदा रखा, वह नोटबंदी के दौर में साल बीतते-बीतते एक लावारिस लाश की बतौर यहीं पाया गया।
बेग़म की एक और दुर्लभ तस्वीर यहीं पड़ी मिली।
बेग़म की लिखावट देखें। वे लगातार यहां का पुरसाहाल लिखती रहीं। कभी छत से पानी चूता तो कभी कोई आफ़त आन पड़ती, लेकिन सरकार का दिया यह ‘महल’ ही बेग़म और उनके शहज़ादे को प्यारा था।
इन्हें देखने से लगता है कि इस खानदान का देसी पत्रकारों से कम, विदेशी पत्रकारों से ज्यादा संवाद रहा।
अवध के इस आखिरी नवाब की अम्मा यानी बेग़म ने बहुत संघर्ष कर के 1985 में यह रिहाइश हासिल की थी। दिल्ली सरकार की ओर से उन्हें पांच जगहें रहने के लिए चुनने को दी गई थीं। इस बाबत एक सरकारी ख़त भी यहीं मिला।
दिल्ली सरकार की ओर से उन्हें पांच जगहें रहने के लिए चुनने को दी गई थीं।
एक तस्वीर मिली है बनियान पहने किसी शख्स की, जिसके पीछे जाहिर शाहिद लिखा हुआ है। शायद पैसा यहीं से आया करता था।
यहां मिले काग़ज़ात बताते हैं कि लंदन से कोई ज़ाहिर शाहिद नाम के शख्स नवाब अली रज़ा महल को पैसे भेजा करते थे।
सब कह रहे हैं कि नवाब अवसाद में गुज़र गए। सबने कहानियां की हैं। कोई नहीं बताता कि नवाब गुरबत में मर गए।
अवध के शासकों का लोगो लगा लिफ़ाफ़ा यहां काफी संख्या में एक फाइल के भीतर करीने से रखा हुआ था। बेग़म इसी से पत्राचार किया करती थीं।
अवध के शासकों का लोगो
9 जून 1976 को बेग़म के नाम भारत सरकार के गृह विभाग से एक ख़त भेजा गया जिसमें बताया गया है कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने लखनऊ में उनके रहने का इंतज़ाम कर दिया है और वे नियत समय पर जाकर उसका कब्ज़ा लें। इसकी एक प्रति नई दिल्ली रेलवे स्टेशन को भी प्रेषित है जहां बेग़म ने बरसों डेरा डाले रखा था।
दि हाउस ऑफ अवध लिखा लिफ़ाफा और नोटपैड यहां मिला।
ये अवध के शासकों की सील यानी मुहर है जिस पर रूलर्स ऑफ अवध उलटे क्रम में लिखा हुआ हे। यह पत्थर की बनी लगती है।
शिकारी कुत्तों को कभी इन्हीं बेल्टों से बांधा जाता रहा होगा। आज यहां एक भी कुत्ता नहीं बचा है।
बाहर के कमरे में एक बंद आलमारी के खाने में औरतों की ये जूतियां पाई गईं।
अंग्रेज़ी की पत्रिकाओं से लेकर मुग़लों पर किताबें, क्या नहीं था इस खंडहर में जो किसी को जीने से बचा ले जाता।
बाहर के ही कमरे में यह धार्मिक चिह्न रखा मिला।
एक उम्दा पेंटिंग यहां प्रवेश करते ही चौकी पर रखी मिली। इसके नीचे कैप्शन था, ”दारा शुकोह की शादी का जश्न”।
और साथ मिलीं गरीबी, जिल्लत, भुखमरी की कुछ दिल दहला देने वाली तस्वीरें…
बहुत पुराना फिलिप्स का एक रेडियो, जिसे बजे शायद बरसों हो गए होंगे
चौदहवीं शताब्दी के इस खंडहर महल में जितने पत्रकारों के विजिटिंग कार्ड पड़े हैं, कोई कह नहीं सकता कि यहां अकेलेपन से भी मौत हो सकती थी।
पंजाब नेशनल बैंक की एक चेकबुक यहां पड़ी मिली। खाता नवाब अली रज़ा महल के नाम से ही है। उनके खाते में न्यूनतम राशि से केवल 400 रुपये ज्यादा थे।
बेग़म ने 1993 में खुदकुशी कर ली थी। करीब 25 साल पहले। फिर बहन सकीना की भी मौत हो गई। इतने बरस अकेले जी रहे नवाब खुद लकडि़यों को सुलगाकर खाना बनाते खाते थे।
पारसी नक्काशी वाले सेरेमिक के इस गमले में अब कोई फूल नहीं आएगा, कोई कली नहीं खिलेगी
चौदहवीं सदी का मालचा महल यानी अवध के आखिरी नवाब की रिहाइश
यह एन्ट्री जनवरी 2016 की है। उसके बाद न पैसा निकाला गया, न पैसा कहीं से आया।
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