डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति के नवम्बर 2020 में निर्धारित चुनाव की तरह 2016 में पिछली बार के भी चुनाव में अनुदारवादियों की रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी थे. उनका मुकाबला निवर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के राज में विदेश मंत्री ( सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ) रही एवं पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन से हुआ था। चुनावी पंडितों के आकलन में कुछ आम सहमति-सी थी कि हिलेरी जी जीत जाएंगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ट्रम्प जी कुछ अप्रत्याशित रूप से जीत गए. ऐसा कैसे और क्यों कर हुआ ? इस प्रश्न का आज तक किसी ने भी सर्वस्वीकार्य रूप से नहीं दिया है।
कुछ लोगों का कयास है कि ओबामा के शासन काल की समाप्ति से पूर्व ही विदेश मंत्री पद छोड़ देने से पहले हिलेरी क्लिंटन को दुनिया भर के इतने खुफिया राज मालूम हो गए थे जो वहां के राष्ट्रपति को भी आसानी से नहीं मालूम होते। इन लोगों का ये भी कहना है कि इस जानकारी से परेशान खुफिया एजेंसियों ने आपस में हाथ मिलाकर हिलेरी जी को ‘ठिकाने’ लगाना तय किया। इन खुफिया एजेंसियों के नए खेल में ट्रम्प जी की जीत सुनिश्चित करने के लिए रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन को मोहरा बनाकर पेट्रोलियम कंपनियों से उगाहे धन को अमेरिका के चुनाव में पानी की तरह बहाया गया। सच क्या है शायद ही कभी पता चले।
फिलवक्त सच ये है कि व्लादीमीर पुतिन ही नहीं दुनिया के सभी तानाशाह चाहते हैं कि इस बार के चुनाव में ट्रम्प जी ही जीतें. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद मोदी तो कुछ अरसा पहले अमेरिका जाकर वहां ट्रम्प जी की उपस्थिति में एक सार्वजानिक आयोजन में खुल कर ट्रम्प की चुनावी जीत के अभियान के लिए अपना समर्थन घोषित कर चुके हैं। लेकिन ट्रम्प के लिए इस बार का चुनाव जीतना आसान नहीं लगता। सर्वेक्षण एजेंसी प्यू का ये आकलन हम चुनाव चर्चा के पिछले अंक में रिपोर्ट कर चुके हैं कि दो-तिहाई अमेरिकी नागरिक कोरोना महामारी से निपटने में ट्रम्प की भूमिका से खासे नाराज हैं। इसके अलावा अश्वेत नागरिक फ्लॉयड की सुरक्षा बल द्वारा की गई निर्मम ह्त्या के खिलाफ अश्वेत ही नहीं श्वेत समुदाय के भी युवा और गंभीर लोग खड़े होते जा रहे हैं। ऐसे में ट्रम्प को बहुसंख्यकवाद नहीं कोई और चुनावी मन्त्र की शिद्दत से तलाश है। क्या ये युद्ध भी हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर तत्काल मिलना मुश्किल है। लेकिन जैसे-जैसे अमेरिका के चुनाव की तारीख नजदीक आती जाएगी विश्व भर के तानाशाहों की अमेरिका की अगुवाई में सैन्य संधि की संभावनाओं की आहट बढ़ सकती है।
अमेरिका से इस स्तम्भकार को मिली सूचनाओं के अनुसार युद्ध की काठ की हांडी चुनावी आग पर अगर नहीं भी चढ़ पाती है तो माहौल अमरीका में आंतरिक क़ानून- व्यवस्था संभालने के बहाने सेना का बेजा इस्तेमाल तो किया ही जा सकता हैं। पिछले अंक में इसके बारे में अमेरिकी रक्षा विभाग के मुख्यालय पेंटागन से मिली खबरों का हवाला दिया जा चुका है। ताज़ा खबर है कि माहौल तेजी से 1968 की तरह बनाने के जी तोड़ प्रयास शुरू किये जा चुके हैं। तब के राष्ट्रपति चुनाव में अंततः सफल रहे रिचर्ड निक्सन रिपब्लिकन पार्टी के ही प्रत्याशी थे। ट्रम्प ने खुद संकेत दिया है कि वह नवंबर 2020 के चुनाव के लोकतांत्रिक परिणामों को स्वीकार नहीं भी कर सकते हैं। उन्होंने फॉक्स न्यूज़ के मॉडरेटर क्रिस वैलेस के साथ इंटरव्यू में इस सवाल पर कि क्या वे चुनाव परिणाम को स्वीकार कर लेंगे, जो कहा वो आँखें खोल देने वाला है। उन्होंने शातिराना अंदाज में कहा , “ मैं देखूंगा। मैं न तो हां कहने जा रहा हूं और न ही न कहने जा रहा हूं। मैंने पिछली बार भी हां या न कुछ नहीं कहा था।’’
वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा का मंगलवारी साप्ताहिक स्तम्भ ‘चुनाव चर्चा’ लगभग साल भर पहले, लोकसभा चुनाव के बाद स्थगित हो गया था। कुछ हफ़्ते पहले यह फिर शुरू हो गया। मीडिया हल्कों में सी.पी. के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं। सी.पी. आजकल बिहार में अपने गांव में हैं और बिहार में बढ़ती चुनावी आहट और राजनीतिक सरगर्मियों को हम तक पहुँचाने के लिए उनसे बेहतर कौन हो सकता था। वैसे उनकी नज़र हर तरफ़ है। बीच-बीच में ग्लोब के चक्कर लगाते रहते हैं। रूस घुमा लाये हैं और पिछले दो अंक से अमेरिका को नाप रहे हैं।