अस्पृश्यता बौद्धों पर थोपा गया एक दण्ड था-डॉ.आंबेडकर
मीडिया विजिल
Published on: Wed 07th November 2018, 04:41 PM
डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 38
पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर कोमिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है।ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्णस्रोतग्रंथ ‘डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन ‘का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और समाजशास्त्रीकँवल भारतीकर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की अड़तीसवीं कड़ी – सम्पादक
235
डा. आंबेडकर कहते हैं-
अस्पृश्यता बौद्धों पर थोपा गया एक दण्ड था,
(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 24 फरवरी 1940)
इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के नेता डा. बी. आर. आंबेडकर ने हमारे संवाददाता के साथ एक वार्ता में अस्पृश्यता के उदगम के सिद्धान्त पर बातचीत की।
उन्होंने कहा, ऐसा कहा जा सकता है कि अस्पृश्यता एक संस्था या सामाजिक प्रथा है, जो भारत की विशिष्ट सम्पत्ति है और जो विश्व में और कहीं भी नहीं पायी जाती है। एक से अधिक अर्थ में यह वह संस्था है, जो अप्राकृतिक और मानव मनाविज्ञान तथा सामाजिक शक्तियों के विरुद्ध कार्य करती है। अस्पृश्यता की उत्पत्ति के जो मूल कारण हैं, उन्हें जानने के बाद सभी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विचार, जो माने जाते हैं, खारिज हो जायेंगे।
डा. आंबेडकर के अनुसार अस्पृश्यता अपेक्षाकृत बहुत बाद की उत्पत्ति है। यह वैदिक काल की घटना नहीं है, बल्कि यह उसके सैकड़ों साल बाद अस्तित्व में आई थी। इसलिए वेदों में कहीं भी इसका उल्लेख नहीं मिलता है। उसके बाद यह कैसे अस्तित्व में आई?
अर्द्ध जनजातीय अवस्था
डा. आंबेडकर उस काल का चित्रण करते हैं, जब कुछ लोगों ने केवल कृषि जीवन अपना लिया था, जबकि दूसरे लोग घुमन्तू स्थिति में अपनी भेड़ों और मवेशियों के झुण्डों के साथ एक जगह से दूसरी जगह पर विचरण कर रहे थे।
पहली स्थिति के स्थिर लोगों ने भूमि, घर और फसलों के रूप में सम्पत्ति बनाकर अपेक्षाकृत अपनी ऊॅंची सभ्यता बना ली थी, और वे स्वाभाविक रूप से नहीं चाहते थे कि उनके शान्तिपूर्ण जीवन को पशुचारी घुमन्तू जनजातियों के द्वारा परेशान किया जाए। उनका पशुचारी जनजातियों से कोई मेल भी नहीं था, क्योंकि उनके पास अचल सम्पत्ति का कोई बोझ नहीं था और इस वजह से वे शारीरिक रूप से बलवान और मजबूत थे।
इसलिए कृषि करने वाले गाॅंवों ने घुमन्तू जनजातियों की लूटमार से अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए पशुचारी वर्ग से, जिनकी जनजातियाॅं आन्तरिक युद्धों से टूट गई थीं,अपना रक्षक नियुक्त कर लिया। इन लोगों को गाॅंवों के ठीक बाहर, यानी सीमा पर कुछ भूखण्ड और घर दे दिए। इनका मुख्य काम- जो आज भी उनका मुख्य काम है- शान्ति-व्यवस्था कायम करना था।
पशुचारी जनजातियों के विरुद्ध गाॅंवों की सुरक्षा का यह काम उन्होंने पीढ़ियों तक किया। गाॅंव की सीमान्त पर रहते हुए, उनके गाॅंव वालों के बीच सामान्य मानवीय सम्बन्ध थे, जिसमें कोई अस्पृश्यता नहीं थी। तब वह कैसे आई?
इसके लिए हमें डा. आंबेडकर के अनुसार, भारत में बौद्धधर्म के उदय का अवलोकन करना होगा। बौद्धधर्म ने क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। डा. आंबेडकर कहते हैं, भारत के इतिहास में बौद्धधर्म जिस तरह भूमि पर फैला, कोई भौतिक विजेता नहीं नहीं फैला। कुछ ही पीढ़ियों के भीतर लगभग पूरा देश, विशेष रूप से आम जनता और व्यापारी वर्ग बौद्धधर्म में चला गया था। ब्राह्मणवाद में एक नैतिक भय समा गया था। क्योंकि वास्तव में वह समाप्त हो गया था, और यह स्थिति ब्राह्मणों के लिए अनुकूल नहीं थी, क्योंकि वे प्रत्येक उस सामाजिक और धार्मिक संस्था को, जो सदियों से सिरमौर बना हुआ था, नष्ट करने के लिए तैयार रहते थे, और वे ऐसा करके ही ब्राह्मणवाद को बचा सकते थे। फिर ब्राह्मणों ने क्या किया?
बौद्धधर्म की व्यापक अपील
बुद्ध की तीन मुख्य शिक्षाएॅं थीं, जिसने जनता को व्यापक रूप से प्रभावित किया था। पहली शिक्षा सामाजिक समानता की थी, जिसने ‘चातुर्वर्ण’ सिद्धान्त को खत्म करने की माॅंग की थी। उनकी दूसरी शिक्षा धार्मिक अनुष्ठानों में पशुबलियों की निदा करने वाली अहिंसा की थी, जिसने जनता को गरीब बना दिया था और उनमें धार्मिक समारोहों के प्रति घृणा पैदा कर दी थी।
डा. आंबेडकर के अनुसार, इस युग के ब्राह्मण शाकाहार से कफी दूर थे। वे सर्वाधिक माॅंसाहारी थे, जिसके लिए वे हजारों गायों और अन्य पशुओं की, यद्यपि, देवताओं को शान्त करने के लिए, पर वास्तव में अपने स्वयं की माॅंस-लिप्सा को शान्त करने के लिए, बलि देते थे।
वैदिक बलियों का सच
इस तरह अपार पैमाने पर माॅंस के लिए ब्राह्मणों की माॅंग ने किसानों को गरीब बना दिया था, क्योंकि उन्हें बलि के लिए गायों को ढूॅंढ़कर लाना पड़ता था, जिसके परिणामस्वरूप वे दूध और दूध से बनी वस्तुओं से वंचित हो गए थे, जो उनकी जीविका के मुख्य साधन थे।
इन रक्तरंजित बलिदानों को किस सीमा तक ले जाया गया था, उसके प्रमाण आज भी वेदों में संस्कार विधियों के वर्णनों में मौजूद हैं, जो किसी भी तरह के मानवीय विचारों के लिए सममान प्रदर्शित नहीं करते हैं। इसलिए जब बुद्ध ने पशुबलि वाले धार्मिक समारोहों को खत्म करने की शिक्षा दी, तो जनता के लिए यह एक नई शिक्षा थी, जिसने उसे आथिक और सैद्धान्तिक दोनों तरह से प्रभावित किया और उसे उन्होंने अपना लिया और ब्राह्मणों की शिक्षा को त्याग दिया।
ब्राह्मणवाद ने बौद्धधर्म के बढ़ते ज्वार से अपने आपको कैसे बचाया? उसने तत्काल पशुबलि और धार्मिक समारोह छोड़ दिए। जिस गाय का वह अब तक वध करता आ रहा था, उसको, बुद्ध से भी आगे बढ़कर, उसने सर्वोच्च पवित्र बना दिया। और माॅंस खाने वाले ब्राह्मण शुद्ध शाकाहारी हो गए और उनका सुरा पीना भी बन्द हो गया। इस तरह हिन्दूधर्म ने शुद्धता का आवरण ओढ लिया।
क्षत्रियों के साथ समझौता
क्षत्रियों को बौद्धधर्म में जाने से रोकने के लिए ब्राह्मणों ने उन्हें अपने साथ समानता देने की पेशकश की। डा. आंबेडकर के सन्दर्भों के अलावा, वास्तव में एक अन्य धर्मग्रन्थ में एक श्लोक आता है, जिसमें कहा गया है कि जिस तरह कैदी को भागने से रोकने के लिए उसके दोनों ओर दो सुरक्षा कर्मी खड़े होते हैं, उसी तरह ब्राह्मण और क्षत्रिय भी दो सुरक्षा कर्मी हैं, जो वैश्यों और शूद्रों को उनके हाथों से निकल भागने से रोकने के लिए काम करते हैं।
गाय कैसे पवित्र हुई
गाय को पवित्र बनाने के बाद पशुबलि वाले अनुष्ठान को खत्म करने के लिए बड़ी संख्या में बुद्ध की अन्य शिक्षाओं को हिन्दूधर्म में शामिल कर लिया गया। इससे जो जनता बौद्धधर्म में चली गई थी, वह धीरे-धीरे हिन्दूधर्म में वापिस आने लगी। किन्तु की जो महान शिक्षा उन्होंने स्वीकार नहीं की, वह थी चातुर्वर्ण को खात्म करके समानता स्थापित करने का सिद्धान्त। परन्तु ब्राह्मणों ने एक काम किया। उन्होंने क्षत्रियों को अपने बराबर का सम्मान दिया, और अपने देवताओं को पृष्ठभूमि में डालकर उनके स्थान पर क्षत्रिय देवताओं को स्थापित किया और उनके साथ अवसरवादी समझौता किया।
अप्रत्याशित विकास
एक अत्यन्त अप्रत्याशित प्रकृति का विकास यह हुआ कि जो ब्राह्मणवाद बुद्ध से पूरी तरह घृणा करता था, वह अब उसे आत्मसात करने लगा था। अतः जब ब्राह्मणों ने गाय को पवित्र बना दिया गया था, तो सामान्यतः हिन्दू समाज ने भी उसे पवित्र मान लिया और गाय को मारना बन्द कर दिया। उस समय के अछूतों ने भी यही किया। किन्तु अछूत इतने गरीब थे कि हर समय ताजा माॅंस या गोमाॅंस नहीं खा सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी माॅंस खाने की पुरानी आदत की पूर्ति मृतक गायों का माॅंस खाकर करते थे।
न तो बुद्ध ने और न ही ब्राह्मणों ने मृतक पशु का माॅंस खाना वर्जित किया था। प्रतिबन्ध केवल जीवित गायों का वध करने पर था। किन्तु समकालीन अछूतों ने एक बड़ा अपराध किया था। चॅुकि वे गरीब थे और सामाजिक स्तर पर भी सबसे निचले पायदान पर थे, इसलिए वे लम्बे समय तक बौद्ध बने रहे। उन्हें सुधारने के लिए जब उनके प्रयास कुछ काम न आए, तो उन्होंने उन पर सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता लागू कर दी।
मृतक गायों का माॅंस खाने की उनकी आदत ही उनके शोषण का कारण बनी। यह कुछ ऐसा काम था, जो हिन्दू मानस को उनसे घृणा करने के लिए बाध्य करता था। उनके लिए यह घृणित था। ब्राह्मण बिना ज्यादा परेशानी के स्थिति को अपने लाभ के लिए उपयोग कर सकता था। इसलिए उसने सम्पूर्ण वर्ग पर अस्पृश्यता थोप दी। यह वास्तव में बौद्धधर्म से जुड़े रहने काएक दण्ड था, जबकि दूसरों ने बौद्धधर्म त्याग दिया था। यही कारण है कि शिक्षा और स्वतन्त्रता एवं सामाजिक समानता के आधुनिक विचारों के बावजूद अस्पृश्यता अभी तक बनी हुई है।
236
सरकार पक्षपात कर रही है
(जनता, 16 मार्च 1940, बम्बई)
‘जनता’ ने अपने मुख्य पृष्ठ पर मोटे अक्षरों में यह प्रकाशित किया है-
1. मजदूर भाईयों, आप यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बोर्ड पंचाट ने 10 प्रतिशत महॅंगाई भत्तों की सिफारिश की है, जबकि जीवन निर्वाह के खर्च में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
2. आप यह भी जानते हैं कि किस तरह मिल मालिकों ने, जिन्हें गाॅंधी जी ने ट्रस्टी कहा है, झूठा रोना शुरु कर दिया है।
3. अब हमें यह देखना है कि कम से कम सरकार हमारे लिए क्या कर रही है?
4. कहा जाता है कि भगवान भी कमजोर का साथ नहीं देता है, फिर सरकार कैसे आपका साथ दे सकती है?
5. आप यह भी जानते हैं कि गाॅंधी जी के रामराज (सुशासन) में काॅंग्रेस सरकार, युद्ध आरम्भ होने के बाद व्यापारियों पर दया दिखा रही है और उन्हें 20 प्रतिशत मुनाफाखोरी की इजाजत दे दी है, परन्तु उसने आप लोगों को महॅंगाई भत्ता देने का विचार नहीं किया है।
6. जब राम राज में ऐसा नहीं किया जा सकता था, तो शैतान की सरकार में ऐसा कैसे किया जा सकता है?
7. सरकार जुआरियों और विदेशियों का पक्ष ले रही है, जो धोखेबाज हैं। वह ऐसे दुष्टों पर दया दिखा सकती है।
8. आप दुष्ट नहीं हैं; फिर वह आप पर कैसे दया दिखा सकती है?
9. अगर आप माॅंग करेंगे, तो वह आपकी हड़ताल में अनुशासन, शान्ति और व्यवस्था के लिए लाठी चार्ज और गोली चलवायेगी।
10. इसके बिना, जिसकी लाठी उसकी भैंस यानी शक्ति का राज स्थाई नहीं होगा।
8 अप्रैल 1940
महोदय,
संलग्नक के सन्दर्भ में मैं रिपोर्ट करना चाहता हूॅं कि ‘जनता’ एक मराठी साप्ताहिक पत्र है, जिसे डा. आंबेडकर की इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी द्वारा चलाया जाता है। यह काॅंग्रेस और कम्युनिस्ट विरोधी पत्र है। मजिस्ट्रेट द्वारा इस पत्र को जमानत देने का कोई आदेश पास नहीं किया है।
(ह.)
इंस्पेक्टर
आई. बी., सी. आई. डी.
पुनः
यद्यपि यह काॅंग्रेस विरोधी है, पर मैं इसे कम्युनिस्ट विरोधी नहीं कहूॅंगा। इसका प्रचार जमीदारों के खिलाफ है और कोलाबा, रतनागिरी, सतारा इत्यादि क्षेत्रों में पार्टी के सदस्यों की गतिविधियाॅं कम्युनिस्टों वाली हैं। यह हिंसा की स्थिति पैदा करके परेशानी खड़ी कर सकता है।
10 अप्रैल।
237.
डा. आंबेडकर जिन्ना से मिले
(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 6 अप्रैल 1940)
नई दिल्ली, 5 अप्रैल।
डा. आंबेडकर आज दिल्ली एक्सप्रेस से जाने से पूर्व मि. जिन्ना से मिल सकते हैं। खबर है कि वे असेम्बली के कुछ सदस्यों से वार्ता करेंगे। -यूनाईटेड प्रेस।
कँवल भारती : महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्पणियों के लिए विख्यात। कई पुस्तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।