पहला पन्ना: इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक बता रहा है दिल्ली में ‘सरकार’ शब्द का अर्थ एलजी हो गया!


असल में यह भाजपा की मनमानी है जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने टकराव कहा है। टकराव तो बराबरी में हो, यहां कैसा टकराव? अखबार का मुख्य शीर्षक भी बहुत ही सीधी सरल सूचना है, “दिल्ली में सरकार का मतलब है एलजी: केंद्र ने सदन में विधेयक पेश किया”। अब अगर ऐसा ही है तो दिल्ली में चुनाव किसलिए हुए। और चुनी हुई सरकार के रहते अगर सरकार का मतलब एलजी होने जा रहा है तो खबर यह है कि दिल्ली में सरकार का मतलब बदल रहा है, बदला जा रहा है। यहां अर्थ बदलने की सूचना ही नहीं है। ऐसे बताया जा रहा है जैसे किसी ने पूछा हो और उसका जवाब आया हो।


संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
काॅलम Published On :


आज की सबसे बड़ी खबर है, दिल्ली सरकार के अधिकार कम करने की केंद्र सरकार की कोशिश। यह एक गंभीर और पुराना राजनीतिक मुद्दा है। इसका संबंध आम लोगों से भी है। इसलिए, भारतीय जनता पार्टी जब सत्ता में नहीं थी तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बात करती थी। पर पूरी कोशिश करके भी उसे दिल्ली में सरकार बनाने का मौका नहीं मिला। दूसरी तरफ केंद्र में उसकी सरकार है और दिल्ली के सभी सांसद भाजपा के हैं। ऐसे में वह पलट गई है या मनमानी कर रही है। आज की खबर इस लिहाज से महत्वपूर्ण है और कायदे से यह खबर इस तथ्य के आलोक में होनी चाहिए। शीर्षक में भी यह बात हो सकती है। आइए, देखें इस महत्वपूर्ण राजनीतिक खबर को अखबारों ने कैसे छापा है। कायदे से खबर यह है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने पर भाजपा ने पलटी मारी अब एलजी के जरिए राज करने का इंतजाम। पर ऐसे शीर्षक का जमाना गया। चूंकि इस खबर को कम महत्व देना संभव नहीं था इसलिए, खबर लीड तो है पर बिना धार की।

एलजी के अधिकारों वाली खबर हिन्दुस्तान टाइम्स में आज लीड है। चार कॉलम की इस खबर का शीर्षक दो लाइन में है, “केंद्र ने दिल्ली सरकार के अधिकार कम करने के कदम बढ़ाए”। उपशार्षक है, “फिर केंद्र बनाम दिल्ली सरकार”। इसके साथ एक बॉक्स में बताया गया है कि केंद्र सरकार के विधेयक में क्या प्रस्ताव हैं और दिल्ली सरकार को क्या एतराज है। कायदे से इसमें बताया जाना चाहिए था कि भाजपा इस मुद्दे पर पहले क्या कहती थी अब क्या विधेयक है। दिल्ली सरकार का एतराज तो सर्वविदित है। इस मुख्य खबर के साथ सिंगल कॉलम की तीन खबरों में एक खबर है, भाजपा ने बिल की तारीफ की, कांग्रेस ने कहा राजधानी के लिए काला दिन है। यहां दिलचस्प है कि भाजपा दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बात करती रही है, आम आदमी पार्टी चाहती ही है और कांग्रेस नई कोशिशों के खिलाफ है। ऐसे में यथास्थिति तो फिर भी ठीक है। जनभावना के खिलाफ काम हो रहा है।

इस मामले में इंडियन एक्सप्रेस की प्रस्तुति सबसे निराली है। खबर लीड तो है पर फ्लैग शीर्षक है, नया टकराव। मुझे लगता है आम आदमी पार्टी या कांग्रेस इसपर आंदोलन शुरू करती तो भी इसे नया टकराव नहीं कहा जा सकता था। और टकराव तो इस मुद्दे पर है ही नहीं। फिर भी अखबार बता रहा कि टकराव जैसी स्थिति है जबकि रोडरोलर बहुमत में विधेयक पास हो जाएगा और जिसे विरोध करना होगा वह अब इंडिया गेट पर ही कर लेगा। सरकार अपनी ताकत जानती है। असल में यह भाजपा की मनमानी है जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने टकराव कहा है। टकराव तो बराबरी में हो, यहां कैसा टकराव? अखबार का मुख्य शीर्षक भी बहुत ही सीधी सरल सूचना है, “दिल्ली में सरकार का मतलब है एलजी: केंद्र ने सदन में विधेयक पेश किया”। अब अगर ऐसा ही है तो दिल्ली में चुनाव किसलिए हुए। और चुनी हुई सरकार के रहते अगर सरकार का मतलब एलजी होने जा रहा है तो खबर यह है कि दिल्ली में सरकार का मतलब बदल रहा है, बदला जा रहा है। यहां अर्थ बदलने की सूचना ही नहीं है। ऐसे बताया जा रहा है जैसे किसी ने पूछा हो और उसका जवाब आया हो। यह शीर्षक अदालत के फैसले की स्थिति में हो सकता था। बहुमत के दम पर अर्थ बदला जा रहा है तो यह शीर्षक वह नहीं है जो खबर है या मामला है। इसके साथ एक्सप्लेन्ड और अंदर के पन्नों पर,  दिल्ली में केंद्र बनाम राज्य फिर से है। लेकिन यह नहीं दिखा कि भाजपा पलटी या अपना वादा भूली।

टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक है, एलजी को ज्यादा अधिकार देने का विधेयक लोकसभा में, केंद्र-आप टकराव के लिए मंच तैयार। मुझे लगता है कि बाकी दो शीर्षक के मुकाबले यह तथ्यों के ज्यादा करीब है और मेरे आदर्श शीर्षक के आस-पास भी नहीं है लेकिन इसमें भाव है। असल में स्थिति यही है। विधेयक से टकराव की स्थिति बनी है। यह अलग बात है कि वह कितनी देर टिकेगी। पर टकराव की स्थिति कौन बना रहा है यह बताया नहीं गया हो तो छिपाया भी नहीं गया। यह दिलचस्प है कि चुनी हुई सरकार दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग कर रही है और केंद्र सरकार अपने प्रतिनिधि यानी एलजी के अधिकार स्पष्ट कर रही है। यह सिर्फ टकराव नहीं है। पूरी राजनीति है, मेरी मर्जी वाली।

द हिन्दू का शीर्षक है, एलजी के अधिकार पारिभाषित करने वाला विधेयक लोकसभा में पेश किया गया। उपशीर्षक है, गृहमंत्रालय 1991 के अधिनियम को बदलना चाहता है। अखबार ने इसके साथ दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल की तस्वीर छापी है। बेशक, इस शीर्षक और प्रस्तुति में राजनीति नहीं है और मेरा मानना है कि राजनीति नहीं करनी हो तो प्रस्तुति ऐसी ही होनी चाहिए। पर अखबार राजनीति न करें ये कैसे हो सकता है। दुखद सिर्फ यह है कि वह सरकार के लिए हो रहा है, जनता के लिए नहीं।

द टेलीग्राफ में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है और यहां दिल्ली की जो दो खबरें पहले पन्ने पर हैं वह दिल्ली के अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। एक खबर में बताया गया है कि जेएनयू के पूर्व छात्रों – कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बन भट्टाचार्या के खिलाफ राजद्रोह के मामले में कार्रवाई शुरू हुई। अखबार ने लिखा है कि इतने वर्षों में उमर खालिद का संकल्प कम नहीं हुआ है और यह भी बताया है कि इस मुकदमे के कारण ये लोग पीएचडी करके भी पढ़ाने का कैरियर नहीं चुन सके। दूसरी खबर, मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक की है। उन्होंने कहा है कि सरकार अगर किसानों के विरोध को दबाकर उन्हें खाली हाथ वापस भेजती है तो नतीजों के लिए तैयार रहना चाहिए। अखबार ने लिखा है कि मलिक का चुनाव मोदी सरकार ने खासतौर से किया था और अब वे किसानों के पक्ष में हैं तथा किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित कानून बनाने की जरूरत बताई है। वैसे, केंद्र सरकार को चेतावनी देने और संभल जाने वाली खबरें अखबार ठीक से दे रहे हैं। आज एक्सप्रेस में भी ऐसी एक खबर है कि कैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं में सुलह हो गया है।

एक्सक्लूसिव खबरों की बात करूं तो आज हिन्दू में पांच कॉलम की लीड है, “आईआईएम में अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ी जाति के 60% से ज्यादा पद खाली हैं”। यह साधारण खबर नहीं है। इसके साथ बताया गया है कि देश भर के केंद्रीय विश्वविद्यालयों, संस्कृत विश्वविद्यालयों, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, आईआईटी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस तथा इंडियन इंस्टीटय़ूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च जैसे प्रतिष्ठा वाले संस्थानों में सैकड़ों पद खाली हैं। 18 घंटे काम करने वाली सरकार होने के बावजूद ऐसी हालत है। दूसरी ओर मीडिया में बताया जा रहा है कि नीता अंबानी जल्द ही बीएचयू में पढ़ाएंगी महिला अध्ययन का पाठ, सामाजिक विज्ञान संकाय ने भेजा प्रस्ताव। (दैनिक जागरण की खबर)। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि सरकार और अखबारों की प्राथमिकता क्या है। आपको क्या बताया जा रहा है, सो अलग।

इंडियन एक्सप्रेस में आज कई दिनों बाद बंगाल चुनाव या ममता बनर्जी की कोई खबर नहीं है। वैसे तो कई दिनों के बाद एक दिन खबर नहीं छपना कोई खास बात नहीं है पर जो खबरें छपीं वे ममता बनर्जी पर हमले और उसपर चल रही कार्रवाई से संबंधित रहीं। कल की खबर से साफ था कि मामला कुछ समय के लिए टल गया और अब खबरें भी टल गईं। इस तरह, हमला अगर भाजपा या तृणमूल की चाल थी तो इंडियन एक्सप्रेस ने उसे प्रचारित करने में पूरा साथ दिया। आज द हिन्दू और द टेलीग्राफ में कोलकाता चुनाव की खबर पहले पन्ने पर है। लेकिन बाकी अखबारों में नहीं दिखी। हिन्दू की खबर का शीर्षक है, “साजिश करने वालों को उखाड़ दूंगी : ममता”। खबर पढ़ने से पता चलता है कि यह भी हमले से संबंधित खबर है। इसमें लिखा है, “मेरे पैर अगले कुछ दिनों में ठीक हो जाएंगे। मैं देखूंगी कि आपके पैर बंगाल में आजादी से चल सकें।”

आज इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर की भी चर्चा की जानी चाहिए। यह टाइम्स ऑफ इंडिया में सिंगल कॉलम में है बाकी के तीन अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। इसलिए भी इसकी चर्चा जरूरी है। एक्सप्रेस में ऐसी खबरें होती हैं पर वे उसकी एक्सक्लूसिव होती हैं इसलिए उनका दूसरे अखबारों में उसी दिन नहीं होना कोई खास नहीं है। लेकिन आज की खबर सीबीआई के छापे की है पर किसी और अखबार में नहीं है। यह खबर सेना में भर्ती घोटाले की है। शीर्षक से पता चलता है कि सेना के 17 अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ है। इनमें पांच लेफ्टिनेंट कर्नल हैं। देशभक्ति के इस जमाने में ऐसा होना, शक होना, छापा पड़ना सब बड़ी बातें हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि, सेना के 17 अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज होना और अखबारों में पहले पन्ने पर सूचना नहीं होना। आपके अखबार में है?


लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।