पुण्य प्रसून वाजपेयी
पहली तस्वीर….लुटियन्स दिल्ली…
वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरीये पिछले दिनो प्रधानमंत्री जब सचिवों से सवाल जवाब कर रहे थे, तब किसी सवाल पर एक सचिव अटक गये। और अटके सवाल पर कोई सीधा जवाब जब सचिव महोदय नही दे पाये तो प्रधानमंत्री ने कुछ उखड़कर कहा- ‘आप ऐसे ही जवाब 2019 में हमारे चुनाव जीतने के बाद भी देते रह जायेंगे क्या?’ इस वीडियो कान्फ्रेसिंग में मौजूद एक दूसरे सचिव ने जानकारी देते हुये कहा कि, “जिस अंदाज में प्रधानमंत्री ने 2019 की जीत का जिक्र किया, उसमें हर किसी को लगा कि 2019 का चुनाव सरकार के लिये या कहे पीएम के लिये गैर महत्वपूर्ण है।” यानी देश में जिस तरह की बहस 2019 को लेकर चल निकली है उसमें कांग्रेस या विपक्ष क्या क्या कयास लगा रहा है। वह सब वीडियो कान्फ्रेसिंग के वक्त काफूर सी हो गई।
दूसरी तस्वीर…बीजेपी हेडक्वार्टर
भाई साहब जिस तरह रिलायंस ने अपनी नेटवर्किग के जरिये देश भर में सर्वे किया है और हाईकमान को जानकारी दी है कि बीजेपी 2019 में तीन सौ प्लस सीट जीत रही है । उसके बाद से तो हर नेता की या ता बांछें खिली हुई है या हर नेता घबराया हुआ है। घबराया हुआ क्यों? क्योकि अध्यक्ष जी जिससे मिलते है, साफ कहते हैं- ‘हम तो तीन सौ से ज्यादा सीटे जीत जायेंगे पर आप अपनी सीट की सोचिये?’ तो बीजेपी के सांसद ने ये बताते हुये कहा -‘अब समझ में नहीं आ रहा है कि जब तीन सौ सीट जीत ही रहे हैं तो फिर हमारी ही सीट गडबड़ क्यों है?’ और कमोवेश हर सांसद के पास यही मैसेज है कि तीन सौ सीट जीत रहे हैं पर आप अपनी सीट देखिये। तो टिकट मिल रहा है या नहीं। या फिर टिकट से पहले खुद का आत्मचिंतन करना है। या फिर जीत तय करने के इंतजाम करने हैं!
तीसरी तस्वीर …. बनारस
“बीते चार बरस में चार हाथ का पुल बना है। पर चार सौ हाथ के गड्डे शहर में हो गये । काशी-विश्वानाथ मंदिर के रास्ते दुकान-मकान सब उजाड़ दिये गये। शिक्षा बची नहीं। रोजगार खत्म हो गया। सड़क से लेकर गंगा घाट का हाल और खराब हो चला है। करें क्या समझ नहीं आता। कोई कहता है कलाकार हैं। कोई कहता है तानाशाह है। कोई कुछ कहता है तो कही से कुछ और बात निकल कर आती है। पर करें क्या? आप ही बताओ!”
तो प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में हवाईअड्डे से लेकर बीच शहर, नागरी सभागार और काशी-विश्वनाथ मंदिर से लेकर डायमंड होटल के निचले तल में बैठे विपक्ष की राजनीति करते हर दल के सामने सवाल यही है। करें क्या? और बनारस के किसी भी कोने में सारी बात घूम-फिर कर अटक जाती प्रधानमंत्री पर है। यानी संकटमोचक के शहर में सब संकट के दाता को निपटायें कैसे? बहुत घोखा हो गया! पर करें क्या? तो सत्ता की नौकरशाही, सत्ताधारी नेता और सत्ता का प्रतीक बनारस ही जिस मनोविज्ञान में जा फंसा है उसमें कोई भी पहली नजर में प्रधानमंत्री मोदी को जन्मदिन की बधाई ये कहते हुये तो दे ही सकता है कि, ” कण कण में जब आप हैं और विपक्ष के पास कोई पैालेटिकल नैरेटिव है ही नहीं, फिर 2019 तो आप जीत ही चुके हैं।”
सच यही है कि देश में बहुसंख्य तबका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 2019 में हराना चाहता है। और यही बहुसंख्यक तबका खुद को इतना बेबस और असहाय महसूस कर रहा है कि उसके पास संकट बताने का तो भंडार है, पर संकट से निजात कैसे पाये इसका कोई मंत्र नहीं है। कोई तस्वीर नहीं है। किसी पर भरोसा नहीं है। और बहुसंख्यक होकर भी अपने अपने दायरे में सभी इतने अकेले हैं कि कोई छोटी सी किरण उसे नजर आ जाये तो वह उसे सूरज मान कर, या बनाने की चाह में उसकी तरफ खिंचता आता है।
दूसरी तरफ कांग्रेस के पास कोई पॉलिटिकल नैरेटिव नहीं है । क्षत्रप, कांग्रेस की बिना नैरेटिव राजनीति का लाभ अपनी सत्ता की जमीन मजबूत करने के लिए सौदेबाजी की भाषा बोल रहे हैं। और इस मनोविज्ञान का लाभ मोदी-शाह की जोड़ी ने इस तरह उठाया है कि बिना जमीन ही 2019 की जीत का महल हर दिमाग में खड़ा कर दिया है। नौकरशाही में वही खुश है जो डायरेक्ट बेनेफेशरी फंड के निस्तारण से जुड़ा है। वही बीजेपी नेता खुश है जिसको टिकट मिलेगा या जिसके पांव बीजेपी हेडक्वार्टर की पांचवी मंजिल तक पहुंच पाते हों । जनता में वही खुश है जो मान बैठा है कि 2019 में मौजूदा हालात से निजात मिल जायेगी। विपक्ष इसी खुशी से सराबोर है कि जनता परेशान है तो फिर निर्णय वहीं दे। और परेशान जनता के नाम पर राजनीतिक गठबंधन में सीटों की सौदेबाजी का खुला खेल तो होना ही है। होगा ही। नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन पर 2019 में जीत की बधाई देने के लिए बात कहीं से भी शुरु कर सकते हैं। क्योकि यूपी की जमीन जो काफी कुछ तय करेगी, वहा समाजवादी अखिलेश यादव संघर्ष की जगह अगले तीन महीने खामोश रहना चाहते है । क्यों ? क्योकि पता नहीं किस मामले में जेल हो जाय़े या फिर जो औरा यूवा समाजवादी का बना कर खुद ही जीये जा रहे हैं वह एक सरकारी दबिश में टूट ना जाये!
मायावती अपने वोट बैं,क को दूसरो के खिलाफ उकसाने वाले हालात बनाकर, सत्ता के खिलाफ खामोशी बरतते हुये विपक्ष की एकता में अपनी ताकत को सबसे ज्यादा दिखाकर कभी सत्ता को मोहती हैं तो कभी विपक्ष को चुनौती देती हैं। यानी मोदी का नाम जपते हुये मोदी की किसी योजना के खिलाफ सड़क पर आकर संघर्ष करने की ताकत तो दूर की गोटी है। बंद कमरे में भी नही कहती क्योंकि पता नहीं कब दीवारों के कान लग जायें और बाहर सत्तानुकुल सिस्टम घर में घुस कर दबोच ले। क्योंकि कौन सोच सकता था जिस दौर में नक्सलवाद सबसे कमजोर है, उस दौर में शहर दर शहर गैर राजनीतिक तबका ये कहने से नहीं चूक रहा है कि “मी टू नक्सल”। और जिस कांग्रेस ने नक्सलवाद को लेकर ना जाने कौन कौन सी लकीरें खिंची आज उसी के वकील शहरी नक्सलियों की वकालत करते हुये भी नजर आ रहे हैं। और तो और जो कारपोरेट मनमोहन सरकार को एक दौर [ 2011-12] में चार पत्र भेज कर कहने की हिम्मत दिखाता था कि ‘मनमोहन सरकार की गवर्नेंस फेल है’ अब उसी कारपोरेट को सूझ नहीं रहा है कि रास्ता होगा क्या। क्योंकि पंसदीदा कारोपरेट सत्ता के साथ है। और पसंदीदा कारपोरेट 2019 में सत्ता बदलने पर आने वाली सत्ता के दरवाजे शाम ढलने के बाद खटखटा भी रहा है। पर रास्ता है क्या, या होगा क्या, ये कोई नहीं जानता। और इसी मनोविज्ञान को मोदी-शाह ने पकड़ लिया है तो फिर नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन की बधाई ये कहते हुये तो दी ही जा सकती है कि 2019 में आप जीत रहे हैं।
पर बधाई की सीमा सिर्फ इतनी भर भी नहीं है । उसके पीछे हो सकता है समाज में खिंचती लकीरें हों। धर्म के नाम पर बंटता देश हो। जाति-संघर्ष की नई इबारत गढ़ने की तैयारी हो। सपनों की दुनिया में और ज्यादा हिलोरे मारने की तैयारी हो। मसलन गरीब सवर्णों को दस फ़ीसदी आरक्षण दे दिया जाये। दलित उत्पीड़न के कानून को मजबूत करते हुये बाबा साहेब आंबेडकर के परिवार के सदस्य आनंद तेलतुम्ब्रडे [प्रकाश आंबेडकर की बहन के पति] को जेल में बंद भी कर दिया जाये। जिलेवार जातीय आधार पर बांटा जाये । उसमें से जातीय तौर पर नेताओ की पहचान कर सत्ता से जोड़ा जाये। हर योजना के क्रियान्वयन के लिये किसी भी अधिकारी से ज्यादा ताकत इन जातीय नेताओं के हाथ में दे दी जाये। मौजूदा 80 फीसदी सांसदों को टिकट ना दिया जाये। किसी भी दागी को टिकट ना दिया जाये। क्योंकि दूसरी तरफ जब पार्टियों का गठबंधन होगा तो सभी 2014 के उन्ही प्यादों को टिकट देंगे, जो ये कहते हुये सामने आयेंगे कि 2014 की हवा तो गुजरात से चली थी तो वह उड़ गये। पर अब तो दिल्ली की हवा है और जवाब देने के लिये सत्ता के पास कोई बोल नहीं है तो फिर वह जीत जायेंगे। यानी विपक्ष के 80 फीसदी वही उम्मीदवार होंगे जो 2014 में थे।
तो क्या वाकई नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन की बधाई ये कहते हुये नहीं दे देनी चाहिये कि 2019 में आप जीत रहे हैं! या फिर अपने अपने दायरे में अकेले सोचती बहुसंख्य जनता कि 2019 में बदलाव होगा। पर होगा कैसे, इसकी कोई तस्वीर उनके सामने नहीं उभरती और विपक्ष ये सोच कर खामोश है कि आने वाले तीन महीने किसी तरह बीत जाये। तो फिर उसके बाद तो सत्ता उसी की है। इस कतार में सिर्फ अखिलेश, मायावती भर नहीं है बल्कि ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू, देवेगौडा, चन्द्रशेखर राव, उमर अब्दुल्ला या फारुख अब्दुल्ला। हर कोई अपनी सुविधा और सत्तानुकुल हालात के नेता है ।
उधर, वामपंथी महज जेएनयू की जीत से आगे जा नही पा रहे और कांग्रेस के पास सिवाय मोदी विरोध के कोई नैरेटिव नहीं है। यानी जो बहुसंख्य जनता राहुल गांधी से ज्यादा नरेन्द्र मोदी को कोस रही है, वह जनता राहुल गांधी को भी खुद की तरह मोदी को कोसते हुये सुनती है तो उसके सामने ये संकट उभर कर आता है कि विकल्प क्या है? क्योंकि कांग्रेस को जिस दौर में पालेटिक नैरेटिव देश के सामने रखना चाहिये उस दौर में कांग्रेस सिर्फ सत्ता का खिलाड़ी बनकर खुद को पेश कर रही है। यानी इस सच से काग्रेस सरीखी राजनीतिक पार्टी भी कोसों दूर हैं कि गठबंधन की आंकड़ेबाजी से कहीं आगे देश की राजनीति निकल चुकी है। और सपनों को सपनों से खारिज करने की जगह उस जमीन को बताने-दिखाने और उसी के लिये संघर्ष करने की जरुरत है जिसकी चाहता किसी भी भारतीय नागरिक में फिलहाल है। वह मसला किसान- मजदूर का हो या शिक्षा या रोजगार का। या फिर उत्पादन या कारपोरेट इकोनॉमी का। या कहें, मौजूदा वक्त का राजनीतिक विकल्प होगा क्या ? आने वाले वक्त में भारत कि दिशा होगी कैसी? क्यों मोदी दौर की राजनीति ने लोकतंत्र को हड़प लिया है? पालेटिकल नैरेटिव इस दिशा में जा ही नहीं रहा है। राफेल लड़ाकू विमान ख़रीद घोटाला है। एक खास कारपोरेट को लाभ है। इसे कमोवेश हर कोई जान चुका है। गूगल पर सारे तथ्य मौजूद हैं। पर यह तो अतीत की सत्ता का ही दोहराव है। यानी सत्ता इधर हो या उधर, दोनो में फर्क चुनावी भाषणो में दिखायी- सुनायी देने वाले तथ्यों के आसरे पालेटिकल नैरिटिव बनाये नहीं जा सकते। और ये तमीज अभी तक काग्रेस को आई ही नहीं है क्योंकि संविधान और लोकतंत्र की परिभाषा में वह पालेटिकल नैरेटिव तब खोज रही है जब संविधान और लोकतंत्र को ही बेमानी बना दिया गया है।
यानी मौजूदा सत्ता के पॉलेटिकल नैरेटिव में संविधान और लोकतंत्र मायने नहीं रखता है जबकि कांग्रेस को लगता है कि संविधान-लोकतंत्र के दायरे तले उन कंकड़ों को उठाया जाये जो चुभ रहे हैं क्योकि अगर उसने पत्थर उठा लिया तो फिर 2019 के लिये राजनीतिक तौर जितनी मशक्कत करनी होगी उसकी काबलियत उसमें है नहीं। या फिर वह इतनी दूर तक सोच पाने में ही सक्षम नहीं है। तो जब कांग्रेस कंकड़ उठा रही है तो ट्वीट करके या बाकायदा केक काट कर प्रधानमंत्री मोदी को जन्मदिन की बधाई देते हुये राहुल गांधी को भी कह देना चाहिये -‘2019 आप जीत रहे हैं!’
लेखक मशहूर टी.वी.पत्रकार हैं.