‘गरीबों के डॉक्टर’ की सपरिवार आत्महत्या: इस गुनाह में हम सबका हिस्सा!


नरेन्द्र मोदी सरकार को भी इस प्रसंग से यह समझने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री द्वारा विकलांगों को दिव्यांग संज्ञा दे देने भर से ही उसे उनकी समस्याओं के अंत का दिवास्वप्न नहीं देखना चाहिए। इससे पहले कि डॉ. थोराट जैसा कोई और परिवार उनके अझेल दुःखों की बलि चढ़ जाये, उन्हें कम करने के सुविचारित नये जतन शुरू करने चाहिए। अन्यथा वह वीरेन डंगवाल की इन पंक्तियों को ही सार्थक करेगी : तुम दिन भर सपने रहे देखते आंय बांय, आ गई रात हौले हौले हौले हौले।


कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
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यह कौन नहीं चाहेगा, उसको मिले प्यार… बेटे-बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में… हौसला दिलाने और बरजने आसपास, हों संगी-साथी, अपने प्यारे खूब घने… पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है, इसमें जो कुछ भी दमक रहा है, काला है… वह कत्ल हो रहा सरेआम चौराहे पर, निर्दोष और सज्जन जो भोला भाला है!

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के राशिन गांव में ‘गरीबों के डॉक्टर’ के नाम से प्रसिद्ध चिकित्सक व सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. महेद्र थोराट द्वारा किशोरावस्था फलांग रहे अपने दिव्यांग बेटे के प्रति सामाजिक बेदिली से तंग आकर समूचे परिवार के साथ आत्महत्या कर लेने की बाबत ये पंक्तियां लिखने तक जो तथ्य सामने आये हैं, वे सही हैं तो सबसे पहले हिन्दी के दिवंगत जनपक्षधर कवि वीरेन डंगवाल के शब्दों में यही सवाल पूछना होगा।

प्रसंगवश, परिवार के कथित सामूहिक फैसले के तहत डॉ. थोराट ने पहले अपनी पत्नी व दो बेटों को जहर के इंजेक्शन लगाये, फिर फांसी लगाकर खुद भी जान दे दी। इसका पता अगली सुबह तब चला, जब उनके द्वारा अपने गांव में ही गरीबों के लिए संचालित अस्पताल में इलाज के लिए मरीज पहुंचने शुरू हुए। मौके से बरामद सुसाइड नोट के अनुसार बेटे की दिव्यांगता डॉ. थोराट के समूचे परिवार के लिए अरसे से सामाजिक अपमान का कारण बनी हुई थी। हालांकि परिवार की सामूहिक आत्महत्या का यह कारण पुलिस को स्वाभाविक नहीं लग रहा, इसलिए वह दूसरी संभावनाओं की भी जांच कर रही है, जिसमें सुसाइड नोट पर अविश्वास करना भी शामिल है, जिसमें लिखा है कि ‘अब कोई बात सुनने की हमारी शक्ति समाप्त हो गई है, इसलिए इस संसार को अलविदा कह रहे हैं।’

डॉ. थोराट के निकटवर्तियों के अनुसार उनका सोलह-सत्रह साल का बेटा कृष्णा किसी जन्मजात विकृति के कारण कानों से सुन नहीं पाता था, इसलिए अनेक बार अपने पराये दोनों के बुरे बरताव का शिकार होता था। उन्होंने उसे क्रिकेट के प्रशिक्षण के लिए पुणे के एक खेल संस्थान में भर्ती कराया, तो वहां भी उसको उस सामाजिक व सांस्थानिक असंवेदनशीलता से निजात नहीं मिली, जो इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल में भी इस देश में दिव्यांगों की नियति बनी हुई है। कहते हैं कि उसके सहप्रशिक्षार्थी भी उसकी असमर्थता का मजाक उड़ाने से नहीं चूकते थे।

कोढ़ में खाज यह कि पिछले साल कोरोना की महामारी आई तो लॉकडाउन के कारण उक्त संस्थान बन्द हो गया और कृष्णा को प्रशिक्षण छोड़कर घर वापस आ जाना पड़ा, जहां उसकी निराशा चरम पर जा पहुंची। डॉ. थोराट की मानें तो उस बिन्दु तक, जहां उसका दुःख परिवार में किसी से भी सहन नहीं होता था। उन्होंने इस बाबत सुसाइड नोट में लिखा है कि ‘कृष्णा को अपने भविष्य का रास्ता नहीं सूझता तो उसे बहुत बुरा लगता है, लेकिन वह हम पर जाहिर नहीं होने देता और माता-पिता होने के नाते हम उसके दुःख को सहन नहीं कर पाते क्योंकि उसे जन्म देने के नाते खुद को उसका अपराधी महसूस करते हैं। इसलिए….।’

हम जानते हैं कि इस देश के इससे पहले इससे भी कहीं ज्यादा दिल दहलाने वाली आत्महत्याएं देखी हैं, लेकिन इस परिवार की सामूहिक आत्महत्या इसलिए कहीं ज्यादा चौकाती है कि यह एक डॉक्टर से जुड़ी हुई है। डॉक्टरों को आम तौर पर मजबूत कलेजे वाला माना जाता है, इसलिए समझना मुश्किल है कि अनेक असाध्य मरीजों को व्याधियों व दुःखों से निजात दिलाकर उनमें जिन्दगी की उम्मीदें जगाने वाले डॉ. थोराट अपने दुःख से अचानक इस कदर उम्मीदें खोकर क्यों हार गये?

आम तौर पर लोग आत्महत्या का रास्ता तभी चुनते हैं, जब उन्हें लगता है कि उनके सामने जो रात आ खड़ी हुई है, उसकी कोई सुबह नहीं है। सामूहिक आत्महत्याओं के मामले में निराशा के घटाटोप को और घना बताया जाता है। थोराट परिवार का दुःख इस तथ्य की रौशनी में और गहरा लगता है कि पत्नी के साथ विचार-विमर्श में सामूहिक आत्महत्या के फैसले तक पहुंचने में कई संकल्पों-विकल्पों से गुजरने के बावजूद उन्हें आत्महत्या न करने के पक्ष में एक भी कारण नहीं दिखा, सारे रास्ते आत्महत्या की ओर ही जाते दिखे।

इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अपने दुःखांत से पहले उनका समूचा परिवार आखिरी बार सामूहिक रूप से रोया। इससे भी कि वे सुसाइड नोट में यह दर्ज करना भी नहीं भूले कि ऐसा कदम उठाना हमें खुद भी ठीक नहीं लग रहा, लेकिन करें तो क्या करें? कर सकते हैं तो हमें इसके लिए माफ कर दें और इसके लिए किसी को भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दोषी न मानें।

लेकिन सच यह है कि समाज के हिस्से के तौर पर इस दोष में हम सबका हिस्सा है। यानी थोराट परिवार के अपराधी सिर्फ वही नहीं, जो बेटे की दिव्यांगता के बहाने मजाक उड़ाकर उनके पूरे परिवार की यातना का कारण बने हुए थे। इस यातना को बांटने और कम करने के लिए एक भी हाथ आगे नहीं आया तो हममें से कौन है जिसे इस सवाल के सामने खड़ा करने की जरूरत नहीं है कि आखिर हमने कैसा समाज रच डाला है?

हो सकता है, हममें से बहुत ऐसा करने के बजाय डॉ. थोरोट को कायर अथवा मनोरोगी करार देना चाहें। क्योंकि आम तौर पर आत्महत्याओं को ऐसी चीजों से ही जोड़ा जाता है। यह भी कहा जाता है कि जो इस तरह अपना जीवन समाप्त करते हैं, समाज के अपराधी होते हैं। क्योंकि उनकी जीवन समाज द्वारा पोषित और इस अर्थ में उनका अकेले का नहीं होता। लेकिन ऐसा कहने वाले भी उस सामाजिक संवेदनहीनता की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते, जिसने अपने ही बीच के परिवार को इतना ‘अकेला’ और निरुपाय कर डाला। फिर भी यह इस परिवार या डॉ. थोराट की कायरता है तो कौन कह सकता है कि इसका एक सिरा हमारी ‘आप आप ही चरे’ वाली सामाजिक असामाजिकता तक नहीं जाता?

हां, डॉ. थोराट किसी के सबसे ज्यादा अपराधी हैं तो अपने छोटे बेटे कैवल्य के। बड़े बेटे के दुःख में, वह कितना भी अंतहीन क्यों न लगा हो, उन्हें अपने छोटे बेटे की जान लेने का कोई हक नहीं था। वे और उनकी पत्नी दिव्यांग बड़े बेटे को जन्म देने को लेकर खुद को अपराधी महसूस कर रहे थे, तो इसमें मुश्किल से सात साल के कैवल्य का कोई अपराध नहीं था। उसने इस सामूहिक आत्महत्या की बाबत सहमति दे रखी हो तो भी यह उसके साथ बलात्कार ही था, क्योंकि इस तरह की सहमति औरों के सन्दर्भ में तो गैरकानूनी या अवैध ही होगी, उसके सन्दर्भ में उसकी उम्र से अत्याचार भी थी।

इस बलात्कार के लिए, भले ही अब डॉ. थोराट को, भले ही वे जीवन के उस पार चले गये हैं, जहां से किसी भी तरह की सजा भुगतने को प्रस्तुत नहीं हो सकते, न ही अपनी गलती का सुधार कर सकते हैं, क्षमा नहीं किया जा सकता। उनका यह अपराध हमारी सामाजिक असामाजिकता जितना ही अक्षम्य है और उनकी इस सदाशयता के बावजूद रहेगा कि उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति दिव्यांग बच्चों के लिए काम करने वाली किसी संस्था को दान देने की इच्छा जताई है।

अंत में एक और बात। नरेन्द्र मोदी सरकार को भी इस प्रसंग से यह समझने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री द्वारा विकलांगों को दिव्यांग संज्ञा दे देने भर से ही उसे उनकी समस्याओं के अंत का दिवास्वप्न नहीं देखना चाहिए। इससे पहले कि डॉ. थोराट जैसा कोई और परिवार उनके अझेल दुःखों की बलि चढ़ जाये, उन्हें कम करने के सुविचारित नये जतन शुरू करने चाहिए। अन्यथा वह वीरेन डंगवाल की इन पंक्तियों को ही सार्थक करेगी : तुम दिन भर सपने रहे देखते आंय बांय, आ गई रात हौले हौले हौले हौले।


कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।