गोवा मुक्ति दिवस (19 दिसंबर) के आस-पास प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस को कोसने के लिए बीजेपी की ओर से बयानबाज़ी शुरू हो जाती है। ये सिलसिला दो साल से खासतौर पर तेज़ है जब प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में भाषण देते हुए आरोप लगाया था कि पं.नेहरू चाहते तो भारत के साथ-साथ गोवा को भी आज़ादी मिल जाती।
यही नहीं, गोवा के 2022 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी जी ने इसे जमकर मुद्दा बनाया। 10 फरवरी 2022 को मापुसा में आयोजित एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘लोग गोवा की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे। लेकिन पं.नेहरू ने उनका समर्थन नहीं किया। इसलिए देश की आज़ादी के 15 साल बाद गोवा को आजादी मिली। प्रधानमंत्री नेहरू ने लाल किले की प्राचीर से कहा था कि वो गोवा की मुक्ति के लिए सेना नहीं भेजेंगे। अगर उन्होंने सेना भेज दी होती तो भारत को आजादी मिलने के कुछ घंटों के भीतर ही गोवा को गुलामी से मुक्त किया जा सकता था।’
प्रधानमंत्री ने ये बयान देकर कांग्रेस को गोवा का विरोधी साबित करने की कोशिश की जिसका आईटी सेल और मीडिया ने बिना जाँचे-परखे जमकर प्रचार किया। इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और देश के लिए कुर्बानी देने वालो को खलनायक बताने की पीएम मोदी की शैली स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी न करने की आरएसएस की हीनभावना से उपजी है। ऐसा नहीं है कि पीएम मोदी को गोवा की मुक्ति में हुई देरी के अंतरराष्ट्रीय कोण का पता नहीं होगा, लेकिन इससे पहले कि कोई पूछे कि गोवा की मुक्ति संग्राम में आरएसएस ने कोई भूमिका क्यों नहीं निभाई, वे कांग्रेस को ‘देरी’ के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर सुर्खियाँ बटोरते हैं।
कभी मशहूर मशहूर ब्रिटिश राजनीतिक विचारक हेरोल्ड लास्की ने अपने एक व्याख्यान में भारत के बारे में एक बहुत अहम बात कही थी। उन्होंने कहा था कि ‘भारत की दक्षिणपंथी राजनीतिक धारा में हीन-भावना से उपजा है और यह चीज़ भारत के लिए घातक साबित होगी।’
गोवा के इतिहास पर एक नज़र डालने से पीएम मोदी और बीजेपी के झूठ की कलई खुल जाती है। भारत में अंग्रेज़ों के आगमन का सिलसिला 17वीं शताब्दी में शुरु हुआ और मान जाता है कि 1764 में बक्सर की लड़ाई जीत लेने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के पाँव भारत में जम गये। लेकिन गोवा, दमन और दीव अंग्रेज़ों के पाँव जमने के लगभग ढाई सौ साल पहले 1510 में पुर्तगाल का गुलाम हो चुका था। कांग्रेस प्रमुख रूप से ‘ब्रिटिश भारत’ की आज़ादी के लिए लड़ रही थी। इसके अलावा सैकड़ों देशी रियासतें भी थीं जहाँ कांग्रेस को खुलेआम काम करने की आज़ादी नहीं थी। कांग्रेस वहाँ अलग संगठन बनाकर सक्रिय थी।
ऐसे में भारत पुर्तगाल से गोवा को तत्काल कैसे आज़ाद करा लेता? मोदी जिस सैन्य हस्तक्षेप की बात कर रहे हैं, क्या वह 1947 में आज़ादी के कुछ घंटों के भीतर संभव थी जब भारत की सेना का अध्यक्ष भी एक अंग्रेज़ था? और सबसे बड़ी बात तो यह का पुर्तगाल पश्चिमी देशों के सैन्य गठबंधन उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का सदस्य था। मोदी जी की मानें तो संसाधनों के अभाव के साथ नये-नये आज़ाद हुए भारत को, जो विभाजन की विभीषिका और लगभग 562 रियासतों के विलय की चुनौती से जूझ रहा था, पुर्तगाल पर हमला करके नाटो की सेनाओं का मुकाबला करना चाहिए था! भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को इस अंतरराष्ट्रीय जटिलता का ज्ञान नहीं है, यह अफ़सोस की बात है। और अगर सबकुछ जानते हुए इस ऐतिहासक घटना का राजनीतिक लाभ के लिए उलट अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है तो यह और भी ज़्यादा अफ़सोस की बात है।
वैसे, कांग्रेस ने आज़ादी के कई साल पहले से गोवा के मुक्ति संग्राम को संगठित करना शुरू कर दिया था। गोवा राष्ट्रवाद के जनक कहे जाने वाले ट्रिस्टाओ ब्रागांका कुन्हा ने 1928 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में ‘गोवा राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना की थी। कांग्रेस के समाजवादी नेता लगातार गोवा की आज़ादी के लिए सक्रिय थे। 946 में कांग्रेस के नेता बतौर ही डा.राम मनोहर लोहिया ने गोवा में एक ऐतिहासिक रैली का नेतृत्व किया था। पं.नेहरू भी लगातार गोवा की आज़ादी का सवाल उठा रहे थे। उन्होंने संयुकत राष्ट्र संघ में भी गोवा की आज़ादी का सवाल उठाया था। वे सत्याग्रह के भारतीय प्रयोग को गोवा में भी आज़माना चाहते थे। 1955 में सत्याग्रहियों ने गोवा में प्रवेश करने का प्रयास किया तो पुर्तगाली पुलिस ने गोली चलायी जिससे 25 लोगों की मौत हो गयी। इस घटना के बाद भारत ने पुर्तगाल के साथ राजनयिक संबंध तोड़ लिए थे।
पीएम मोदी ने प.नेहरू के 1955 के जिस भाषण का हवाला दिया था उसमें उन्होंने कहा था, “गोवा भारत का हिस्सा है और कोई भी इसे अलग नहीं कर सकता…हमने बहुत नियंत्रण रखा है क्योंकि हम चाहते हैं कि इस मुद्दे को शांतिपूर्ण ढंग से हल किया जाना चाहिए…किसी को भी इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि हम सैन्य कार्रवाई करने जा रहे हैं….अगर वे खुद को सत्याग्रही कहते हैं तो उन्हें सत्याग्रह के सिद्धांतों को याद रखना चाहिए और उसी तरह व्यवहार करना चाहिए। सेनाएँ सत्यागर्हियों के पीछे नहीं चलतीं।”
ज़ाहिर है, पं.नेहरू कूटनीति से काम ले रहे थे खासतौर पर जब पुर्तगाल का तानाशाह एंटोनियो डी ओलिवेरा सालाजार बातचीत के लिए तैयार नहीं था। यही नहीं उसने गोवा को पुर्तगाल का उपनिवेश नहीं अभिन्न अंग घोषित कर दिया था और माँग की थी कि अगर भारत’ सैन्य कार्रवाई करता है तो उसे नाटो की मदद मिलनी चाहिए।
पीएम मोदी और बीजेपी नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि सैन्य कार्रवाई न करने का ऐलान करने वाले पं.नेहरू ने ही बाद में सैन्य कार्रवाई की। लेकिन यह ‘आक्रमण नहीं था जिस पर कि अंतरराष्ट्रीय जगत में आपत्ति उठती। यह आक्रमण का प्रतिकार था। अंजादीप से एक भारतीय स्टीमर पर पुर्तगालियों ने हमला किया जिसके जवाब में 1 दिसंबर 1961 को ‘आपरेशन चटनी’ नाम का एक निगरानी अभियान शुरू किया। और फिर 17 दिसंबर को ‘ऑपरेशन विजय’ के नाम से सैन्य कार्रवाई शुरू की गयी और 19 दिसंबर की शाम तक पुर्तगाली गवर्नर जनरल वासालो ई सिल्वा को आत्मसमर्पण करने को मजबूर कर दिया गया। अपनी आज़ादी के महज़ 15 साल अंदर भारत ने गोवा को साढ़े चार सौ साल की गुलामी से आज़ाद करवा दिया।
क्या तुरंत गोवा की आज़ाद न कराने का आरोप लगाने वाले पीएम मोदी कभी जवाब देंगे कि उनके वैचारिक पुरखे भारत की आज़ादी की लड़ाई में शामिल न होकर अंग्रेज़ों का साथ क्यों दे रहे थे? माफ़ी माँगकर अंग्रेज़ी सेना में भर्ती के लिए कैंप क्यों लगवा रहे थे? या फिर गोवा की आज़ादी के लिए ही आरएसएस ने आज़ादी के पहले या बाद क्या किया? हैरानी नहीं होगी अगर पीएम मोदी कभी पं.नेहरू पर आज़ादी मिलने में भी 17 साल की देरी कराने का आरोप लगा दें। वे कह सकते हैं कि पं.नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव अगर 1930 में पारित किया था तो आज़ादी 1947 में क्यों मिली?
अहंकार और अज्ञान से भरी हुई यह आक्रामकता उसी हीनभावना से निकली है जिसकी ओर कभी हेराल्ड लास्की ने इशारा किया था। और यह भारत के भविष्य के लिए घातक है!
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।