प्रेस की आज़ादी और तुषार कांति घोष के नाम नेहरू का एक पत्र 

आज जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन है। नेहरू एक उदार, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील सोच के राजनेता थे, और उनका यह भाव, उनकी लिखी किताबों, लेखों, भाषणों और उनके द्वारा किए गए  कार्यों में बराबर दिखता है। आज जब प्रेस इंडेक्स में हम, दुनिया में एक शर्मनाक स्तर पर पहुंच चुके हैं, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सदर्भ में, भारतीय पत्रकारिता के शिखर पुरुषों में से एक, तुषार कांति घोष के नाम, उनका लिखा यह पत्र, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति, उनकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है।

प्रेस की स्वतंत्रता और ब्रिटिश गवर्नर के द्वारा अखबारों के संपादकीय की बेजा सेंसरशिप पर, अपना विरोध जताते हुए, जवाहरलाल नेहरू ने 4 मार्च 1940 को भारतीय पत्रकार संघ के अध्यक्ष, तुषार कांति घोष को एक पत्र लिखा था। तब भारत आजाद भी नहीं हुआ था और आजादी की लड़ाई चल रही थी, जिसमें नेहरू की एक बड़ी भूमिका थी। पर प्रेस की स्वतंत्रता के बारे में, नेहरू का यह दृष्टिकोण, उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी, उनके जीवनपर्यंत बना रहा है।

तुषार कांति घोष (21 सितंबर, 1898 – 29 अगस्त, 1994) एक भारतीय पत्रकार और लेखक थे।  साठ वर्षों तक, अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले तक, घोष कोलकाता से प्रकाशित होने वाले, अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्र अमृत बाजार पत्रिका के संपादक थे।  उन्होंने इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट और कॉमनवेल्थ प्रेस यूनियन जैसे प्रमुख पत्रकारिता संगठनों के पदाधिकारी के रूप में भी काम किया है।  घोष को देश के, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति उनके योगदान के लिए “भारतीय पत्रकारिता के महापुरुष” और “भारतीय पत्रकारिता के डीन” के रूप में जाना जाता है।

तुषार कांति घोष भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, एक सजग और सतर्क पत्रकार के रूप में प्रमुखता से उभरे थे। वह महात्मा गांधी के विचारों और सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़े और गांधी जी के अहिंसा की नीति के, प्रबल समर्थक थे।  ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों ने 1935 में, तुषार कांति घोष को, उनके एक लेख, जिसमें, ब्रिटिश जजों की निंदा की गई थी, के संबंध में उन पर, मुकदमा दर्ज किया और उन्हें जेल में डाल दिया गया। इस लेख में ब्रिटिश न्यायाधीशों के अधिकार पर, सवाल उठाया गया था।

एक रोचक किस्से के अनुसार, बंगाल प्रांत के गवर्नर ने एक बार टीके घोष से कहा कि, “जब वह घोष का पेपर नियमित रूप से पढ़ते हैं, तो इसका अंग्रेजी व्याकरण अपूर्ण और कहीं कहीं अशुद्ध होता है, और “यह अंग्रेजी भाषा की लगता है, हत्या कर देता है।” टीके घोष ने, इस पर गवर्नर से जवाब में कहा, “महामहिम, यह स्वतंत्रता संग्राम में मेरा योगदान है।”

एक पत्रकार के रूप में अपने अखबारी काम के अतिरिक्त, तुषार कांति घोष ने, गल्प यानी कहानी, उपन्यास और बच्चों के लिए कुछ किताबें भी लिखीं। 1964 में, पत्रकारिता, साहित्य और शिक्षा में योगदान के लिए, उन्हें भारत के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान, पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। टीके घोष की, एक संक्षिप्त बीमारी के बाद 1994 में कोलकाता में ही, हृदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गई।

इन्ही, तुषार कांति घोष को, जवाहरलाल नेहरू अपने लिखे एक पत्र में लिखते हैं…

“यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि सार्वजनिक जीवन का निर्माण एक स्वतंत्र और स्वतंत्र प्रेस की नींव पर किया जाना चाहिए। इसलिए मुझे जुगांतर (एक प्रसिद्ध बांग्ला अखबार) के, सरकार द्वारा बहिष्कार या प्रतिबंध की कोशिशों पर, बहुत अफसोस है।

यहीं, मैं यह भी कहना चाहूंगा कि ‘हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड’ पर प्रकाशन से पहले, सभी संपादकीय मामलों को सेंसरशिप के लिए, सरकार के विभाग के पास भेजने का, बंगाल सरकार का वर्तमान आदेश, मुझे, सत्ता के अधिकार का एक आश्चर्यजनक दुरुपयोग लगता है। अगर इस तरह के सेंसरशिप की इजाजत, सरकार को दी गई तो अखबारों का स्वतंत्र रूप से, संपादकीय लेखन पूरी तरह खत्म हो जाएगा। तब अखबारों में छपने वाले, प्रमुख लेख उक्त अखबार के संपादकों के नहीं, बल्कि, सरकार के सेंसर विभाग के होंगे, और कोई भी, ऐसे लेख, जो सरकार द्वारा सेंसर किया गया हो, पढ़ना नहीं चाहेगा। क्योंकि, यह एक सामान्य धारणा है कि,  सेंसर किसी विशेष मामले के बारे में क्या सोचता है या कैसे सोच सकता है। किसी भी, सरकार को, अपनी राय व्यक्त करने और उसे, सीधे जनता के सामने रखने का पूरा अधिकार है। लेकिन अखबारों के संपादकीय स्तंभों के माध्यम से, सरकार को अपनी राय प्रचारित करने या अपने कार्यों को सेंसर के नाम पर, थोपने का यह अप्रत्यक्ष तरीका, एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसे सदैव, अखबार के कामकाज के लिए बेहद गलत माना गया है। किसी अखबार के लिए इस गिरावट के सामने झुकने या अपनी आत्मा का समर्पण करने से कहीं बेहतर है कि वह कोई संपादकीय ही न लिखे।

अखबारी जगत में, अपना स्थान बना चुके प्रसिद्ध राष्ट्रवादी समाचार पत्र काफी हद तक अपनी जिम्मेदारी समझने में सक्षम हैं। उनके साथ जो कुछ भी होता है, उससे, वे जनता का ध्यान और जनता का समर्थन आकर्षित करते हैं। छोटे और कम प्रसिद्ध अखबारों को तो, अक्सर सरकारी हस्तक्षेप का शिकार होना पड़ता है, क्योंकि वे इतने प्रसिद्ध और अधिक सर्कुलेशन वाले नहीं होते हैं। हालाँकि, हमारी सबसे छोटी और सबसे कम वितरित होने वाली पत्रिकाओं को भी सरकारी हस्तक्षेप और दमन का शिकार होने देना, एक खतरनाक मनोवृत्ति है। क्योंकि यह आदत, इस दखलंदाजी के साथ, साथ बढ़ती जायेगी और धीरे-धीरे जनमानस, सरकार द्वारा अपनी शक्तियों के दुरुपयोग का आदी हो जाता जायेगा।  इसलिए पत्रकार संघ के साथ-साथ सभी अखबारों के लिए भी यह जरूरी है कि वे कम चर्चित अखबारों से जुड़े ऐसे मामलों को भी, यूं ही न जाने दें।  यदि वे प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए, जरा भी उत्सुक हैं, तो उन्हें इस स्वतंत्रता का, सचेत और सतर्क संरक्षक के रूप में आगे आना चाहिए और जहां कहीं से भी, उन्हे ऐसा अतिक्रमण और दखलंदाजी दिखे, उसका विरोध करना चाहिए। यह केवल, राजनीतिक विचार या राय का मामला नहीं है।  जिस क्षण हम किसी अखबार पर किए गए हमले को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे हम असहमत होते हैं, तो, हम फिर, सैद्धांतिक रूप से, सत्ता के समक्ष, आत्मसमर्पण कर देते हैं, और जब, वही अतिक्रमण या दखलंदाजी या हमला, हम पर होता है तो, हमारे पास, उसका विरोध करने का, कोई आधार या कोई शक्ति, शेष नहीं रहती है।

यहां तक ​​कि, एक अत्याचारी भी इस प्रकार की स्वतंत्रता के लिए सहमत है… यदि हम गलत मानक स्थापित करते हैं और गलत साधन अपनाते हैं, यहां तक ​​कि इस विश्वास में भी कि हम एक सही उद्देश्य को आगे बढ़ा रहे हैं, तो वह कारण स्वयं प्रभावित होगा और उन लोगों द्वारा पूर्वाग्रहित होगा  मानक और वे साधन…”

1939 में, द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। और कांग्रेस सरकारों ने, बिना उनको विश्वास में लिए ही, भारत को युद्ध में शामिल कर लेने के ब्रिटिश सरकार के फैसले के विरोध में, सभी प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया था। कांग्रेस तो, प्रांतीय सत्ता से हट गई, पर जिन प्रांतों में मुस्लिम लीग सरकार में थी, वहां की सरकारें बदस्तूर चलती रही। जहां-जहां, मुस्लिम लीग को संख्या बल की कमी पड़ी, वहां पर हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग का साथ दिया और साझा सरकार चलाई। इस तरह, कांग्रेस ने आगे चल कर सन 1942 में अपना अंतिम और सबसे व्यापक जन आंदोलन, भारत छोड़ो का आगाज किया, और जब तक, द्वितीय विश्व युद्ध चलता रहा, तब तक, कांग्रेस के सभी बड़े नेता जेल में बंद रहे। न सिर्फ कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता जेल में थे, बल्कि, देश की आम जनता भी सड़कों पर उतर आ गई थी और लोगों को भारी संख्या में जेलों में बंद कर दिया गया था। लेकिन आंदोलन की गति धीमी नहीं पड़ी।

साल 1940 में जब प्रांतीय सरकारों ने इस्तीफा दिया तब कलकत्ता का प्रमुख अखबार जुगांतर ने, ब्रिटिश सरकार पर तीखे हमले किए। उसी के बाद, इन अखबारों पर, युद्ध की आड़ में, सेंसरशिप लागू करने का निर्णय बंगाल के गवर्नर ने लिया था। जुगांतर के संपादकीय की धार से ब्रिटिश हुकूमत असहज होने लगी थी। जुगांतर ही नहीं, अन्य छोटे अखबार भी, इसी तीखेपन के साथ स्वाधीनता आंदोलन में अपना योगदान देने लगे थे। उसी सेंसरशिप के संदर्भ में, जवाहरलाल नेहरु ने, तुषार कांति घोष, जो तब, अखबार के संपादक और भारतीय पत्रकार संघ के प्रमुख थे, को यह पत्र लिखा था।

आज जब, वर्तमान सरकार, सरकार विरोधी खबरों के कारण, कुछ मुखर वेबसाइट पर अपनी नजरें टेढ़ी कर रही है तो नेहरू का यह पत्र अचानक प्रासंगिक हो उठता है। हालांकि, आज कोई घोषित सेंसरशिप नहीं है लेकिन जिस तरह से कभी द वायर को, तो कभी अडानी घोटालों की परत दर परत जांच करने वाले खोजी पत्रकार, जैसे परंजय गुहा ठाकुरता, रवि नायर, आदि को, तो हाल ही में न्यूजक्लिक के मालिक, प्रबीर पुरकायस्थ तथा, उर्मिलेश, अभिसार शर्मा, भाषा सिंह, जैसे नामचीन स्वतंत्र पत्रकारों को, आज सरकार, विभिन्न जांच एजेंसियों के द्वारा जिस तरह से घेर रही है यह, सरकार का, घोषित सेंसरशिप से भी अधिक कठोर और दमनात्मक रवैया है।

यह भी एक विडंबना है कि, पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने वाले अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संगठन रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा 180 देशों में पत्रकारिता की स्थिति का विश्लेषण कर जारी की गई रिपोर्ट ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2023’ में भारत 161वें पर है और भारत में प्रेस की आजादी बहुत गम्भीर स्थिति में पहुंच गई है।

जबकि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में प्रेस की स्वतंत्रता का विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है और जो उल्लेख किया गया है वह केवल भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। संविधान सभा की बहस में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि प्रेस की स्वतंत्रता का कोई विशेष उल्लेख बिल्कुल भी आवश्यक नहीं है क्योंकि प्रेस और एक व्यक्ति या एक नागरिक एक समान हैं जहां तक, अभिव्यक्ति के अधिकार का सवाल है।

आज देश के प्रथम प्रधानमंत्री और आइडिया ऑफ इंडिया के ध्वजवाहक, और अपने समय के महान स्वप्नदर्शी, नेता जवाहरलाल नेहरू को उनके जन्मदिन पर, उनका विनम्र स्मरण।

 

विजय शंकर सिंह अवकाशप्राप्त आईपीएस और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। 

 

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