आजादी के 72 वर्षों के दौरान लोकतंत्र किस रूप में विकृत हुआ है, अगर इसे देखना और समझना हो तो बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या को याद किया जा सकता है। पिछले साल दिसंबर में गोकशी की अफवाह को लेकर हिंसक भीड़ ने सुबोध सिंह की हत्या कर दी थी। काफी हंगामे और मशक्कत के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने मामला दर्ज किया और आरोपियों को गिरफ्तार किया। अभी हफ्ता भर पहले उन आरोपियों को ज़मानत पर रिहा किया गया। रिहाई के बाद जिस तरह से आरोपियों का फूल मालाओं से स्वागत का वीडियो वायरल हुआ है, वह इस बात को दर्शाता है कि हमारा समाज हिंसा को किस रूप में देख रहा है!
इसी तरह 2017 में झारखंड के रामगढ़ में अलीमुद्दीन अंसारी की गौरक्षा के नाम पर अपराधियों ने हत्या कर दी थी। इस मामले में स्थानीय अदालत ने 2018 के मार्च में अलीमुद्दीन अंसारी की हत्या करने वालों को सजा सुनाई थी। पिछली एनडीए सरकार में झारखंड से मंत्री रहे जयंत सिन्हा ने उन हत्यारों का माला पहनाकर स्वागत किया। बाद में जब इस पर देश के 41 पूर्व नौकरशाहों- जिनमें जेएफ रिबेरो, वजाहत हबीबुल्लाह जैसे लोग शामिल थे- ने प्रधानमंत्री मोदी से मांग की कि सिन्हा को मंत्रिमंडल से हटाया जाए, तो मोदी ने इस पर सफाई देना भी मुनासिब नहीं समझा।
इसके उलट जयंत सिन्हा ने माला पहनाने को सही साबित करते हुए यह बयान दे डाला कि उन्हें अपने किए पर कोई अफसोस नहीं है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि हमने उन ‘आरोपियों’ (जिन्हें स्थानीय कोर्ट ने अपराधी माना है) को यह आश्वासन दिया है कि जरूरत पड़े तो हम उनके मुकदमे का खर्च उठा सकते हैं। इसलिए सवाल यहां यह भी उठता है कि क्या किसी मंत्री को निचली अदालत से सजा पाए अपराधियों का माला पहनाकर स्वागत करना चाहिए?
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगे में शामिल सुरेश राणा को योगी सरकार ने मंत्री बनाकर ‘इज्जत’ बढ़ाई है। ऐसी घटनाओं को सामान्य रूप से देखें तो पिछले पांच साल के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार व अमित शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी को किसी नैतिक और सामाजिक दबाव की परवाह नहीं है। यह ऐसी सरकार है जिसके शासनकाल में ऐसी वारदातों की होड़ लग गई है। इस तरह की हत्याएं कमोबेश पूरे देश में होने लगी हैं खासकर दक्षिण भारत को छोड़कर (वैसे मॉब लिंचिंग की एक घटना तमिलनाडु में भी हुई है)। मतलब यह कि जहां बीजेपी की सरकार है या फिर जहां वह सत्ता में आने की दावेदारी पेश कर रही है, वहां इस तरह की घटनाएं लगातार हो रही हैं।
ऐसा नहीं है कि पहले इस तरह की घटनाएं बिल्कुल नहीं होती थीं। कभी-कभार ऐसा जरूर होता था लेकिन नरेन्द्र मोदी से पहले तक की सरकारें इस तरह की घटनाओं पर सामान्यतः चुप्पी साध लेती थी। अगर मामला तूल पकड़ता था तो सरकार की तरफ से एक बयान आता था, ‘हमारी सरकार किसी को कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं देगी’। बीजेपी की सरकार आने के बाद मौजूदा कैबिनेट मंत्री दंगाइयों या हत्यारों का सार्वजनिक रूप से अभिनन्दन करता है, जबकि विधायकों या सांसदों को दंगाइयों को प्रोत्साहित करने या दंगा करवाने के लिए मंत्री बनाया जाने लगा है! सदन में बैठकर पोर्न फिल्म देखने वाले कर्नाटक के उस बीजेपी विधायक को तो छोड़ ही दें जिसे अभी-अभी राज्य का डिप्टी सीएम बनाया गया है।
जब से जनता दल (यू) मोदी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुआ है, उस दिन से हर जगह नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच चल रहे भावी गठबंधन को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं। जगह-जगह से खबरें आ रही हैं कि शायद अगला चुनाव दोनों दल अलग-अलग लड़ें। कौन किसका सहयोगी होगा, इस पर भी अलग-अलग बातें हो रही हैं। इस बीच जो जानकारी बिहार से मिल रही है, वह बेचैन करने वाली है।
वैसे बीजेपी तो हर जाति में गोलबंदी कर रही है लेकिन दलितों, खासकर चमारों और मुसहरों की गोलबंदी काफी व्यापक और अलग तरह से की जा रही है। अल्पसंख्यकों की जहां कहीं भी अच्छी खासी आबादी है, वहां दलित समूहों को बताया जा रहा है कि अगर बीजेपी सत्ता में आती है तो मुसलमानों को यहां से भगा दिया जाएगा और सारी संपत्तियां इन समुदायों के बीच बांट दी जाएगी। ‘बीजेपी मुसलमानों के खिलाफ है’- इस जन धारणा का इस्तेमाल बीजेपी ‘अपने हित’ में कर रही है। असम में लागू किए एनआरसी ने इस बात को पुख्ता करने में मदद की है। भाजपा के नेताओं ने जिस रूप में पश्चिम बंगाल में एनआरसी लागू करने की बात की है, वह भी देश के अल्पसंख्यक समुदाय में डर पैदा कर रहा है।
हमारे समाज में दलितों की आर्थिक हालत इतने खराब है कि वे बीजेपी के इस प्रोपगंडा को सही मानने के लिए अभिशप्त हैं। उन्हें लग रहा है कि ऐसा होता है तो सचमुच उनकी गरीबी थोड़ी कम हो जाएगी! सरकार के पास इस तरह के अफवाह से पार पाने का कोई उपाय नहीं है। राज्य सरकार की खुफिया मशीनरी क्या कर रही है, इसका भी पता नहीं चल रहा है। यह भी हो सकता है कि इस बात का खंडन आ जाए, लेकिन बीजेपी-आरएसएस किस रूप में अपने हित में बातों को ले जाते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान अंतिम दौर में दिल्ली के मध्यवर्गीय मुहल्लों में इस बात का काफी जोर से प्रचार किया गया कि अगर कोई मोदी को वोट नहीं दिया तो अगला प्रधानमंत्री मायावती बन जाएंगी। हम जानते हैं कि हमारा समाज दलितों से कितनी घृणा करता है और यह प्रचार किसके हित और क्यों किया गया था। समाज की इतनी भयावह स्थिति में सिर्फ राजनीतिक हस्तक्षेप ही एकमात्र उपाय है। इसका मतलब यह भी नहीं कि पूरा का पूरा काम राजनीतिक दलों के ऊपर ही छोड़ दिया जाए।
मोदी-शाह की जोड़ी ने पढ़े-लिखे लोगों व समझदारी की बात करने वालों को इस रूप में चिन्हित कर दिया है कि समाज का बहुसंख्य हिस्सा उनकी बातों को बेकार मानने लगा है। भारतीय समाज में पहली बार मोदी का विरोध करने वाले पढ़े-लिखे व्यक्तियों को ‘अपराधी’ की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। ज्यों-ज्यों हम लोकतंत्र के मजबूत होने की दुहाई देते हैं, हम पाते हैं कि लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही कमजोर हो गया है। हमने लोकतंत्र को भीड़ का जमा होना मान लिया है जबकि वास्तविकता यह है कि लोकतंत्र एक वैल्यू सिस्टम है, जवाबदेही है, सबके लिए बराबरी का सम्मान है। इसके उलट हमने सिर्फ वोट डालने तक लोकतंत्र को सीमित कर दिया है।
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