“रस्‍सी जल गई पर बल नहीं गया? अब मन की बात या मनमानी बात करना बंद करें मोदी”!

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काॅलम Published On :


डॉ. वेदप्रताप वैदिक

‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कमाल का बयान दे दिया। उन्होंने कह दिया कि मैं देश की व्यवस्था में मूलभूत सुधार कर रहा हूं और इन सुधारों के लिए मुझे जो भी कीमत चुकानी पड़ेगी, मैं चुकाऊंगा। मेरे जो निर्णय हैं, वे पक्के हैं। वे वापस नहीं लिये जाएंगे।

कीमत चुकाने की बात मोदी ने क्यों उठाई? ऐसा उन्होंने क्या कर दिया कि उन्हें कीमत चुकाने की बात कहनी पड़ी? गुजरात में खून-पसीना बहाते समय उन्हें आम जनता से जो प्रतिक्रिया मिली है, उसी ने उन्हें यह कहने के लिए मजबूर किया है। नोटबंदी और जीएसटी ने भाजपा की रीढ़ रहे व्यापारियों और किसानों में इतना असंतोष फैला दिया है कि उन्हें इसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी। वे इसके लिए तैयार हैं, यह अच्छी बात है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उनके दिमाग की खिड़कियां खुली हुई हैं और बाहर चलनेवाली हवाओं से वे परिचित हैं।
किसी भी शासक के लिए ऐसी जागरुकता लाभदायक ही होती है लेकिन उनका यह कहना कि उनके फैसले वापस नहीं लिये जाएंगे, हास्यास्पद है और दुराग्रहपूर्ण है। यह लगभग तानाशाही प्रवृत्ति और अक्खड़पन का सूचक है। हास्यास्पद इसलिए कि नोटबंदी को वापस लेना चाहें तो भी नहीं ले सकते। वह दोहरी मूर्खता होगी। नोटबंदी और जीएसटी को लागू करने के बाद इतनी बार उनके कान मरोड़े गए हैं और उनकी टांग खींची गई है कि वह उन्हें वापस लेने से कम नहीं है। एक लोकतांत्रिक शासक को हमेशा झुकने के लिए तैयार रहना चाहिए। वह जनता का मालिक नहीं, उसका नौकर होता है।
यह भी अजीब प्रपंच है कि आप रोज़ झुकते भी जाते हैं और अकड़ते भी रहते हैं याने रस्सी जल गई लेकिन उसके बल नहीं गए। ऊपर से अब आप खबरपालिका और न्यायपालिका को उपदेश भी झाड़ रहे हैं कि वे अपनी निषेधात्मकता छोड़ें याने हिंदू-हृदय सम्राट की विरुदावलियां गाएं। हिंदुत्व के नाम पर देश में जो तनाव फैला हुआ है, पद्मावती फिल्म की अफवाहों का जो बाजार गर्म है, भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों दनदना रहा है और उस पर हमारे सर्वज्ञ सर्वशक्तिमानजी जो चुप की दहाड़ लगाए हुए हैं, वह दर्शनीय है।
सर्वज्ञजी और उनके जी-हुजूर नौकरशाह आज तक यह नहीं बता सके कि काले धन का क्या हुआ? उसने नोटबंदी को कैसे कच्चा चबा डाला। बेहतर होगा कि अब शेष डेढ़ साल में वे मन की बातें या मनमानी बातें करने की बजाय काम की बात करें।

लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनका सबसे नवीन स्‍तंभ है जो कई अख़बारों में सिंडीकेट होता है।