आज भी पांच में से चार अखबारों में कोरोना के टीके की खबर लीड है। मेरा मानना है कि यह सरकारी खबर है और इसे रोज-रोज लीड बनाने का मतलब नहीं है। पर बात इतनी ही नहीं है इसे छापने के लिए अखबार जो खबरें छोड़ रहे हैं वो ज्यादा महत्वपूर्ण है। आइए बताऊं छोड़ी गई खबरें क्या हैं। उससे पहले एक दिलचस्प संयोग। आज द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर एक खबर है कि सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के एक आरोपी को गिरफ्तारी से चार हफ्ते की राहत दी ताकि उसकी नौकरी न चली जाए। मुझे यह जरा अटपटा लगा और मेरा सवाल है कि यह सुविधा किसी पत्रकार या सरकार पीड़ित को इधर के वर्षों में मिली क्या? अगर नौकरी बचाने के लिए गिरफ्तारी से राहत दी जा सकती है तो बहुत साधारण मामलों में या गढ़े हुए आरोपों के संबंध में भी ऐसा कानून क्यों नहीं होना चाहिए। मेरे ख्याल से साफ निर्देश भी हो सकता है।
कानूनन क्या संभव है और क्या अनुचित वह मेरा विषय नहीं है मैं नागरिक अधिकार और सबको बराबर मानने के आधार पर चाहता हूं कि किसी को शनिवार को गिरफ्तार नहीं किया जाए। लेकिन हमने देखा है कि पत्रकार को गिरफ्तार किया जा सकता है। उसकी खबर रोकी जा सकती है, वीडियो नष्ट किया जा सकता है – सब हुआ है कार्रवाई की जानकारी नहीं है। और चूंकि मैं खबरों पर टिप्पणी करता हूं इसलिए खबरों की ही बात कर रहा हूं कि बलात्कार के आरोपी को राहत मिल गई। हिरासत में पिटाई आदि पर चुप्पी तो पुरानी बात है। कानून अगर सबके लिए बराबर है, अगर यह जायज है तो यही नियम होना चाहिए कि किसी भी आरोप में किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा क्योंकि नौकरियां तो निजी क्षेत्र में भी जाती हैं। कर्ज की किश्तें नहीं चुकाने के आरोप में गिरफ्तार एक पत्रकार की नौकरी जा चुकी है।
सरकार का काम है जनता की परेशानियां दूर करना और आरोप साबित होने तक हर कोई निर्दोष है। इसलिए गिरफ्तारी के तुरंत बाद सजा शुरू नहीं हो सकती है। बलात्कार के आरोपी की नौकरी की चिन्ता वाली इस खबर के बाद मुझे इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर दिखी, “जज के यह कहने पर कि जन्मदिन का संदेश ‘असभ्य’ है, मध्यप्रदेश के अधिवक्ता जेल में”। मामला यह है कि जज साहिबा को किसी वकील ने ई मेल से बधाई संदेश भेजा वह उन्हें ‘असभ्य’ (इनडीसेन्ट) लगा। इसलिए फेसबुक से बिना अनुमति फोटो डाउनलोड करने से लेकर आईटी ऐक्ट आदि के तहत कई आरोप लगे और अभियुक्त यानी वकील साब 9 फरवरी से जेल में हैं। मेरा सवाल है कि गिरफ्तारी से राहत सिर्फ सरकारी नौकरी वालों को क्यों? लेकिन खबरों के लिहाज से इससे बड़ा सवाल यह है कि दोनों खबरें एक साथ क्यों नहीं?
पहले मुझे लगा कि इंडियन एक्सप्रेस को शायद यह खबर मिली ही नहीं होगी और द टेलीग्राफ को मध्य प्रदेश वाली नहीं मिली होगी। बाद में मैंने देखा इंडियन एक्सप्रेस में दोनों खबरें हैं। दोनों बाईलाइन से पहले पन्ने पर है। एक साथ लगाई गई होती तो और मजा आता पर दो जनों की खबरें मिलाना भी शायद ठीक नहीं होता, फिर भी। यह भी संभवाना है कि सुप्रीम कोर्ट के कल के फैसले के बाद भोपाल की खबर का महत्व लोगों को समझ में आया होगा और भोपाल वाले ने यह खबर लिखी होगी। असल में होता यही है एक खबर से दूसरी निकलती है। और चूंकि मीडिया आजकल पूरी तरह भक्ति मोड में हैं इसलिए बाकी की खबर दब जा रही हैं या रह जा रही हैं।
अदालती फैसलों, पुलिसिया मनमानी और आम नागरिक की जो स्थिति है उसमें दिल्ली दंगे के मामलों की अपनी कहानी है। और अक्सर पुलिसिया ज्यादाती की खबरें छपती रहती हैं। आज इंडियन एक्सप्रेस में कानून और अदालत से संबंधित एक और खबर पहले पन्ने पर है। खबर का फ्लैग शीर्षक है, “दंगा मामले में ‘इकबालिया बयान’ ‘लीक’ होने की जांच”। इस खबर का मुख्य शीर्षक है, “अधपके कागज का बेकार टुकड़ा : दिल्ली हाईकोर्ट ने रिपोर्ट पर पुलिस की खिंचाई की।” यह भी बाईलाइन वाली खबर है और इससे कानून, अदालत, पुलिस आदि से जनता को हो रही परेशानी का अंदाजा लगता है और यह सब तब है जब हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है। जो करना है ये सब उसी का तो हाल है और बाकी अखबार बताते नहीं तो यह उन्हीं की व्यवस्था है।
आज द हिन्दू में उल्लेखनीय खबरें हैं। ताज्जुब की बात है कि बाकी अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं हैं। आप जानते हैं कि भीमाकोरेगांव मामले में एक अभियुक्त के कंप्यूटर में मालवेयर के जरिए फर्जी सबूत प्लांट करने और फिर छापे में बरामद होने का मामला अदालत में लंबित है। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक खबर के अनुसार अक्तूबर 2020 में मुंबई में बिजली जाने की घटना चीन द्वारा सुनियोजित साइबर हमले का मामला था। पुराने मामले के मद्देनजर इस खबर का अपना महत्व है लेकिन अखबार कोरोना की कहानी बताने में लगे हैं जिसमें कुछ किया नहीं जाना है। अखबारों की खबरों को ही मानें तो अब सब पटरी पर है। इसलिए, चीनी साइबर हमले की खबर और चर्चा निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है। यह दिलचस्प है कि भारत सरकार ने इस खबर या घटना के संबंध में कोई टिप्पणी नहीं की और अखबारों ने पूछा भी नहीं। अखबार अगर यही छापने लगें कि प्रतिक्रिया नहीं मिली तो प्रतिक्रिया देने की व्यवस्था हो जाएगी। साइबर हमला, मुंबई में बिजली गुल होना और फिर न्यूयॉर्क टाइम्स की खबर के बाद सरकारी रवैए की खबर द टेलीग्राफ में है और ऐसी ही खबर की अपेक्षा मैं सुप्रीम कोर्ट और मध्य प्रदेश वाले मामले में मैं कर रहा था। हालांकि यह जरा अलग तरह की पत्रकारिता है।
चीनी साइबर हमले से संबंधित पहले पन्ने पर एक कॉलम में छपी द हिन्दू की खबर का शीर्षक है, चीनी साइबर हमले की कोशिश नाकाम : ऊर्जा मंत्रालय। इस खबर के अनुसार केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने कहा है कि “सरकार प्रायोजित” चीनी हैकर समूह ने भारत के भिन्न बिजली केंद्रों पर निशाना साधा। साथ ही यह भी कहा कि सरकारी साइबर एजेंसियों ने उन्हें उनकी गतिविधियों के संबंध में चेतावनी दी तो इसे नाकाम कर दिया गया। अखबार ने लिखा है कि सरकार ने न्यूयॉर्क टाइम्स की खबर को स्वीकार करने या उससे इनकार करने से मना कर दिया। यह केंद्र सरकार की बात है। द हिन्दू ने इसके साथ तीन कॉलम में और इंडियन एक्सप्रेस ने भी यह खबर पहले पन्ने पर छापी है तथा बताया है कि महाराष्ट्र (सरकार) कहती है कि साइबर अपराध की जांच से मालवेयर हमले के संकेत मिलते हैं। राज्य के गृहमंत्री अनिल देशमुख की तस्वीर के साथ छपी इस खबर में कहा गया है कि 12 अक्तूबर 2020 की घटना साइबर छेड़-छाड़ हो सकती है। वे न्यूयॉर्क टाइम्स की खबर पर प्रतिक्रिया दे रहे थे। अखबार ने इसी के साथ खबर छापी है कि भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार ऐक्टिविस्ट गौतम नवलखा की जमानत याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में कल सुनवाई होगी।
टाइम्स ऑफ इंडिया में एनएसई में ‘ग्लिच्ज’ की खबर है और जीएसटी मद में लगातार तीसरे महीने में 1.1 लाख करोड़ रुपए जमा होने की खुशखबरी है जबकि द हिन्दू ने पहले पन्ने पर बताया है कि महाराष्ट्र 29290 करोड़ के जीएसटी बकाए का इंतजार कर रहा है। आज जनहित की खबरों की बात ज्यादा हुई जो अखबारों से लगभग गायब हैं। राजनीतिक खबरों की बात करें तो आज फिर द टेलीग्राफ की लीड किसी भी अखबार में पहले पन्ने पर नहीं है। यह तर्क सही है कि कोलकाता की खबर द टेलीग्राफ में लीड होगी तो जरूरी नहीं है कि दिल्ली में भी हो। अगर इसे मान लिया जाए पहले पन्ने की बाकी खबरें कहां की होंगी? मैं यही तो बता रहा हूं कि जो खबर एक अखबार में बहुत प्रमुखता से छपती (लीड भी होती है) वह दूसरे अखबार में पहले पन्ने से ही गायब रहती है। विज्ञापन हो या नहीं। कायदे से संबंधित खबर कहीं और होने की सूचना होनी ही चाहिए।
द टेलीग्राफ ने लिखा है कि अखिलेश यादव सुबह में और शाम में तेजस्वी यादव पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिले। तमिलनाडु चुनाव एक चरण में और पश्चिम बंगाल के चुनाव जब आठ चरण में हो रहे हैं तो चुनाव से संबंधित पश्चिम बंगाल की खबरें आठ गुना महत्वपूर्ण होनी ही चाहिए। इस हिसाब से बंगाल चुनाव से संबंधित सभी खबरें पहले पन्ने पर हो सकती हैं। खासकर तब जब, “टेलीग्राफ में शीर्षक है, “बंगाल की रक्षा कीजिए। बेकवकूफ मत बनिए : तेजस्वी”। मोटे तौर पर यह खबर ममता बनर्जी को हिन्दी पट्टी के दो बड़े नेताओं के समर्थन से संबंधित है जो दिल्ली के अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर का शीर्षक है, “आईएसएफ के साथ गठजोड़ की ‘जी-23’ नेताओं ने निन्दा की”। इसके साथ आनंद शर्मा का कोट है।
आज भी इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया में एक जैसी खबर पहले पन्ने पर लगभग समान शीर्षक से है। इंडियन एक्सप्रेस में शीर्षक है, शर्मा ने बंगाल में धर्मगुरु के साथ गठजोड़ के लिए अधीर पर हमला किया, उन्होंने जवाब दिया। अखबार ने इसके साथ बताया है कि तेजस्वी यादव वाली खबर अंदर के पन्ने पर है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।