यह तो बहुत बाद में हुआ, 16वीं लोकसभा के गठन और मोदी सरकार बनने के भी करीब साल भर बाद, कि कांग्रेस के टिकट पर नौ बार सांसद और मुख्यमंत्री से केन्द्रीय मंत्री तक बने गमांग ने एक वोट से वाजपेयी सरकार की उस पराजय में अपनी भूमिका के कारण अपनी ही नजरों में गिर जाने की बात कहते हुए भाजपा का दामन थाम लिया। गिरिधर गमांग ने इसमें इतनी देर कर दी कि तब तक ब्रेन-स्ट्रोक और डिमेंशिया जैसे गंभीर रोग अटल बिहारी को जीत-हार, अपराध-प्रायश्चित के बोध से परे ले जा चुके थे।
संसद चर्चा
राजेश कुमार
‘‘माननीय सदस्यों, श्री पी.आर. कुमारमंगलम ने श्रीमती विजया राजे सिंधिया और श्री शिवराज सिंह चैहान को लोकसभा के भीतरी गलियारे में ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने की इजाजत देने का अनुरोध किया है। दोनो गंभीर रूप से बीमार हैं और ह्वीलचेयर पर गलियारे में ले आये गये हैं। अगर सदन सहमत हो तो उन्हें गलियारे में ही वोट डालने की अनुमति दे दी जाये।’’
17 अप्रैल, 1999 को लोकसभा ने स्पीकर जी.एम.सी. बालयोगी की इस बात पर अभी ध्वनिमत से मंजूरी दी ही थी और वह दोनों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिये एक डाक्टर को तैनात रखने का निर्देश दे ही रहे थे कि केन्द्रीय मंत्री कुमारमंगलम ने फिर गुहार लगायी- इस बार, सदन में मौजूद उडीसा के मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग को सरकार के विश्वास प्रस्ताव पर मत-विभाजन में वोट देने से रोकने की गुहार। उन्होंने कहा, ‘‘माननीय स्पीकर महोदय, मैंने मत-विभाजन में आम तौर पर अपनायी जाने वाली पद्धति के बारे में आपको एक पत्र लिखा है। मुझे नहीं मालूम कि इस पर विपक्ष की नेता का क्या मत है लेकिन, यह परम्परा है, इस बारे में पूर्व स्पीकरों ने व्यवस्था भी दी है। मेरा आपसे अनुरोध है कि आप उडीसा के मुख्यमंत्री को यहां वोट डालने का अधिकार होने-न होने के बारे में कृपापूर्वक अपना फैसला सुनायें।’’
गिरिधर गमांग तब उडीसा के मुख्यमंत्री थे, लेकिन राज्य विधानसभा के सदस्य नहीं। वह लोकसभा के ही सदस्य थे। वसुंधरा राजे सिंधिया और शिवराज सिंह चौहान तब मुख्यमंत्री नहीं थे। दोनों लोकसभा के सदस्य थे और ऐसे समय गंभीर रूप से अस्वस्थ, जब विपक्ष ही नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में भाजपा-एनडीए की दूसरी सरकार भी गंभीर संकट में थी। उन्होंने पहली बार 16 मई 1996 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली लेकिन वह लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर सके और केवल 13 दिन बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था।
फिर 19 मार्च 1998 को प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी की दूसरी पारी शुरू हुई। अभी इस पारी के केवल 13 महीने बीते थे। बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू होने को था और केवल एक दिन पहले 14 अप्रैल 1999 की सुबह अन्नाद्रमुक की नेता जे. जयललिता ने राष्ट्रपति के.आर. नारायणन से मुलाकात कर उन्हें सरकार से समर्थन वापसी की चिट्ठी दे दी थी। 18 सदस्यों वाली अन्नाद्रमुक की समर्थन वापसी के साथ ही वाजपेयी सरकार 542 सदस्यों वाली लोकसभा में अल्पमत में आ गयी थी।
निचले सदन में एनडीए के सदस्यों की संख्या 275 से घटकर 256 रह गयी थी, जबकि बहुमत के लिये उसे 272 सदस्यों के समर्थन की दरकार थी। दोनों ओर एक-एक सदस्य जुटाये जा रहे थे। मत-विभाजन से पहले तक हो कुछ भी सकता था। हुआ भी। विपक्षी गठबंधन से बाहर, 4 सदस्यों वाला इंडियन नेशनल लोकदल सरकार के खिलाफ वोट देने की घोषणा कर चुका था और 5 सदस्यों वाली बहुजन समाज पार्टी और 6 सांसदों वाले द्रमुक का रूख सरकार के अस्तित्व के लिये निर्णायक होने वाला था। तब खबरें थीं कि समर्थन वापसी की पूरी पटकथा, अब राज्यसभा में भाजपा के सदस्य, सुब्रमण्यन स्वामी की मेजबानी में हुई एक चाय पार्टी में लिखी गयी थी और स्वामी ने ही जयललिता को बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू होने से पहले सरकार से समर्थन वापस ले लेने के लिये राजी किया था। उनका आकलन था कि ऐसे में सरकार के पास विश्वास-मत लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा और द्रमुक और बसपा के साथ जी.के. मूपनार की तमिल मनीला कांग्रेस भी सरकार के पक्ष में वोट करे, तब भी सरकार 270 के आंकड़े से आगे नहीं बढ पायेगी और एक वोट से विश्वास मत हार जाएगी।
मत-विभाजन में सरकार एक वोट से हारी भी, लेकिन उसे 270 नहीं, 269 वोट ही मिले और गमांग के वोट के साथ विपक्ष ने 270 मत हासिल कर लिया था। दोनों पक्षों के समर्थक सांसदों की संख्या बराबर होने की स्थिति में स्पीकर की भूमिका निर्णायक होती, लेकिन यह नौबत नहीं आयी। आजाद भारत में यह पहला मौका था, जब कोई सरकार एक वोट से विश्वास मत हार गयी थी। ऐसा फिर होने की संभावना भी कम ही दिखती है। सो कह सकते हैं कि शायद यह ऐसा आखिरी मौका भी था, लेकिन वोट देने से गमांग को रोकने का कोई खेल नहीं था। बहस जरूर थी, गर्मागर्म बहस।
बहस में अपना पक्ष रखते हुये बसपा नेता मायावती सरकार का विरोध करने की साफ-साफ घोषणा कर सनसनी मचा चुकी थीं। यह तब था, जब सदन की कार्यवाही शुरू होने से 15-20 मिनट पहले बसपा ने प्रधानमंत्री से वादा किया था कि उसके सदस्य मत-विभाजन में सरकार के हक में वोट करेंगे। मत-विभाजन की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही चर्चा आम थी कि सैफुद्दीन सोज सरकार का समर्थन करने के अपनी पार्टी- नेशनल कांफ्रेंस- के फैसले से बगावत कर सकते हैं और ऐसे में गमांग की सदन में मौजूदगी। गमांग 17 फरवरी 1999 को ही उडीसा के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे, लेकिन न तो अभी वह राज्य विधानसभा के सदस्य बने थे, न अभी उन्होंने लोकसभा की अपनी सदस्यता छोडी थी। बहस की पृष्ठभूमि यही थी।
एनसीपी नेता शरद पवार ने इतना ही कहा भी कि ‘उन्होंने लोकसभा की अपनी सदस्यता छोडी नहीं है, वह किसी दूसरे सदन के सदस्य भी नहीं हैं। लिहाजा इस सदन के निर्वाचित सदस्य की हैसियत से उन्हें इस मौके पर सदन में वोट करने का पूरा-पूरा हक है।’ तत्कालीन खनन मंत्री नवीन पटनायक की गुहार थी कि वह भुबनेश्वर जाकर राज्य की कमान देखें। वह और बिजली मंत्री कुमारमंगलम का भी तर्क था कि गमांग उडीसा सरकार के कोष से वेतन लेते हैं, सो वह वहीं जाएं।
सत्ता पक्ष के सदस्यों की टोकाटोकी के बीच कांग्रेस के पी. शिवशंकर ने इस बारे में संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख करते हुये कहा, ‘‘महोदय, केवल बहस के लिए एक निरर्थक और फालतू मुद्दा उठाया जा रहा है। अनुच्छेद 99 कहता है कि संसद के किसी भी सदन के सदस्य को अपनी सीट लेने से पहले इसके लिए तीसरी अनुसूची में निर्धारित फॉर्म पर राष्ट्रपति या उनकी तरफ से नामित किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेना होता है। गमांग ने वह किया है। अब उस सदस्य को केवल संविधान के उस अनुच्छेद 101 के तहत अयोग्य करार दिया जा सकता है और उसकी सदस्यता रद्द की जा सकती है, जो कहता है कि कोई भी सदस्य एक साथ संसद के दोनों सदनों का या संसद और राज्य विधानमंडलों में एक साथ दो सदनों का सदस्य नहीं हो सकता। और गमांग अभी उडीसा विधानसभा के सदस्य नहीं हैं।’’
शिवशंकर ने बात खत्म करते हुये जोड़ा कि संसद और राज्यों के विधानमंडलों में दो सदन का सदस्य होने की स्थिति में अनुच्छेद 101 का ही दूसरा खंड लागू होता है, जिसमें प्रावधान है कि अगर संसद के किसी सदन का कोई सदस्य किसी विधानसभा या परिषद का सदस्य निर्वाचित हो जाता है, तो राष्ट्रपति द्वारा तय नियमों में उल्लिखित अवधि की समाप्ति के बाद संसद की उसकी सीट अपने आप खाली मान ली जाएगी।’’
उन्होंने यह भी बताया कि यह ऐसा पहला मौका नहीं है और बंसीलाल हरियाणा का मुख्यमंत्री होने के बाद संसद में वोट कर चुके हैं। दस वर्षों तक लोकसभा के स्पीकर रहे बलराम जाखड़ ने भी कहा कि राज्य विधानसभा का सदस्य चुने जाने के 14 दिन के भीतर उन्हें इस सदन से इस्तीफा देना होगा, लेकिन तब तक उन्हें डिसक्वालिफाइ किए जाने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी चाहते थे कि इस मामले में संवैधानिक प्रावधानों पर बहस के बजाय परम्परा और पूर्व स्पीकरों की व्यवस्थाओं को तरजीह दी जाए। उन्होंने दो उदाहरण भी दिए- एक, कि 1972 में पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनने के बाद सिद्धार्थ शंकर राय ने जब यहां लोकसभा में गृह मंत्रालय की अनुदान मांगों पर बहस में बोलने की इजाजत मांगी, तो स्पीकर ने व्यवस्था दी कि एक राज्य के मुख्यमंत्री का पद ग्रहण कर चुका सदस्य इस सदन की कार्यवाही में भाग नहीं ले सकता। और दूसरा, कि लोकसभा सदस्य वसंतराव पाटिल, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री नियुक्त किए जाने के बाद जब थोडी देर के लिए सदन में आए तो मधु दंडवते ने सदन में उनकी मौजूदगी पर ही आपत्ति कर दी और पाटिल तुरंत सदन से बाहर चले गए। आडवाणी की इन नज़ीरों और दलील पर मार्क्सवादी सोमनाथ चटर्जी का मत था कि संवैधानिक प्रावधानों के ऊपर स्पीकर की किसी भी व्यवस्था को तरजीह नहीं दी जा सकती।
इसके बाद जो कुछ हुआ, वह इतिहास है। बहुज्ञात भी। यह तो बहुत बाद में हुआ, 16वीं लोकसभा के गठन और मोदी सरकार बनने के भी करीब साल भर बाद, कि कांग्रेस के टिकट पर नौ बार सांसद और मुख्यमंत्री से केन्द्रीय मंत्री तक बने गमांग ने एक वोट से वाजपेयी सरकार की उस पराजय में अपनी भूमिका के कारण अपनी ही नजरों में गिर जाने की बात कहते हुए भाजपा का दामन थाम लिया। यानि यह प्रायश्चित था। बस गिरिधर गमांग ने इसमें इतनी देर कर दी कि तब तक ब्रेन-स्ट्रोक और डिमेंशिया जैसे गंभीर रोग अटल बिहारी वाजपेयी को जीत-हार, अपराध-प्रायश्चित के बोध से परे ले जा चुके थे। भाजपा में शामिल होते वक्त गमांग ने कहा था कि वाजपेयी सरकार को गिराने का अपराध उन्होंने कांग्रेस संसदीय दल के ह्विप के दबाव में किया था, लेकिन यह नहीं बताया कि प्रायश्चित में उन्हें दो दशक क्यों लगे।
हर पखवाड़े मीडियाविजिल पर प्रकाशित होने वाले ‘संसद चर्चा’ स्तंभ के लेखक राजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और संसद की रिपोर्टिंग का इन्हें लंबा अनुभव है